नौले धारे या स्प्रिंग पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली आबादी के लिये पानी का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत के कम-से-कम 20 राज्य पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित हैं। निलगिरि से हिमालय तक अनुमानतः 50 लाख स्प्रिंग्स हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोग पीने और दैनिक इस्तेमाल के पानी के लिये स्प्रिंग पर निर्भर हैं।
उत्तर-पूर्व और उत्तरी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित स्प्रिंग पर काफी हद तक काम किया गया है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड, मेघालय, सिक्किम जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में अब भी स्प्रिंग ही पेयजल का एकमात्र साधन है। हिमालयी क्षेत्रों में स्प्रिंग के संरक्षण पर जितना काम किया गया है उतना पश्चिमी घाट में काम नहीं हुआ है।
पश्चिमी घाट में मुख्यतः महाराष्ट्र, केरल और कर्नाटक आते हैं। उत्तराखण्ड में स्प्रिंग को नौले धारे कहा जाता है लेकिन महाराष्ट्र में इसे ‘जारा’ कहा जाता है। पश्चिमी घाट में दो प्रकार के जारा हैं- ग्रैविटी जारा और आर्टिफीशियल जारा। यहाँ ग्रैविटी स्प्रिंग्स या जारा की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
पश्चिमी घाट में जारा दो लीथो-यूनिट्स के सम्पर्क स्थल से निकले हैं या फिर टूटी-फूटी सतह से। शोध बताते हैं कि पश्चिमी घाटों में स्थित अधिकतर जारा या स्प्रिंग में रासायनिक तत्वों की मात्रा बहुत कम हैं, इसलिये पेयजल के रूप इनके पानी के इस्तेमाल से नुकसान भी नहीं है। इनके पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिये भी किया जा सकता है। एक दशक पहले तक इनके पानी को इकट्ठा कर सिंचाई के काम में लगाया जाता था लेकिन बाद में इनके प्रति उदासीनता बढ़ने लगी।
सम्प्रति पश्चिमी घाट के स्प्रिंग अवहेलना के शिकार हैं। अवेहलना के चलते कई स्प्रिंग सूख जाया करते हैं जिससे लोगों को सिंचाई और पीने के लिये पानी नहीं मिल पाता है और उन्हें पलायन करना पड़ता है। पलायन करने वाले ये लोग दूसरे शहरों में जाते हैं और दिहाड़ी मजूदरी करने पर विविश हो जाते हैं। कई बार उनका शोषण भी किया जाता है लेकिन उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं होता है।
पश्चिमी घाटों के कुछ जारा पर शोध करने वाले वाटरशेड ऑर्गेनाइजेशन ट्रस्ट से जुड़े शोधकर्ता (जीओहाइड्रोलॉजिस्ट) अार. थॉमस कहते हैं, ‘हमने वर्ष 2011 में खंडोवाचीवाडी और गुरुकुल नाम के दो गाँवों में स्प्रिंग पर काम किया था। वहाँ मैंने पाया कि लोगों को पता ही नहीं है कि स्प्रिंग को बचाए रखने के लिये किस तरह के एहतियाती कदम उठाए जाने चाहिए। इन क्षेत्रों में स्प्रिंग ही पेयजल का एकमात्र स्रोत है।’ थॉमस ने एनजीओ वाटरशेड ऑर्गेनाइजेशन ट्रस्ट की ओर से शोध कार्य किया था।
महाराष्ट्र के सतारा में अधिकांश स्प्रिंग सामुदायिक हैं। उत्तरी महाराष्ट्र में नौले-धारे की संख्या अधिक है लेकिन उनमें से अधिकांश सूख चुके हैं। थॉमस बताते हैं, ‘इन क्षेत्रों में जिस पद्धति से कृषि की जाती है उससे भी जारा को नुकसान हुआ है और साथ ही यहाँ वनाग्नि की घटनाएँ भी हुई हैं जिससे भी स्प्रिंग्स प्रभावित हुए हैं। मैंने अहमदनगर जिलान्तर्गत अकोले और संगमनेर ब्लॉक के 13 गाँवों के 63 स्प्रिंग को चिन्हित किया था जिनमें से 26 स्प्रिंग ही सदाबहार थे। इन क्षेत्रों में पलायन ज्यादा दिखा क्योंकि स्प्रिंग्स के सूख जाने से पेयजल की समस्या तो उत्पन्न होती है, इससे खेती भी बन्द हो जाती है। हैरानी की बात है कि इन क्षेत्रों के स्प्रिंग्स पर सरकार सोच नहीं रही है।’
थॉमस ने कहा कि पश्चिमी घाट में स्प्रिंग्स को देखकर जाहिर हो जाता है कि सरकार की तरफ से किसी तरह का काम नहीं किया गया है। स्प्रिंग वाले क्षेत्रों में जहाँ तहाँ खनन किया जा रहा है। इससे भी नुकसान हो रहा है लेकिन किसी को भी इसकी फिक्र नहीं है।
गौरतलब है कि पूर्वोत्तर के स्प्रिंग्स पर बहुत काम किया गया है जिस कारण ये सुरक्षित हैं और लोगों को अबाध पानी मिलता रहता है। इसके उलट पश्चिमी घाटों के स्प्रिंग्स को लेकर कोई योजना नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सरकार को इस बात की जानकारी ही नहीं है पश्चिमी घाट में कितने स्प्रिंग्स हैं। वैसे अपुष्ट स्रोतों की मानें तो पश्चिमी घाट में लगभग 10 हजार स्प्रिंग्स या नौले-धारे हैं जिनमें से बहुत से स्प्रिंग्स सूख चुके हैं। बताया जाता है कि 1970 में जब सूखा पड़ा था तो इन्हीं नौले-धारों ने लोगों का गला तर किया था। महाराष्ट्र में सामान्य स्प्रिंग के अलावा गर्म स्प्रिंग भी हैं।
बताया यह भी जा रहा है कि पश्चिमी घाट के कुछ पुराने मन्दिर स्प्रिंग से जुड़े हुए हैं जो बताते हैं कि पूर्व में ये स्प्रिंग्स कितने महत्त्वपूर्ण थे। गोदावली का तपनेश्वर मन्दिर ऐसा ही एक मन्दिर है जो सीधे तौर पर स्प्रिंग से जुड़ा हुआ है। मन्दिर के पास टैंक बने हुए हैं जहाँ स्प्रिंग का पानी स्टोर होता है। पानी का इस्तेमाल पीने, नहाने और अन्य जरूरतों के लिये किया जाता है।
पिछले वर्ष जर्नल अॉफ इकोलॉजिकल सोसाइटी में छपे एक शोधपत्र में भी पश्चिमी घाट में स्थित स्प्रिंग्स के भविष्य को लेकर चिन्ता जताई गई थी। इस शोध में 10 विशेषज्ञ शामिल थे। शोध में पाया गया कि कई स्प्रिंग्स के निकट शौचालय बनवा दिये गए हैं जिस कारण उनका पानी पीने लायक नहीं है। इस शोधपत्र में 5 स्प्रिंग्स अखेगनी स्प्रिंग (15 लीटर प्रति मिनट), गोदावली स्प्रिंग, किरुंदे स्प्रिंग (31 लीटर प्रति मिनट गर्मी के मौसम में), ताइघाट स्प्रिंग (5.5 लीटर प्रति मिनट) और उम्बरी स्प्रिंग को शामिल किया गया था। इस शोध में भी स्प्रिंग्स को लेकर सरकार की उदासीनता का जिक्र किया गया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि महाराष्ट्र में हाल के सालों में बारिश के परिमाण में भी कमी आई है जिस कारण ग्राउंडवाटर का इस्तेमाल बढ़ गया है। ग्राउंडवाटर के अधिक दोहन के कारण भी स्प्रिंग्स पर असर पड़ा है। पर्वतीय क्षेत्रों में बारिश के पानी को संरक्षित करने पर जोर देना होगा ताकि इससे ग्राउंडवाटर रिचार्ज हो सके और स्प्रिंग्स से साल भर पानी मिलता रहे। पश्चिमी घाट की अधिकांश नदियाँ और नहरें इन्हीं स्प्रिंग्स से निकली हैं। अतः नदियों और नहरों के संरक्षण के लिये भी स्प्रिंग्स का संरक्षण जरूरी है।
वैसे, कुछ एनजीओ पश्चिमी घाट के स्प्रिंग्स को लेकर काम कर रहा है। ग्रामपरी ऐसा ही एक संगठन है। संगठन ने 12 गाँवों के साथ मिलकर पिछले 3 वर्षों में 2 दर्जन से अधिक स्प्रिंग्स का संरक्षण किया।
तमिलनाडु के स्प्रिंग को लेकर कीस्टोन फाउंडेशन लम्बे समय से काम कर रहा है। यह संगठन पिछले दो दशकों से इस क्षेत्र में सक्रिय है। इसी तरह ऐक्वाडैम और दूसरी अन्य संस्थाएँ भी अपने स्तर पर स्प्रिंग्स के संरक्षण में लगी हैं। ग्रामपरी की डायरेक्टर जयश्री राव कहती हैं, ‘पश्चिमी घाटों के स्प्रिंग्स पर हम कई तरह के काम कर रहे हैं जिनसे इनको पुनर्जीवन मिला है। लोगों को भी साफ पानी मुहैया करवाना सम्भव हो पाया है।’ उन्होंने कहा, ‘पश्चिमी घाट के स्प्रिंग्स को लेकर सरकार उदासीन है। यहाँ के लोग इन्हीं स्प्रिंग्स पर निर्भर हैं लेकिन सरकार को इनकी चिन्ता नहीं है।’
विशेषज्ञ बताते हैं कि स्प्रिंग्स का इस्तेमाल पेयजल के अलावा दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिये भी किया जा सकता है बशर्ते की सरकार इसको लेकर व्यापक तौर पर काम करे। इसके लिये लोगों को जागरूक करने की भी जरूरत है। विशेषज्ञों ने राय दी कि स्प्रिंग के चरित्र की पूरी जानकारी लेने के बाद उन्हें टैप किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही दो से तीन स्प्रिंग का पानी एक साथ संग्रह किया जाना चाहिए ताकि बड़ी आबादी की जरूरतें पूरी की जा सके। पानी संग्रह करने के बाद वाटर सप्लाई स्कीम लागू की जानी चाहिए और उनकी नियमित निगरानी करनी चाहिए। आबादी की दैनिंदिन जरूरतों के बाद भी पानी अगर बच जाये तो उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए ताकि बाद में उनका इस्तेमाल किया जा सके। रेन वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि स्प्रिंग्स से साल भर पानी मिलता रहे।
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Post By: RuralWater