पानी के प्रति शिक्षण सही हो तो समाज का बदलाव होता है राजस्थान के लोगों ने 1200 से ज्यादा बेपानीदार गांवों को पानीदार गांव में तब्दील कर दिया है। उन्होंने बादल की एक-एक बूंदों को संजोना सीख लिया। इसके चलते इलाके में बहने वाली नदी जो 1980 के करीब पूरी तरह सूख चुकी थी, वहां इस वक्त भी 7 फुट से ज्यादा पानी बह रहा है। जुलाई तक बरसात नहीं होने के बाद भी नदी में इतना पानी वह भी एकदम साफ पानी बह रहा है। इस इलाके में सूखा पड़ने की कोई आशंका नहीं है।
इन दिनों खासकर उत्तर भारत में मानसून की देरी को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं लेकिन हमें यह समझना होगा कि मानसून में देरी ही असली मुसीबत नहीं है। मानसून समय से पहले भी आता रहा है और कई बार समय से देरी से भी आता है। इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है। इस बार भी मानसून आएगा, भले उसमें थोड़ी देरी हो गई हो लेकिन वह आएगा जरूर। इसलिए डरने की कोई बात नहीं है। चुनौती इससे बड़ी है। सवाल कहीं ज्यादा गंभीर है। सवाल यह है कि मानसून में थोड़ी देर की बात से हाहाकार क्यों मच रहा है? दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों से लेकर दिल्ली जैसे महानगर में पीने के पानी को लेकर संकट क्यों पैदा हो जाता है? सूखे की आशंका क्यों जताई जाने लगती है? इन सब मुश्किलों का जिम्मेदार मानसून को ठहरा दिया जाता है। लेकिन हमारे समाज में हो क्या रहा है। हम प्रकृति के उपहारों का लालची और भौतिकवादी तरीके से दोहन कर रहे हैं। यह समस्या इसलिए पैदा हो रही है कि हम अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा उपयोग कर रहे हैं। इससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि सरकारों का ध्यान इसके समुचित प्रबंधन की ओर है ही नहीं।दरअसल, पानी तो हमारे जीवन का हिस्सा है। उसके बिना जीवन की कल्पना नहीं हो सकती। ऐसे में हमें पानी के साथ तो प्रेम का रिश्ता बनाना ही चाहिए। राजा जनक की एक कहानी तो हम सबने सुनी है। उनके राज्य में बरसात नहीं हो रही थी तो वे राजमहल छोड़कर खुद खेतों में हल चलाने के लिए निकल आए। लेकिन आज के जमाने में ऐसा संभव नहीं दिखता। हमारे राजनेताओं को इसकी कोई चिंता नहीं है। न तो वह खुद पानी का इस्तेमाल कम कर रहे हैं और न ही उन्हें समस्या की विकरालता का अंदाजा ही है जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें जल संकट को लेकर तमाम पहलू पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए लेकिन इसके लिए तो उन्हें राजा जनक की तरह जमीन पर आना होगा। इसके लिए मौजूदा व्यवस्था में राजनेता क्या आम आदमी भी तैयार नहीं दिखता?
प्रकृति का उपभोग नहीं, उपयोग करना होगा इसकी मिसाल बन चुकी हैं-हमारी नदियां। भारत में अब एक भी नदी ऐसी नहीं बची है जिसके तट पर आप आचमन कर सकें, उसके पानी को पीने का साहस जुटा पाएं। हमारी नदियां नालों में तब्दील होती जा रही हैं। जब कोई नदी नाले में तब्दील होने लगे तो समझना चाहिए कि यह भ्रष्टाचार का चरमोत्कर्ष है। यह बताता है कि राज्य की शासन व्यवस्था और समाज की जीवनशैली में गिरावट आ चुकी है। इसके लिए जरूरी है कि हमें और हमारे राजनेताओं को अपने जीवन में सदाचार अपनाना होगा। सदाचार का सीधा मतलब है कि आप इस धरती से जितना लेते हो, प्रकृति का जितना उपयोग करते हो, कम से कम उतना तो उसे वापस कर दो।
जल और उसके संरक्षण के महत्व को सीखना होगा
यह सदाचार कैसे आएगा? इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले हमें अपने नीति-निर्धारकों या कहें राजनेताओं और नौकरशाहों को शिक्षण दिया जाए। इसके बाद विस्तृत पैमाने पर समाज का शिक्षण हो। इसके बाद खेती, उद्योग-धंधों में प्राकृतिक संसाधनों के समुचित प्रबंधन का कौशल का प्रशिक्षण दिया जाए। अगर प्राकृतिक संसाधनों के समुचित प्रबंधन का कौशल सीख लिया जाए तो शिक्षण की क्या जरूरत होगी? यह सवाल भी उठ सकता है। लेकिन इस बात की जरूरत ज्यादा है कि हम अपने नीति-निर्धारकों और समाज को इस बात का मतलब समझा सकें कि संरक्षण का क्या मतलब होता है? अनुशासित उपयोग के जरिए हम क्या बदलाव ला सकते हैं? हमें लोगों को इस बात के लिए शिक्षित करना होगा कि जब हम प्राकृतिक संसाधनों का जमकर इस्तेमाल करते हैं, दोहन करते हैं तो धरती को बुखार चढ़ आता है। मौसम का मिजाज गरमाने लगता है। सृष्टि को हम कैसे बचा सकते हैं? कैसे बना सकते हैं? इसको लेकर समाज को शिक्षित किए जाने की जरूरत है। हमें इस बात को गांठ बांध कर समझ लेना चाहिए कि सृष्टि को अगर बचाना है तो कम से कम भोग करना होगा और जितना भोग किया है, उससे ज्यादा वापस करना होगा।
शिक्षण सही हो तो बदलाव होता है अगर समाज का शिक्षण इस तरह से हो जाए तो बदलाव होता है। मैं राजस्थान के जिस इलाकों में काम करता हूं वहां तो मानसून के दौरान भी काफी कम बरसात होती है लेकिन कोई भी यहां आकर देख सकता है कि किस तरह इलाके के लोगों ने 1200 से ज्यादा बेपानीदार गांवों को पानीदार गांव में तब्दील कर दिया है। उन्होंने बादल की एक-एक बूंदों को संजोना सीख लिया। इसके चलते हमारे इलाके में बहने वाली नदी जो 1980 के करीब पूरी तरह सूख चुकी थी, वहां इस वक्त भी 7 फुट से ज्यादा पानी बह रहा है। जुलाई तक बरसात नहीं होने के बाद भी नदी में इतना पानी वह भी एकदम साफ पानी बह रहा है। इस इलाके में सूखा पड़ने की कोई आशंका नहीं है। अभी ही नहीं दो चार साल पानी नहीं बरसे तो भी इलाके में पानी की कोई कमी नहीं महसूस होगी। इन दिनों क्या हो गया है कि महानगरों और शहरों में पर्यावरण का फैशन चल निकला है। लोग सभा-गोष्ठियां करते हैं, फोटो खिंचवा लेते हैं। बस पर्यावरण की चिंता पूरी हो गई। तो इससे बदलाव नहीं होगा।
बदलाव सबसे पहले खुद में आना चाहिए। आप पानी को बचाने के लिए संरक्षित रखने के लिए क्या-क्या करते हैं, यह महत्वपूर्ण है। जिस दिन देश का हर शख्स इस बात को समझ लेगा, भारत में पानी का कोई संकट नहीं होगा। संकट नहीं हो, इसके लिए सरकारों को भी चेतने की जरूरत है। उन्हें नदियों को बचाने के लिए कारगर नीतियों को बनाने की तरफ ध्यान देना होगा। नदियों को नाले में तब्दील होने से बचाने का काम युद्ध स्तर पर होना चाहिए। इसके अलावा, कानून ऐसा बनाया जाना चाहिए जिससे पानी पर सबका बराबर का हक हो। आज यह भी देखने को मिल रहा है कि किसी इलाके को आम आदमी पानीदार बनाते हैं और बाद में सरकार आकर कहती है कि यह पानी तो सरकार का है और सरकार इसका जैसे चाहे इस्तेमाल करेगी। यह अन्याय है। इसके अलावा बरसात की एक-एक बूंद को सहेज कर उसके इस्तेमाल के प्रबंधन की ओर ध्यान देना होगा। दरअसल, मानसून के आने में ऐसा विलंब सरकार और समाज दोनों के लिए चेतावनी ही है।
प्रदीप कुमार की बातचीत पर आधारित
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