27 जुलाई 09 को अलकनन्दा नदी पर निर्माणाधीन 330 मेगावाट की श्रीनगर जल विद्युत परियोजना का कॉफर बाँध ढह गया। दरअसल यह परियोजना फर्जी कागजातों पर आधारित है तथा पर्यावरण और कानूनी मानकों की अवहेलना करते हुए बन रही है। इस बाँध का काम 1988 में आरम्भ होना था, परन्तु अब तक कई बड़े ठेकेदार काम हाथ में लेकर इसे छोड़ चुके हैं। अंततः 2005 में आंध्र प्रदेश के जी.वी.के. ग्रुप ने इसे शुरू किया।
उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद् द्वारा 12-3-85 को दिये गए प्रस्ताव के अनुसार बाँध की प्रस्तावित ऊँचाई 73 मीटर थी और इसे ‘रन ऑफ दि रिवर’ परियोजना बताया गया था। अधिकारियों का दावा था कि इससे पर्यावरण पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। परन्तु देखा गया कि:-
(1) प्रभावित क्षेत्र के घरों में दरार पड़ गई हैं, क्योंकि बाँध निर्माण के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया।
(2) बाँध निर्माण के मलबे और अन्य व्यर्थ सामग्री को अलकनन्दा के तट पर फेंक दिया जाता है। इसी कारण नदी ने अपना मार्ग बदल दिया जिससे श्रीनगर की अनेक बस्तियों के लिए तबाही आ गई।
(3) निर्माण के दौरान उड़ने वाली धूल से चारे और औषधीय पौधों को क्षति पहुँची है।
(4) प्रभावित क्षेत्र के लोगों, विशेष रूप से बच्चों में कुछ बीमारियाँ, मुख्य रूप से दमा, त्वचा और आँखों की अलर्जी बढ़ गई है।
पर्यावरण मंजूरी में दी गई शर्तों में कहा गया था कि कैचमेंट क्षेत्र में भू-आकृति में बदलाव को जानने के लिए अध्ययन किये जाएँगे, ताकि ढलानों और जलाशय की परिधि क्षेत्र को इंजीनियरिंग और जैविक उपायों से स्थिर बनाया जा सके। परन्तु 26-6-2006 की निगरानी रिपोर्ट में ऐसा किये जाने की कोई जानकारी नहीं है।
केन्द्रीय पर्यावरण प्रभाव आकलन समिति ने 23-3-1985 को 200 मेगावाट की परियोजना को इस आधार पर मंजूरी दी कि कुल 300 हेक्टेयर भूमि जलमग्न होगी, जिसमें से 175 हेक्टेयर वन भूमि होगी। सितम्बर 1986 में उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग ने श्रीनगर बिजली परियोजना की क्षमता 200 मेगावाट से बढ़ा कर 320.7 मेगावाट करने का फैसला किया और इस प्रस्ताव को केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण को भेजा। प्राधिकरण ने 14 जून 2000 को संशोधित परियोजना को पुनः मंजूरी प्रदान कर दी। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने 6 नवम्बर 1982 को श्रीनगर परियोजना को ‘रन आफ दि रिवर परियोजना’ के रूप में वित्तीय एवं तकनीकी मंजूरी प्रदान की थी जबकि पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इसे जलाशय सहित रन आफ दि रिवर परियोजना के रूप में मंजूरी प्रदान की थी। वर्ष 1985 के नियमों के अनुसार मंत्रालय की पर्यावरण संबंधी मंजूरी पांच सालों के लिए वैध होती है। परन्तु 14 सालों के बाद 1999 में बिना किसी पूछताछ के पुरानी मंजूरी को विस्तार दे दिया गया। छः साल बाद फिर इसे पुनः मंजूरी दे दी गई, जिसका अर्थ है कि परियोजना 1985 में दी गई मंजूरी के आधार पर चल रही है। वर्ष 1985 में बाँध की प्रस्तावित ऊँचाई 63 मीटर थी, जो अब बढ़ा कर 93 मीटर कर दी गई है। इसका अर्थ है कि परियोजना में भारी बदलाव किये गए हैं। परन्तु इसका आधार कई साल पूर्व दी गई पर्यावरण संबधी मंजूरी था। बाँध के जलाशय के लिए पर्यावरण संबंधी मंजूरी 604 मीटर की थी। वन विभाग की मंजूरी 605.5 मीटर के जलाशय के लिए थी। परन्तु जलाशय के अंत में धारी देवी मंदिर के पास यह 611 मीटर के निशान को छू रहा था।
केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने आर्थिक व तकनीकी मंजूरी 14-06-2000 को दी थी, परन्तु परियोजना का मुख्य कार्य अभी भी शुरू नहीं हुआ है। इसे दी गई मंजूरी 3 वर्षो के लिए थी, जो 14-06-2003 को समाप्त हो गई परन्तु काम अभी भी जारी है! केन्द्रीय विद्युत प्रधिकरण द्वारा दी गई मंजूरी में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि परियोजना की लागत 1,299 करोड़ रु. और 9.5 करोड़ अमेरिकी डालर के बराबर होगी। पर्यावरण व वन मंत्रालय की निगरानी समिति ने 2006 में इसकी लागत 1978 करोड़ बताई।
राज्य स्तर की समिति द्वारा 26 अगस्त 2006 को दी गई मौके की निगरानी रिपोर्ट में कहा गया था कि वहाँ शौचालय की कोई सुविधा नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप खुले में शौच के कारण अलकनन्दा नदी और आसपास का क्षेत्र प्रभावित हो रहा है। इसके अलावा बाँध निर्माण के नाम पर काटे गए पेड़ों व उनकी संख्या के बारे में कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं है।
परियोजना के बारे में कहा गया था कि इसमें पानी का संचय दिन के समय में किया जाएगा और बिजली का उत्पादन शाम के समय अधिकतम माँग के मौके पर किया जाएगा। परन्तु ऐसा करने से नदी का प्रवाह रुक जाएगा और निचले क्षेत्रों में जल-विद्युत परियोजनाओं पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा । इस संदर्भ में ‘माटू जन संगठन’ की ओर से विमल भाई ने सरकार से माँग की है और विभिन्न सरकारी संगठनों को लिखा है कि क्षेत्र के पर्यावरण की रक्षा के लिए इस परियोजना का निर्माण कार्य तुरंत रोक कर परियोजना के बारे में एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए ; विस्थापितों को उपयुक्त मुआवजा और पुनर्वास मिलना चाहिये तथा अब तक किये गये बाँध के काम का विकल्प खोजा जाना चाहिए। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के प्रबंध किये जाने चाहिये।
उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद् द्वारा 12-3-85 को दिये गए प्रस्ताव के अनुसार बाँध की प्रस्तावित ऊँचाई 73 मीटर थी और इसे ‘रन ऑफ दि रिवर’ परियोजना बताया गया था। अधिकारियों का दावा था कि इससे पर्यावरण पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। परन्तु देखा गया कि:-
(1) प्रभावित क्षेत्र के घरों में दरार पड़ गई हैं, क्योंकि बाँध निर्माण के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया।
(2) बाँध निर्माण के मलबे और अन्य व्यर्थ सामग्री को अलकनन्दा के तट पर फेंक दिया जाता है। इसी कारण नदी ने अपना मार्ग बदल दिया जिससे श्रीनगर की अनेक बस्तियों के लिए तबाही आ गई।
(3) निर्माण के दौरान उड़ने वाली धूल से चारे और औषधीय पौधों को क्षति पहुँची है।
(4) प्रभावित क्षेत्र के लोगों, विशेष रूप से बच्चों में कुछ बीमारियाँ, मुख्य रूप से दमा, त्वचा और आँखों की अलर्जी बढ़ गई है।
पर्यावरण मंजूरी में दी गई शर्तों में कहा गया था कि कैचमेंट क्षेत्र में भू-आकृति में बदलाव को जानने के लिए अध्ययन किये जाएँगे, ताकि ढलानों और जलाशय की परिधि क्षेत्र को इंजीनियरिंग और जैविक उपायों से स्थिर बनाया जा सके। परन्तु 26-6-2006 की निगरानी रिपोर्ट में ऐसा किये जाने की कोई जानकारी नहीं है।
केन्द्रीय पर्यावरण प्रभाव आकलन समिति ने 23-3-1985 को 200 मेगावाट की परियोजना को इस आधार पर मंजूरी दी कि कुल 300 हेक्टेयर भूमि जलमग्न होगी, जिसमें से 175 हेक्टेयर वन भूमि होगी। सितम्बर 1986 में उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग ने श्रीनगर बिजली परियोजना की क्षमता 200 मेगावाट से बढ़ा कर 320.7 मेगावाट करने का फैसला किया और इस प्रस्ताव को केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण को भेजा। प्राधिकरण ने 14 जून 2000 को संशोधित परियोजना को पुनः मंजूरी प्रदान कर दी। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने 6 नवम्बर 1982 को श्रीनगर परियोजना को ‘रन आफ दि रिवर परियोजना’ के रूप में वित्तीय एवं तकनीकी मंजूरी प्रदान की थी जबकि पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इसे जलाशय सहित रन आफ दि रिवर परियोजना के रूप में मंजूरी प्रदान की थी। वर्ष 1985 के नियमों के अनुसार मंत्रालय की पर्यावरण संबंधी मंजूरी पांच सालों के लिए वैध होती है। परन्तु 14 सालों के बाद 1999 में बिना किसी पूछताछ के पुरानी मंजूरी को विस्तार दे दिया गया। छः साल बाद फिर इसे पुनः मंजूरी दे दी गई, जिसका अर्थ है कि परियोजना 1985 में दी गई मंजूरी के आधार पर चल रही है। वर्ष 1985 में बाँध की प्रस्तावित ऊँचाई 63 मीटर थी, जो अब बढ़ा कर 93 मीटर कर दी गई है। इसका अर्थ है कि परियोजना में भारी बदलाव किये गए हैं। परन्तु इसका आधार कई साल पूर्व दी गई पर्यावरण संबधी मंजूरी था। बाँध के जलाशय के लिए पर्यावरण संबंधी मंजूरी 604 मीटर की थी। वन विभाग की मंजूरी 605.5 मीटर के जलाशय के लिए थी। परन्तु जलाशय के अंत में धारी देवी मंदिर के पास यह 611 मीटर के निशान को छू रहा था।
केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने आर्थिक व तकनीकी मंजूरी 14-06-2000 को दी थी, परन्तु परियोजना का मुख्य कार्य अभी भी शुरू नहीं हुआ है। इसे दी गई मंजूरी 3 वर्षो के लिए थी, जो 14-06-2003 को समाप्त हो गई परन्तु काम अभी भी जारी है! केन्द्रीय विद्युत प्रधिकरण द्वारा दी गई मंजूरी में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि परियोजना की लागत 1,299 करोड़ रु. और 9.5 करोड़ अमेरिकी डालर के बराबर होगी। पर्यावरण व वन मंत्रालय की निगरानी समिति ने 2006 में इसकी लागत 1978 करोड़ बताई।
राज्य स्तर की समिति द्वारा 26 अगस्त 2006 को दी गई मौके की निगरानी रिपोर्ट में कहा गया था कि वहाँ शौचालय की कोई सुविधा नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप खुले में शौच के कारण अलकनन्दा नदी और आसपास का क्षेत्र प्रभावित हो रहा है। इसके अलावा बाँध निर्माण के नाम पर काटे गए पेड़ों व उनकी संख्या के बारे में कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं है।
परियोजना के बारे में कहा गया था कि इसमें पानी का संचय दिन के समय में किया जाएगा और बिजली का उत्पादन शाम के समय अधिकतम माँग के मौके पर किया जाएगा। परन्तु ऐसा करने से नदी का प्रवाह रुक जाएगा और निचले क्षेत्रों में जल-विद्युत परियोजनाओं पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा । इस संदर्भ में ‘माटू जन संगठन’ की ओर से विमल भाई ने सरकार से माँग की है और विभिन्न सरकारी संगठनों को लिखा है कि क्षेत्र के पर्यावरण की रक्षा के लिए इस परियोजना का निर्माण कार्य तुरंत रोक कर परियोजना के बारे में एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए ; विस्थापितों को उपयुक्त मुआवजा और पुनर्वास मिलना चाहिये तथा अब तक किये गये बाँध के काम का विकल्प खोजा जाना चाहिए। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के प्रबंध किये जाने चाहिये।
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