उत्तराखण्ड में अनेक प्रकार के वन मौजूद हैं। यहाँ चीड़, सागौन, देवदार, शीशम, साल, बुरांश, सेमल, बांझ, साइप्रस, फर तथा स्प्रूश आदि वृक्षों से आच्छादित वन क्षेत्र से ईंधन तथा चारे कि अतिरिक्त इमारती तथा फर्नीचर के लिये लकड़ी, लीसा, कागज इत्यादि का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जा सकता है। इसके अलावा वनों में अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ भी मौजूद हैं। जरूरत है इनके संवर्धन की। अगर राज्य सरकार की जड़ी-बूटी की तरफ नीति में संशोधन करे तो राजस्व में अच्छी खासी वृद्धि हो सकती है।
प्रतिनिधि/हल्द्वानी। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से उत्तराखण्ड को धनी राज्य माना जाता है। दिन प्रतिदिन अंधाधुंध कटान व वनों में लगाई जाने वाली आग से वन सम्पदा को काफी क्षति हुई है। वनों के कटान से चारों ओर सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है तथा हरियाली का नामो-निशान मिटता जा रहा है। पानी, पर्यटन, जड़ी-बूटी आदि के मामले में राज्य के पास काफी सम्भावनाएँ विद्यमान तो हैं, किन्तु नीति-नियामकों द्वारा इन सबकी अनदेखी कर ज्वलंत समस्याओं के समाधान हेतु कारगर उपाय नहीं किए गए, जिसके फलस्वरूप लोगों ने देवताओं की शरण लेनी शुरू कर दी है। पर्यावरण की रक्षा के लिये वनों का सुरक्षित रहना नितांत आवश्यक है, वन सुरक्षित हैं तो हम सब सुरक्षित हैं। जिस प्रकार एक-एक सांस को मोहताज मरीज के प्राण ऑक्सीजन सिलेण्डर पर टिके रहते हैं, उसी तरह यह जीवन जंगलों पर टिका है। लेकिन हमारी तेज होती व्यावसायिक सोच और मुनाफे की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना डाला है। हवा-पानी में बदलाव के अलावा विलुप्त होती अनमोल वन सम्पदाएँ, मौसम के बदलते तेवर, हमारे शरीर की घटती कूवत बढ़ती बीमारियाँ, दम तोड़ती संवेदनाएँ तथा संस्कृति व संस्कारों में आ रहा बदलाव इसकी परिणति है। यह हमारी खुशनसीबी है कि तमाम तरह के बदलावों के बावजूद प्रकृति से रिश्ता बनाये रखने वाले हमारे पारम्परिक रीति-रिवाजों के चलते ही प्रदेश में अब तक वनों का वजूद कायम है। खासतौर पर अपने उत्तराखण्ड जैसा प्रकृति की सहजता वाला समाज जहाँ आजीविका का बड़ा हिस्सा आज भी पानी, ईंधन आदि वन उत्पादों के रूप में जुटता है, में प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और रख-रखाव की अनेक परम्परागत विधियाँ अस्तित्व में हैं।
इन्हीं में से एक अनूठी प्रथा वन क्षेत्र देवताओं को अर्पित कर देने की है। वनों के आस-पास बसे देश के विभिन्न भागों और यूरोप के पुराने चरवाहे समाजों में प्रचलित ‘सेक्रेट ग्रूब्स’ (पवित्र कुँज) से मिलती-जुलती यह परम्परा विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से विख्यात है। देव वनों की इस प्रथा में वनों के अत्यधिक दोहन से उपजे संकट के प्रति ग्रामीणों का पश्चाताप और अन्य गाँवों के लोगों से अपने वन क्षेत्र को बचाने की चिन्ता का भाव दृष्टिगोचर होता है, जो वन क्षेत्रों के दोहन की भरपाई होने या कभी-कभी उससे भी लम्बे समय तक जारी रहता है।
देव वनों की इस अनूठी प्रथा में वन क्षेत्र ऐसे लोक देवता को अर्पित किया जाता है, लोकमानस में जिसकी छवि न्यायकारी और अन्याय करने वाले का अनिष्ट कर देने की होती है। कुमाऊँ मण्डल के ज्यादातर क्षेत्रों में ऐसे वन लोकदेवी कोटगाड़ी और लोकदेव गंगानाथ तथा गोलूज्यू को अर्पित किये गये हैं। इन तीनों लोक देवताओं की छवि अन्याय करने वाले को कड़ा दण्ड देने की है। यह बंधन इतना बाध्यकारी है कि कठोर कानून और वन विभाग का भारी लाव-लश्कर भी ग्रामीणों के मन में इतना डर पैदा नहीं कर पाता।
एक बार अर्पित कर दिये जाने के बाद वन क्षेत्र में वह सभी गतिविधियाँ स्वतः बंद होती हैं, जिनका ग्रामीणों ने आपसी सहमति के आधार पर वन अर्पित करते समय निषेध कर दिया हो। जैसे वन क्षेत्रों में कुल्हाड़ी चलाना बंद हो जाए पर पालतू पशुओं की चराई खुली रहे या गिरी-पड़ी लकड़ी उठाने की मनाही न हो, पर वन्य जीवों का शिकार करना वर्जित हो। अनेक स्थानों पर ऐसे वन क्षेत्र में प्रवेश करने तक की मनाही होती है।
देवता को अर्पित कर दिये गए वन क्षेत्र में प्रवेश करने के रास्तों और सीमा पर लाल, हरे, पीले चटक रंगों के कपड़े के झण्डे पेड़ों पर लगा दिये जाते हैं। जो इस बात का प्रतीक है कि अर्पित कर दिये गये वन की सीमा शुरू हो चुकी है। आरक्षित तथा पंचायती वनों की अपेक्षा देव वन क्षेत्र के रख-रखाव में कोई खर्च नहीं होता। देव वन की सुरक्षा के लिये चौकीदार की जरुरत नहीं होती। वन क्षेत्रों में लागू किए गए नियमों का उल्लंघन करने पर देवता के प्रकोप का खौफ ही चौकीदारी का कार्य करता है।
आमतौर पर ऐसा वन क्षेत्र ही लोकदेवता को अर्पित किया जाता है जो अत्यधिक दोहन के कारण रूग्ण हालत में पहुँच चुका हो और ग्रामीणों की आवश्यकताओं का दबाव वहन करने में सक्षम न रह गया हो। जब तक वन क्षेत्र में दोहन की भरपाई नहीं हो जाती तब तक किसी भी वन उत्पाद को लेने की मनाही होती है। पुराना स्वरूप वापस लौटने के बाद वन क्षेत्र को पुनः उपयोग के लिये खोल दिया जाता है।
देवता को अर्पित कर दिये गये वन क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप समाप्त हो जाने के कारण हरियाली और जैव विवधता की भरपाई अत्यन्त तेजी से होती है, लेकिन सम्बन्धित वन क्षेत्र पर निर्भर ग्रामीण आजीविका के वैकल्पिक उपाय चुनने को मजबूर हो जाते हैं। पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट तहसील में चिटगल, फरसिल, चौटियार, मणकनाली, कोठेरा, जाखनी, धौलेत व कनालीछीना का देवथल, जागेश्वर में पुलाई आदि गाँवों में एक के बाद एक अनेक पंचायती व स्थानीय वन पिछले चार-पाँच वर्षों के भीतर लोकदेवताओं को को अर्पित कर दिए गए।
इससे इन क्षेत्रों में तो हरियाली लौट आयी किन्तु ग्रामीणों की परम्परागत आजीविका का स्वरूप छिन्न-भिन्न हो गया। जिनके पास संसाधन हैं वे ईंधन के स्थान पर गैस या स्टोव का प्रयोग कर रहे हैं। पशुपालन के स्थान पर अन्य व्यवसाय अपना चुके हैं या अपनी निजी भूमि पर चाय ईंधन उगा रहे हैं, परन्तु जो साधनहीन हैं, चाय और ईंधन के लिये जिनके पास निजी भूमि नहीं है, उनके कष्टों का कोई निदान नहीं है। वे आरक्षित वन या अन्य गाँवों के पंचायती वनों से चोरी छिपे अपनी जरूरतें पूरी करते हैं। ऐसी स्थिति में अपना वन बचाने के लिये अन्य गाँवों के लोग भी वन क्षेत्र देवता को अर्पित कर देने को विवश हो रहे हैं। गंगोलीहाट क्षेत्र का अनुभव इसी निष्कर्ष कि पुष्टि करता है। मंदिरों के पास स्थित पेड़ों को न काटने की परम्परा देश के प्रत्येक स्थान पर रही है।
शायद ही यही श्रद्धा देव वनों की प्रथा के जन्म का कारण बनी हो, किन्तु इतना निश्चित है कि इस परम्परा में अपने संसाधनों को दीर्घजीवी बनाये रखने की चेतना विद्यमान रही है। उत्तराखण्ड जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समाजों में कभी यह चेतना ग्रामीणों की सामूहिक भागीदारी वाली वन पंचायत व्यवस्था के रुप में तो कभी चमोली जिले के ‘रैणी’ गाँव में अपने जंगल को ठेकेदार के हाथों से बचाने कि लिये महिलाओं की मुहिम ‘चिपको आन्दोलन’ के रूप में अभिव्यक्त हुई है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि वन संसाधनों को चिरस्थायी बनाने के लिये वर्तमान में जो भी प्रयास हो रहे हैं उसमें ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान और संरक्षण की चेतना को स्थान नहीं दिया जाता रहा है। उल्टा ग्रामीणों के सदियों के अनुभव से अर्जित प्रथाओं-परम्पराओं पर सरकारी शिकंजा कसने की कोशिशें की जा रही हैं। नई वन पंचायत नियमावली के अध्यादेश ऐसी ही एक कोशिश है। वहीं विश्व बैंक के कर्जे के से संचालित की गयी संयुक्त वन प्रबंध जैसी भारी-भरकम योजनाएँ आधुनिक प्रबन्धन के नाम पर ग्रामीणों को परम्परागत ज्ञान से विमुख कर रही हैं और प्रकृति से उनके परम्परागत रिश्ते को समाप्त कर रही हैं।
वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि वन संरक्षण हेतु चलाये जाने वाले तमाम कार्यक्रमों में प्रबन्धन से लेकर संचालक तक का जिम्मा स्थानीय वन पंचायतों को सौंपा जाए इससे जहाँ वन संरक्षण की मुहिम में जनसहभागिता बढ़ेगी, वहीं वन संरक्षण की मुहिम अपने अंजाम तक भी पहुँच पाएगी।
विश्व बाजार में आजकल फूलों की अत्यधिक मांग है और उत्तराखण्ड में भी सरकार फूल उद्योग को बढ़ावा देने की बात तो कर रही है लेकिन धरातली क्षेत्र में कार्य संतोषजनक नहीं है। आश्चर्यजनक बात यह है कि क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी होने के बावजूद भी इस व्यवसाय से लोग अभी भी अनजान बने हुए हैं। क्षेत्र में आज के प्रचलन के महँगे फूलों में ग्लाइडोरस, रजनीगंधा, गुलाब, बेला, चमेली, डहेलिया, जरवेरा, आर्किड, गुलदाऊदी, गेंदा आदि का उत्पादन किया जा सकता है। गेंदा पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वथा पाया जाता है।
वनों को आग व अंधाधुंध कटान से बचाने की आवश्यकता है। शासन द्वारा अनेक प्रकार की वन नीतियाँ बनाई तो गई हैं किन्तु उन पर गहराई से विचार नहीं किया जाता है। शासन को वन सम्पदा को ध्यान में रखकर ठोस नीति बनानी होगा। तभी वन सम्पदा को बचाया जा सकता है।
बहरहाल जब तक राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये ठोस नीति नहीं अपनाई जाती, तब तक राज्य में विकास की सम्भावनाएँ नहीं बन पायेंगी।
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