गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए निगमानंद से पहले भी कई बार आंदोलन और अनशन हो चुके हैं लेकिन जब एक संत की आमरण अनशन से मौत होती है तब सरकार का ध्यान उनकी मांग पर जाता है और इसके बाद राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप के अखाड़े में उतर आते हैं। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की लड़ाई लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले संत निगमानंद की मौत पर सियासी रोटियां सेंकने का सिलसिला तेज हो गया है । प्रदेश सरकार द्वारा इस मामले में स्वयं को बचाने के लिए की गई सीबीआई जांच की सिफारिश पर केंद्र सरकार का रुख अब तक साफ नहीं हो सका है । अब तक तो राजनीतिक दल ही इस मामले से सियासी फायदा उठाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब एक साध्वी भी इस मुहिम में जुट गई हैं। हालांकि कुछ लोग इसे प्रायोजित धरना मान रहे हैं जिसमें राज्य सरकार अपनी गर्दन बचाने की कुचेष्टा कर रही है । लेकिन खुद को मातृ सदन की पूर्व शिष्या बताने वाली महिला सत्यवती ने मातृ सदन के परमाध्यक्ष स्वामी शिवानंद पर निगमानंद को अनशन के लिए उकसाने का आरोप लगाया है । पांच दिनों से हरिद्वार में सिटी मजिस्ट्रेट कार्यालय के सामने धरना-प्रदर्शन कर रही सत्यवती का कहना है कि शिवानंद ने ही निगमानंद को अनशन के लिए उकसाया । 1998 से 2003 तक स्वामी शिवानंद की शिष्या रहने का दावा करने वाली सत्यवती निगमानंद की मौत के बाद सामने आई हैं । इससे पहले निगमानंद के 68 दिनों के अनशन और 57 दिनों तक अस्पताल में रहने के दौरान सत्यवती कहीं नहीं दिखीं। अब मातृ सदन के खिलाफ अनिश्चितकालीन धरना शुरू करते हुए सत्यवती ने इस बात की भी सीबीआई जांच करने की मांग की है कि शिवानंद ने निगमानंद को अनशन के लिए उकसाया था या नहीं ।
सत्यवती का आरोप है कि पहले भी शिवानंद कई शिष्यों को अनशन के लिए उकसा चुके हैं । सत्यवती प्रशासन से यह सुनिश्चित करने की मांग कर रही है कि स्वामी शिवानंद भविष्य में किसी को अनशन के लिए न उकसा पाएं । स्वामी निगमानंद की मौत के लिए शिवानंद को जिम्मेदार ठहराने के आरोप को मातृसदन ने सिरे से खारिज कर दिया है । मातृ सदन के स्वामी शिवानंद का कहना है कि स्वामी निगमानंद नाबालिग नहीं थे । किसी के उकसाने पर कोई भी संत इतने लंबे समय तक अनशन पर नहीं बैठता । मातृ सदन को गंगा के लिए समर्पित आश्रम बताते हुए शिवानंद ने कहा कि मातृ सदन के संत गंगा के लिए हमेशा समर्पित रहते हैं । यहां गंगा के लिए अनशन करने की होड़ मचती है । मातृ सदन किसी भी प्रकार की जांच के लिए तैयार है। सत्यवती के आरोपों को पूरी तरह खारिज करते हुए मातृ सदन ने उस पर कानूनी कार्यवाही भी शुरू कर दी है । मातृ सदन ने सत्यवती को अपनी शिष्या मानने से इनकार करते हुए उसे कानूनी नोटिस भेज दिया है। निगमानंद को इनसाफ दिलाने के नाम पर कुंभ मेला शताब्दी द्वार में चल रहा धरना भी पिछले दस दिनों से जारी है । बाकयदा निगमानंद के नाम से गठित संघर्ष समिति की मांग है कि राज्य सरकार को तुरंत बर्खास्त किया जाना चाहिए ।
सियासत का यह सिलसिला निगमानंद की मौत के साथ ही शुरू हो गया था। जिन नेताओं ने मातृ सदन का रास्ता अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था वे भी निगमानंद की मौत के बाद मातृ सदन पहुंचकर अपनी संवेदना प्रकट कर रहे हैं । कांग्रेस ने तो निगमानंद के मुद्दे पर केंद्र से लेकर राज्य तक में भाजपा को घेरकर रखा है । निगमानंद के अनशन की जानकारी शायद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को हुई होगी या नहीं लेकिन उनकी मौत के अगले ही दिन उन्होंने हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में अवैध खनन के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराया । लगे हाथों उन्होंने गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 125 किमी क्षेत्र को ईको सेंसेटिव जोन घोषित करने की कवायद तेज कर दी है । इस सिलसिले में केंद्रीय मंत्री ने राज्य सरकार को रिमाइंडर भेजकर ईको सेंसेटिव जोन पर प्रतिक्रिया मांगी है । निगमानंद की मौत के बाद बैक फुट पर आई राज्य सरकार से फिलहाल इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं बन रहा है । जबकि पर्यावरण के जानकार पहले से ही इसे काला कानून बता रहे हैं जो वनों के आसपास रहने वाले लोगों के जीवन को और भी कठिन बना देगा । क्योंकि सेंसेटिव जोन घोषित हो जाने के बाद इस क्षेत्र में निर्माण और विकास के कोई भी काम बिना सरकारी अनापत्ति के नहीं हो पाएंगे ।
निगमानंद की मौत के बाद राज्य सरकार ने हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है । इससे पहले 22 मई को हाईकोर्ट भी यह आदेश दे चुका है । लेकिन अगर यह समय पर हो जाता तो शायद एक आंदोलनकारी की जान बच जाती । निगमानंद इससे पूर्व भी गंगा के लिए 2007 में 7 दिन, 2008 में 68 दिन का अनशन कर चुके थे। और इस बार जब उन्हें पुलिस ने उठाया तो उनका अनशन 68 दिनों का हो चुका था। निगमानंद की मौत के बाद सियासी दलों से लेकर संत-महंत तक सभी उनके अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे। लेकिन सवाल यह है कि अगर इनमें से कुछेक ने भी आंदोलन के दौरान निगमानंद के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाई होती तो शायद गंगा भी बचती और निगमानंद भी। निगमानंद की मौत के बाद केंद्रीय मंत्री हरीश रावत, भाजपा सांसद मेनका गांधी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य, द्वारका पीठ के स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती, अखाड़ा परिषद के महामंत्री हरिगिरि महाराज सहित अनेक संत महात्मा, अनेक विधायक मातृ सदन पहुंचे। अगर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो 2008 में गंगा की अविरल धारा को लेकर सबसे अधिक आंदोलन हुए। पहले अक्टूबर 2008 में विश्व हिंदू परिषद ने हरकी पौड़ी पर तंबू लगाकार गंगा की अविरलधारा के लिए संघर्ष शुरू किया। इस आंदोलन के प्रवीण तोगड़िया से लेकर आरएसएस के शीर्ष नेता पहुंचे लेकिन आंदोलन किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले ही समाप्त हो गया। इसके बाद बाबा रामदेव के संयोजन में गंगा रक्षा मंच बनाया गया। कुछ दिनों तक हरकी पौड़ी में चक्कर लगाने के बाद बाबा रामदेव ने भी इस आंदोलन से किनारा कर लिया। इसी दौरान स्वामी स्वरूपानंद ने गंगा सेवा अभियान की शुरुआत कर अपने दो चेलों को सुभाष घाट पर अनशन पर बैठा दिया। 38 दिनों का अनशन गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने के आश्वासन के साथ समाप्त हुआ। गंगा की लड़ाई के बहाने सुर्खियां बटोरने के लिए समय-समय पर अनेक अभियान एवं आंदोलन खड़े होते रहते हैं। लेकिन किसी भी आंदोलन ने आज तक गंगा में खनन और अतिक्रमण जैसे बुनियादी मुद्दे को नहीं उठाया। यहां तक कि ऋषिकेश और हरिद्वार आश्रमों से सीधे गंगा में गिरने वाले मैले को लेकर भी संतों के आंदोलन मौन रहे हैं। निगमानंद की लड़ाई कुंभ क्षेत्र को खनन से मुक्त करने, खनन से नष्ट हो रहे गंगा के सुंदर द्वीपों का संरक्षण किए जाने, गंगा में बढ़ रहा प्रदूषण कम करने और कुंभ क्षेत्र में लगे स्टोन क्रशरों को हटाने की मांग को लेकर था। इनमें से कोई भी मांग ऐसी नहीं थी जिसका समर्थन सच्चा गंगा भक्त नहीं करेगा। सरकार ने जहां हरिद्वार में लगे 40 क्रशरों को फिलहाल बंद कर दिया है। सरकार ने निगमानंद की मौत के दूसरे दिन पहले सीबीसीआईडी जांच की सिफारिश की फिर तीसरे दिन सीबीआई जांच की सिफारिश कर अपना दामन बचाने का काम किया। कांग्रेस नेता तो सरकार पर इस कदर हावी हैं कि नेता प्रतिपक्ष डॉ. हरक सिंह रावत तो निगमानंद के मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए एक दिन का उपवास भी रख चुके हैं।
राज्य सरकार ने इस मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश तो कर दी है लेकिन न तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से और न सीबीआई की ओर से इस मामले की जांच शुरू करने के कोई संकेत फिलहाल मिल पाए हैं। जबकि केंद्रीय राज्यमंत्री एवं स्थानीय सांसद हरीश रावत ने इस मुद्दे पर राज्य सरकार पर जनता को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए कहा है कि सीबीआई जांच के लिए पहले मामला दर्ज कराना जरूरी होता है जो राज्य सरकार ने नहीं कराया है। रावत ने सरकार द्वारा क्रशरों पर रोक लगाने के कदम को भी दिखावा करार दिया। प्रदेश मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष डॉ. देवेंद्र भसीन ने कांग्रेस के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि केंद्र की नाकामियां छिपाने के लिए कांग्रेस ऐसे बयान दे रही है। जबकि सरकार ने निगमानंद के आंदोलन समाप्त करने की कई बार कोशिश भी की थी।
सत्यवती का आरोप है कि पहले भी शिवानंद कई शिष्यों को अनशन के लिए उकसा चुके हैं । सत्यवती प्रशासन से यह सुनिश्चित करने की मांग कर रही है कि स्वामी शिवानंद भविष्य में किसी को अनशन के लिए न उकसा पाएं । स्वामी निगमानंद की मौत के लिए शिवानंद को जिम्मेदार ठहराने के आरोप को मातृसदन ने सिरे से खारिज कर दिया है । मातृ सदन के स्वामी शिवानंद का कहना है कि स्वामी निगमानंद नाबालिग नहीं थे । किसी के उकसाने पर कोई भी संत इतने लंबे समय तक अनशन पर नहीं बैठता । मातृ सदन को गंगा के लिए समर्पित आश्रम बताते हुए शिवानंद ने कहा कि मातृ सदन के संत गंगा के लिए हमेशा समर्पित रहते हैं । यहां गंगा के लिए अनशन करने की होड़ मचती है । मातृ सदन किसी भी प्रकार की जांच के लिए तैयार है। सत्यवती के आरोपों को पूरी तरह खारिज करते हुए मातृ सदन ने उस पर कानूनी कार्यवाही भी शुरू कर दी है । मातृ सदन ने सत्यवती को अपनी शिष्या मानने से इनकार करते हुए उसे कानूनी नोटिस भेज दिया है। निगमानंद को इनसाफ दिलाने के नाम पर कुंभ मेला शताब्दी द्वार में चल रहा धरना भी पिछले दस दिनों से जारी है । बाकयदा निगमानंद के नाम से गठित संघर्ष समिति की मांग है कि राज्य सरकार को तुरंत बर्खास्त किया जाना चाहिए ।
सियासत का यह सिलसिला निगमानंद की मौत के साथ ही शुरू हो गया था। जिन नेताओं ने मातृ सदन का रास्ता अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था वे भी निगमानंद की मौत के बाद मातृ सदन पहुंचकर अपनी संवेदना प्रकट कर रहे हैं । कांग्रेस ने तो निगमानंद के मुद्दे पर केंद्र से लेकर राज्य तक में भाजपा को घेरकर रखा है । निगमानंद के अनशन की जानकारी शायद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को हुई होगी या नहीं लेकिन उनकी मौत के अगले ही दिन उन्होंने हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में अवैध खनन के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराया । लगे हाथों उन्होंने गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 125 किमी क्षेत्र को ईको सेंसेटिव जोन घोषित करने की कवायद तेज कर दी है । इस सिलसिले में केंद्रीय मंत्री ने राज्य सरकार को रिमाइंडर भेजकर ईको सेंसेटिव जोन पर प्रतिक्रिया मांगी है । निगमानंद की मौत के बाद बैक फुट पर आई राज्य सरकार से फिलहाल इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं बन रहा है । जबकि पर्यावरण के जानकार पहले से ही इसे काला कानून बता रहे हैं जो वनों के आसपास रहने वाले लोगों के जीवन को और भी कठिन बना देगा । क्योंकि सेंसेटिव जोन घोषित हो जाने के बाद इस क्षेत्र में निर्माण और विकास के कोई भी काम बिना सरकारी अनापत्ति के नहीं हो पाएंगे ।
निगमानंद की मौत के बाद राज्य सरकार ने हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है । इससे पहले 22 मई को हाईकोर्ट भी यह आदेश दे चुका है । लेकिन अगर यह समय पर हो जाता तो शायद एक आंदोलनकारी की जान बच जाती । निगमानंद इससे पूर्व भी गंगा के लिए 2007 में 7 दिन, 2008 में 68 दिन का अनशन कर चुके थे। और इस बार जब उन्हें पुलिस ने उठाया तो उनका अनशन 68 दिनों का हो चुका था। निगमानंद की मौत के बाद सियासी दलों से लेकर संत-महंत तक सभी उनके अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे। लेकिन सवाल यह है कि अगर इनमें से कुछेक ने भी आंदोलन के दौरान निगमानंद के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाई होती तो शायद गंगा भी बचती और निगमानंद भी। निगमानंद की मौत के बाद केंद्रीय मंत्री हरीश रावत, भाजपा सांसद मेनका गांधी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य, द्वारका पीठ के स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती, अखाड़ा परिषद के महामंत्री हरिगिरि महाराज सहित अनेक संत महात्मा, अनेक विधायक मातृ सदन पहुंचे। अगर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो 2008 में गंगा की अविरल धारा को लेकर सबसे अधिक आंदोलन हुए। पहले अक्टूबर 2008 में विश्व हिंदू परिषद ने हरकी पौड़ी पर तंबू लगाकार गंगा की अविरलधारा के लिए संघर्ष शुरू किया। इस आंदोलन के प्रवीण तोगड़िया से लेकर आरएसएस के शीर्ष नेता पहुंचे लेकिन आंदोलन किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले ही समाप्त हो गया। इसके बाद बाबा रामदेव के संयोजन में गंगा रक्षा मंच बनाया गया। कुछ दिनों तक हरकी पौड़ी में चक्कर लगाने के बाद बाबा रामदेव ने भी इस आंदोलन से किनारा कर लिया। इसी दौरान स्वामी स्वरूपानंद ने गंगा सेवा अभियान की शुरुआत कर अपने दो चेलों को सुभाष घाट पर अनशन पर बैठा दिया। 38 दिनों का अनशन गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने के आश्वासन के साथ समाप्त हुआ। गंगा की लड़ाई के बहाने सुर्खियां बटोरने के लिए समय-समय पर अनेक अभियान एवं आंदोलन खड़े होते रहते हैं। लेकिन किसी भी आंदोलन ने आज तक गंगा में खनन और अतिक्रमण जैसे बुनियादी मुद्दे को नहीं उठाया। यहां तक कि ऋषिकेश और हरिद्वार आश्रमों से सीधे गंगा में गिरने वाले मैले को लेकर भी संतों के आंदोलन मौन रहे हैं। निगमानंद की लड़ाई कुंभ क्षेत्र को खनन से मुक्त करने, खनन से नष्ट हो रहे गंगा के सुंदर द्वीपों का संरक्षण किए जाने, गंगा में बढ़ रहा प्रदूषण कम करने और कुंभ क्षेत्र में लगे स्टोन क्रशरों को हटाने की मांग को लेकर था। इनमें से कोई भी मांग ऐसी नहीं थी जिसका समर्थन सच्चा गंगा भक्त नहीं करेगा। सरकार ने जहां हरिद्वार में लगे 40 क्रशरों को फिलहाल बंद कर दिया है। सरकार ने निगमानंद की मौत के दूसरे दिन पहले सीबीसीआईडी जांच की सिफारिश की फिर तीसरे दिन सीबीआई जांच की सिफारिश कर अपना दामन बचाने का काम किया। कांग्रेस नेता तो सरकार पर इस कदर हावी हैं कि नेता प्रतिपक्ष डॉ. हरक सिंह रावत तो निगमानंद के मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए एक दिन का उपवास भी रख चुके हैं।
राज्य सरकार ने इस मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश तो कर दी है लेकिन न तो केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से और न सीबीआई की ओर से इस मामले की जांच शुरू करने के कोई संकेत फिलहाल मिल पाए हैं। जबकि केंद्रीय राज्यमंत्री एवं स्थानीय सांसद हरीश रावत ने इस मुद्दे पर राज्य सरकार पर जनता को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए कहा है कि सीबीआई जांच के लिए पहले मामला दर्ज कराना जरूरी होता है जो राज्य सरकार ने नहीं कराया है। रावत ने सरकार द्वारा क्रशरों पर रोक लगाने के कदम को भी दिखावा करार दिया। प्रदेश मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष डॉ. देवेंद्र भसीन ने कांग्रेस के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि केंद्र की नाकामियां छिपाने के लिए कांग्रेस ऐसे बयान दे रही है। जबकि सरकार ने निगमानंद के आंदोलन समाप्त करने की कई बार कोशिश भी की थी।
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