संकट में पहाड़ियां

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मशहूर नगरी नैनीताल की कई पहाड़ियां भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की चेतावनी के बावजूद सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है। इस बारे में बता रहे हैं प्रयाग पांडे।

बेतरतीब बसाहटनैनीताल की कमजोर पहाड़ियों, तालाबों और नालातंत्र की देखरेख के लिए पचासी साल पहले बनी हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति सरकारी उपेक्षा की वजह से अपनी अहमियत गवां चुकी है। जबकि, जिस समस्या के निवारण के लिए इसका गठन हुआ था, वह और बढ़ गई है।

ऐसे में इस समिति की उपयोगिता और बढ़ गई है। फिर भी उसे नजरअंदाज कर दिया गया। आज स्थिति यह है कि नैनीताल की पहाड़ियां खतरे की जद में हैं। राज्य सरकार और जिला प्रशासन इस मामले पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

आज विश्वविख्यात इस पर्यटन नगरी का वजूद खतरे में हैं। नैनीताल भूगर्भीय नजरिए से बेहद कमजोर मानी जाने वाली पहाड़ियों पर बसा है। यह नगर बसने के बाद से अब तक कई भूस्खलनों का शिकार रहा है। 1867 में शेर का डांडा नाम की पहाड़ी में भूस्खलन हुआ था, जिससे ब्रिटिश सरकार को पहाड़ियों की कमजोरी का पता चला।

1873 में अभियंताओं की समिति बनी। समिति ने पहाड़ियों की हिफाजत और तालाबों-नालों के लिए सुरक्षा दीवारें बनाने का सुझाव दिया था।

नैनीताल की बसाहट के चालीस साल बाद अठारह सितंबर, 1880 को जबरदस्त भूस्खलन हुआ। इसमें एक सौ एक्यावन लोग मारे गए। सत्रह अगस्त, 1898 को नैनीताल की जड़ से लगे बलिया नाले में भूस्खलन हुआ। इसमें सत्ताईस लोग मारे गए। जांच के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने एक समिति बनाई थी।

ब्रिटिश सरकार ने यहां की पहाड़ियों और तालाब की सुरक्षा के लिहाज से नैनीताल में एक नायाब नालातंत्र विकसित किया। इसे रखरखाव के लिहाज से बड़ा नाला पद्धति, अयारपाटा नाला पद्धति शेर का डांडा नाला पद्धति और तालाब के बाहर गिरने वाला नाला पद्धति नाम से चार हिस्सों में बांटा गया।

1880 से 1928 के बीच यहां छप्पन बड़े और दो सौ उनतीस छोटे-छोटे नाले बनवाए। ये नाले करीब तिरपन किलोमीटर लंबे थे। नालों की ऊंचाई, चौड़ाई और गहराई का भी ब्योरा रखा गया। कौन नाला किस जगह से बना और किस अभियंता ने बनवाया, इसका भी पूरा-पूरा ब्योरा रखा जाता था। शेर का डांडा नाला पद्धति के तहत 1880 से 1928 के बीच बाईस बड़े और एक सौ ग्यारह छोटे नाले बने।

नैनीताल झीलबड़ा नाला पद्धति में 1880 से 1900 के बीच ग्यारह बड़े और इकहत्तर छोटे नाले बनाए गए। अयारपाटा नाला पद्धति में 1899 से 1904 के बीच नौ बड़े और पांच छोटे नाले बनाए गए। जबकि तालाब से बाहर गिरने वाले चार छोटे और चौदह बड़े नाले बने। इन नालों का निर्माण 1900 से 1924 के बीच हुआ। 1903 से 1908 के बीच शहर में दस बड़े और ग्यारह छोटे नाले और बनाए गए।

छह सितंबर, 1927 को नैनीताल के नाला तंत्र, पहाड़ियों और तालाब की हिफाजत की मंशा से हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति बनाई गई। समिति ने नैनीताल की बसाहट के बाद यहां हुए भूगर्भीय हलचलों और इस बारे में पहले बनी तमाम विशेषज्ञ समतियों की जांच रपटों और सालाना रपटों के आधार पर यहां की झील और पहाड़ियों का व्यापक सर्वे किया।

अट्ठाइस अगस्त, 1930 को समिति के सचिव डब्ल्यूएफ वार्नेस ने तालाब, पहाड़ियों और नालों के रखरखाव के लिए आधा दर्जन से ज्यादा स्थायी आदेश जारी किए। इसमें वर्षा का सालाना औसत का रजिस्टर, तालाब के रखरखाव, पहाड़ियों की सुरक्षा कार्यों का दस्तावेज और रजिस्टर वगैरह रखना शामिल था।

हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति की बैठकों में तालाबों, नाले, पहाड़ियों, सड़क, पीने के पानी, पेड़ और पर्यावरण समेत शहर से जुड़े अहम मसलों पर विचार हुआ। प्रस्ताव बने, पास हुए, पर अमल नहीं हुआ। समिति अपनी ही संस्तुतियों को लागू नहीं करा पाई, जबकि उसे तालाबों और पहाड़ियों की हिफाजत के बारे में उच्च स्तरीय दर्जा हासिल है। सुरक्षा के उपाय सुझाने और उन पर अमल कराने की जिम्मेदारी इसी समिति की है। यहां किसी भी किस्म के निर्माण से पहले विशेषज्ञ समिति से अनापत्ति लेना जरूरी है। शहर के नालों, सड़कों, निर्माण के लिए पाबंदी वाले इलाकों, भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों की हिफाजत और निरीक्षणों के लिए नियमित मुआयनों की जिम्मेदारियां तय की गई।

1949 में कुमाऊं और उत्तराखंड के मंडलायुक्त की हैसियत से बीआर बोरा ने हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति के मामलों में दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने छह अप्रैल, 1949 को प्रदेश सरकार को पत्र भेजकर इस समिति में और महकमों को भी सदस्य बनाए जाने की सिफारिश की। इसके बाद इस उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति को तकरीबन भुला सा दिया गया। 1976 में सूर समिति बनी।

इस समिति ने यहां के बारे में अनेक अहम सुझाव दिए थे। लेकिन, उन पर अमल नहीं हुआ। हां, इस समिति के आने के बाद हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति ने भी कागजी खानापूर्ति का काम शुरू कर दिया। इसके बाद समिति ने 1976 से 1984 तक नौ साल लगातार सालाना बैठकें कीं।

बैठकों में खूब प्रस्ताव पास किए, पर अमल एक पर भी नहीं किया। 1987 में नैनापीक में भूस्खलन के बाद समिति फिर सक्रिय हो गई। समिति की साल में एक दफा बैठक होने लगी, पर उनमें तय मुद्दों पर अमल करना तो दूर, समिति खुद के पास प्रस्तावों के उलट काम करती रही।

हिल साइट सेफ्टी एवं झील विशेषज्ञ समिति की बैठकों में तालाबों, नाले, पहाड़ियों, सड़क, पीने के पानी, पेड़ और पर्यावरण समेत शहर से जुड़े अहम मसलों पर विचार हुआ। प्रस्ताव बने, पास हुए, पर अमल नहीं हुआ। समिति अपनी ही संस्तुतियों को लागू नहीं करा पाई, जबकि उसे तालाबों और पहाड़ियों की हिफाजत के बारे में उच्च स्तरीय दर्जा हासिल है।

सुरक्षा के उपाय सुझाने और उन पर अमल कराने की जिम्मेदारी इसी समिति की है। यहां किसी भी किस्म के निर्माण से पहले विशेषज्ञ समिति से अनापत्ति लेना जरूरी है। कुमाऊं के मंडलायुक्त इस समिति के पदेन अध्यक्ष होते हैं।

लेकिन, हाल के वर्षों में इस समिति ने अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कोताही ही नहीं बरती बल्कि नैनीताल की हिफाजत के लिए बनाए गए कायदों को खुद ही तोड़ा भी। शेर का डांडा पहाड़ी में 1880 में भूस्खलन के बाद राजभवन को हटाना पड़ा था।

1880 के भूस्खलन का दृश्यइस पहाड़ी की निर्माण के लिए निषिद्ध घोषित किए जाने के बावजूद समिति ने उसी पहाड़ी पर रोप-वे के भारी-भरकम निर्माण की अनुमति दे दी। सियासी दबाव की वजह से कई इलाकों को सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। शहर की नाड़ी कहे जाने वाले नालों की देखभाल खत्म हो गई। समिति के लिए ये नाले महज आमदनी का जरिया बन गए।

नतीजतन, शहर के दर्जनों नालों के ऊपर मकान और दूसरे निर्माण शुरू हो गए। शहर के ज्यादातर नाले देखरेख, मरम्मत और रखरखाव के बिना अपना वजूद ही गवां बैठे हैं। शहर के अस्तित्व से जुड़े- सवालों के मामले में समिति ने खुद को अप्रांसगिक ही नहीं बना दिया है, बल्कि नैनीताल के भविष्य से जुड़े मसलों को भी हाशिए पर धकेल दिया है।

एक दशक पहले तक समिति सरकार से पहाड़ियों और तालाबों के रखरखाव के लिए कुछ रकम हासिल कर लेती थी, लेकिन अब तो वह भी बंद हो गया है। ऐसे में, एक बार शहर का अस्तित्व फिर से दांव पर लग गया है।

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Post By: Shivendra
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