मणिपुर की लोकटक झील अपनी कुदरती सुंदरता, विशालता और जैव विविधता के लिए मशहूर है। लेकिन कुछ सालों से यह झील संकट में है। इसकी वजहों की पड़ताल कर रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।
लोकटक झील के ऊपर स्थानीय लोगों को निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन रेखा भी कहा जाता है और इसके पर्यावरणीय संकट का असर आबादी के बड़े हिस्से पर पड़ रहा है। विडंबना है कि समाज इसे अपने तरीके से बचाना चाहता है, जबकि सरकार अपने कायदे-कानूनों के मुताबिक। टकराव इस हद तक है कि सरकारी कानून जन विरोधी लगते हैं जबकि सरकार को सदियों पुरानी इस झील में जन-हस्तक्षेप पर्यावरण विरोधी। लोकटक झील एक तो अपना रकबा खो रही है, गहराई भी कम हो रही है और साथ में इसके पानी की गुणवत्ता भी कम हो रही है।भारत की ‘सात बहन’ के नाम से मशहूर उत्तर-पूर्वी राज्यों का रमणीक स्थल मणिपुर का नाम ‘मणि’ पड़ने का अगर कोई सबसे सशक्त कारण नजर आता है तो वह है यहां कि लोकटक झील। करीब 770 मीटर ऊंचाई पर स्थित इस झील का क्षेत्रफल 26 हजार हेक्टेयर हुआ करता था। मणिपुर घाटी के दक्षिण में स्थित यह झील पूर्वी भारत की सबसे विशाल प्राकृतिक जल निधि है। यह झील और इसके चारों तरफ का आर्द्र क्षेत्र (वेटलैंड, जिसे स्थानीय भाषा में पैट कहते हैं) इंफाल नदी के बाढ़ मैदान का अभिन्न हिस्सा है। इंफाल नदी, घाटी के पूर्वी हिस्से को घेरे हुए है और घाटी से जल निकास का एकमात्र रास्ता भी यही है जो आगे चलकर म्यांमार में चिंदवीन नदी में भी पानी गिराता है। समुद्री तल से औसतन दो से तीन हजार मीटर तक ऊंची पहाड़ियों से घिरी हुई अंडाकार मणिपुर घाटी और इंफाल नदी और इसकी छोटी-छोटी सरिताएं गाद सहित अपना सारा जल लोकटक में उड़ेल देते हैं।
मणिपुर राज्य में मोईरांग के पास तैरते द्वीपों वाली मीठे पानी की सबसे विशाल झील है-लोकटक। मोईरांग वही जगह है जहां 14 अप्रैल 1944 को नेताजी सुभाषचंद बोस आजाद हिंद फौज के कमांडर शौकत हयात मलिक ने मुल्क में सबसे पहली बार तिरंगा फहराया था। मणिपुर नदी-घाटी प्रणाली में नदियों के दो समूह शामिल हैं। इरील, इंफाल, थाऊबल, खुगा और चकपी नाम की नदियां खुरडोक, खरडाक और डंग मलेन नामक नालों से मिलती हैं और इस तरह इनका समावेश लोकटक झील में होता है। जबकि दूसरी प्रणाली की तीन सरिताएं-नांबोल, नांबूल और थ्रांजारोल सीधे इस झील में आ मिलती हैं।
दुनिया का एकमात्र तैरता जंगल भी यहीं है। इसकी जैविक विविधता, इसमें तैरते द्वीपों की सुंदरता और इसकी नैसर्गिक उत्पत्ति के कारण ही इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का माना गया है। बीते कुछ सालों में इस पर ऐसे संकट के बादल छाए अब इसे विपदाग्रस्त आर्द्रक्षेत्र माना जा रहा है।
मणिपुर की राजधानी इंफाल से बीस किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में विष्णुपुर जिले में यह झील अभी कुछ साल पहले तक 223,000 हेक्टेयर में फैली थी जो सिकुड़कर 26 हजार हेक्टेयर में आ गई। इस झील में 12 द्वीप है, जिनमें से चार पर आबादी है। इसके किनारे पर पांच शहर और चौवन गांव हैं। झील की खासियत है इसमें तैरते हुए 600 से अधिक मकान। यहां देशज, दुर्लभ और संकटापन्न संगाई हिरणों का डेरा है। यहां 62 कुल की 212 वनस्पतियां पैदा होती हैं। इनमें से कई पानी में तैरते वाले पौधों की प्रजातियां हैं।
इस झील के ऊपर स्थानीय लोगों को निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन रेखा भी कहा जाता है और इसके पर्यावरणीय संकट का असर आबादी के बड़े हिस्से पर पड़ रहा है। विडंबना है कि समाज इसे अपने तरीके से बचाना चाहता है, जबकि सरकार अपने कायदे-कानूनों के मुताबिक। टकराव इस हद तक है कि सरकारी कानून जन विरोधी लगते हैं जबकि सरकार को सदियों पुरानी इस झील में जन-हस्तक्षेप पर्यावरण विरोधी। लोकटक झील एक तो अपना रकबा खो रही है, गहराई भी कम हो रही है और साथ में इसके पानी की गुणवत्ता भी कम हो रही है।
लोकटक झील के नैसर्गिक जल-प्रबंधन के प्रमुख हिस्से पर बना इथाई बांध अब इलाके की आर्थिक-सामाजिक और पर्यावरणीय हालत पर बड़ा संकट बन चुका है। इसके कारण कोई 83,450 हेक्टेयर बेहद उर्वरा जमीन डूब गई। इसमें से लगभग बीस हजार हेक्टेयर जमीन का इस्तेमाल साल में दो फसल लेने के लिए पहले ही होता था। बांध के कारण उनके आवागमन का प्राकृतिक रास्ता बंद हो गया। इतना सब कुछ खोने के बाद भी मणिपुर वालों को न खुदा ही मिला न विसाले सनम।
लोकटक पर आबादी बढ़ने की शुरुआत बिजली घर परियोजना के समय हो गई थी। जब बांध के लिए लोगों को उनके पुश्तैनी गांव-घरों से भगाया गया तो उन्हें लोकटक पर तैरते घरों का विकल्प ही मुफीद लगा।
लोकटक जल ग्रहण क्षेत्र में बेतहाशा जंगल कटाई और उसके कारण हो रहे मिट्टी के क्षरण ने झील को उथला बना दिया है। सरकार की लाख पाबंदी के बावजूद लोकटक को घेरने वाली पहाड़ियों पर सीढ़ियां बना कर खेती यानी झूम खेती पर रोक नहीं लग पा रही है इसके कारण झील को खतरा बढ़ गया है। लोकटक का नेशनल पार्क दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ पार्क है। यहां पर दुर्लभ प्रजाति का हिरण संगाई पाया जाता है। इसी के संरक्षण के लिए 1997 में यहां संबंधित वन क्षेत्र घोषित किया गया था। यह लगभग पूरा पार्क पानी की सतह के नीचे डूबा हुआ है। किसी समय विएतनाम से लेकर मणिपुर तक संगाई हिरण पाए जाते थे, लेकिन बेतहाशा शिकार के चलते अब ये दुनियाभर में बमुश्किल सौ बचे हैं और उनमें से अधिकांश लोकटक की गोद में ही हैं। इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लुप्तप्राय जीव का दर्जा मिला है।
संगाई सांभर हिरण से कुछ छोटा होता है। नर संगाई का रंग कुछ कालापन लिए हुए गहरा भूरा या बादामी होता है। इसकी खूबी है कि यह मौसम के मुताबिक रंग बदलता है। तैरते जंगल पर बढ़ती आबादी, वहां घटती वनस्पति और पानी के बढ़ते प्रदूषण के कारण संगाई हिरणों की बची खुची संख्या के लिए भी संकट पैदा हो गया है। उग्रवादियों से निपटने के लिए लोकटक में तैनात किए गए तीन हॉवरक्राफ्ट हिरणों और यहां रहने वाले पक्षियों को उजड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हॉवरक्राफ्ट ऐसे वाहन होते हैं जो जमीन के साथ-साथ पानी पर भी तेजी से चलते हैं। इनके चलने से पैदा होने वाली तेज आवाज और तरंगों के कारण यहां के वन्य जीवन में व्यवधान पैदा कर दिया है।
झील को बचाने के लिए सरकारी स्तर और जनता के स्तर पर गतिविधि चल रही है, लेकिन व्यवहार में दोनों तरीके एक दूसरे के विपरीत दिख रहे हैं। सरकारी संरक्षण वाले दल का कहना है कि अंधाधुंध मछली मारने, बेपरवाही से सब्जी उगाने से जलनिधि की नैसर्गिकता प्रभावित हुई है, जबकि आम जनता इसे सही नहीं मानती। आम लोगों का कहना है कि 1979 में पनबिजली परियोजना के तहत बनाए गए इथाई बैराज के कारण ही लोकटक को खतरा पैदा हुआ है।
विडंबना यह है कि झील संरक्षण के संकल्प के साथ अभियान चला रहे कई समूह आपस में कोई संवाद नहीं करते हैं और एक दूसरे को दुश्मन की तरह देखते हैं। परिणाम सामने है-सरकार लोगों को उजाड़ती है तो आम लोग हताश हो कर केवल आरोप लगाने तक सीमित हो जाते हैं। मणिपुर विश्वविद्यालय को झील संरक्षण के लिए शोध, वैज्ञानिक परिक्षणों, प्रबंधन योजनाओं, निरीक्षण वगैरह के लिए नोडल एजेंसी बनाया गया है। दुर्भाग्य है कि नोडल एजेंसी में लोग विज्ञान और पर्यावरण के तो माहिर हैं लेकिन स्थानीय नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने में असफल रहे हैं। कोई भी विकास आम लोगों की भागीदारी के बगैर सार्थक नहीं होता और यही लोकटक की त्रासदी है।
लोकटक झील के ऊपर स्थानीय लोगों को निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन रेखा भी कहा जाता है और इसके पर्यावरणीय संकट का असर आबादी के बड़े हिस्से पर पड़ रहा है। विडंबना है कि समाज इसे अपने तरीके से बचाना चाहता है, जबकि सरकार अपने कायदे-कानूनों के मुताबिक। टकराव इस हद तक है कि सरकारी कानून जन विरोधी लगते हैं जबकि सरकार को सदियों पुरानी इस झील में जन-हस्तक्षेप पर्यावरण विरोधी। लोकटक झील एक तो अपना रकबा खो रही है, गहराई भी कम हो रही है और साथ में इसके पानी की गुणवत्ता भी कम हो रही है।भारत की ‘सात बहन’ के नाम से मशहूर उत्तर-पूर्वी राज्यों का रमणीक स्थल मणिपुर का नाम ‘मणि’ पड़ने का अगर कोई सबसे सशक्त कारण नजर आता है तो वह है यहां कि लोकटक झील। करीब 770 मीटर ऊंचाई पर स्थित इस झील का क्षेत्रफल 26 हजार हेक्टेयर हुआ करता था। मणिपुर घाटी के दक्षिण में स्थित यह झील पूर्वी भारत की सबसे विशाल प्राकृतिक जल निधि है। यह झील और इसके चारों तरफ का आर्द्र क्षेत्र (वेटलैंड, जिसे स्थानीय भाषा में पैट कहते हैं) इंफाल नदी के बाढ़ मैदान का अभिन्न हिस्सा है। इंफाल नदी, घाटी के पूर्वी हिस्से को घेरे हुए है और घाटी से जल निकास का एकमात्र रास्ता भी यही है जो आगे चलकर म्यांमार में चिंदवीन नदी में भी पानी गिराता है। समुद्री तल से औसतन दो से तीन हजार मीटर तक ऊंची पहाड़ियों से घिरी हुई अंडाकार मणिपुर घाटी और इंफाल नदी और इसकी छोटी-छोटी सरिताएं गाद सहित अपना सारा जल लोकटक में उड़ेल देते हैं।
मणिपुर राज्य में मोईरांग के पास तैरते द्वीपों वाली मीठे पानी की सबसे विशाल झील है-लोकटक। मोईरांग वही जगह है जहां 14 अप्रैल 1944 को नेताजी सुभाषचंद बोस आजाद हिंद फौज के कमांडर शौकत हयात मलिक ने मुल्क में सबसे पहली बार तिरंगा फहराया था। मणिपुर नदी-घाटी प्रणाली में नदियों के दो समूह शामिल हैं। इरील, इंफाल, थाऊबल, खुगा और चकपी नाम की नदियां खुरडोक, खरडाक और डंग मलेन नामक नालों से मिलती हैं और इस तरह इनका समावेश लोकटक झील में होता है। जबकि दूसरी प्रणाली की तीन सरिताएं-नांबोल, नांबूल और थ्रांजारोल सीधे इस झील में आ मिलती हैं।
दुनिया का एकमात्र तैरता जंगल भी यहीं है। इसकी जैविक विविधता, इसमें तैरते द्वीपों की सुंदरता और इसकी नैसर्गिक उत्पत्ति के कारण ही इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का माना गया है। बीते कुछ सालों में इस पर ऐसे संकट के बादल छाए अब इसे विपदाग्रस्त आर्द्रक्षेत्र माना जा रहा है।
मणिपुर की राजधानी इंफाल से बीस किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में विष्णुपुर जिले में यह झील अभी कुछ साल पहले तक 223,000 हेक्टेयर में फैली थी जो सिकुड़कर 26 हजार हेक्टेयर में आ गई। इस झील में 12 द्वीप है, जिनमें से चार पर आबादी है। इसके किनारे पर पांच शहर और चौवन गांव हैं। झील की खासियत है इसमें तैरते हुए 600 से अधिक मकान। यहां देशज, दुर्लभ और संकटापन्न संगाई हिरणों का डेरा है। यहां 62 कुल की 212 वनस्पतियां पैदा होती हैं। इनमें से कई पानी में तैरते वाले पौधों की प्रजातियां हैं।
इस झील के ऊपर स्थानीय लोगों को निर्भरता के कारण इसे मणिपुर की जीवन रेखा भी कहा जाता है और इसके पर्यावरणीय संकट का असर आबादी के बड़े हिस्से पर पड़ रहा है। विडंबना है कि समाज इसे अपने तरीके से बचाना चाहता है, जबकि सरकार अपने कायदे-कानूनों के मुताबिक। टकराव इस हद तक है कि सरकारी कानून जन विरोधी लगते हैं जबकि सरकार को सदियों पुरानी इस झील में जन-हस्तक्षेप पर्यावरण विरोधी। लोकटक झील एक तो अपना रकबा खो रही है, गहराई भी कम हो रही है और साथ में इसके पानी की गुणवत्ता भी कम हो रही है।
लोकटक झील के नैसर्गिक जल-प्रबंधन के प्रमुख हिस्से पर बना इथाई बांध अब इलाके की आर्थिक-सामाजिक और पर्यावरणीय हालत पर बड़ा संकट बन चुका है। इसके कारण कोई 83,450 हेक्टेयर बेहद उर्वरा जमीन डूब गई। इसमें से लगभग बीस हजार हेक्टेयर जमीन का इस्तेमाल साल में दो फसल लेने के लिए पहले ही होता था। बांध के कारण उनके आवागमन का प्राकृतिक रास्ता बंद हो गया। इतना सब कुछ खोने के बाद भी मणिपुर वालों को न खुदा ही मिला न विसाले सनम।
लोकटक पर आबादी बढ़ने की शुरुआत बिजली घर परियोजना के समय हो गई थी। जब बांध के लिए लोगों को उनके पुश्तैनी गांव-घरों से भगाया गया तो उन्हें लोकटक पर तैरते घरों का विकल्प ही मुफीद लगा।
लोकटक जल ग्रहण क्षेत्र में बेतहाशा जंगल कटाई और उसके कारण हो रहे मिट्टी के क्षरण ने झील को उथला बना दिया है। सरकार की लाख पाबंदी के बावजूद लोकटक को घेरने वाली पहाड़ियों पर सीढ़ियां बना कर खेती यानी झूम खेती पर रोक नहीं लग पा रही है इसके कारण झील को खतरा बढ़ गया है। लोकटक का नेशनल पार्क दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ पार्क है। यहां पर दुर्लभ प्रजाति का हिरण संगाई पाया जाता है। इसी के संरक्षण के लिए 1997 में यहां संबंधित वन क्षेत्र घोषित किया गया था। यह लगभग पूरा पार्क पानी की सतह के नीचे डूबा हुआ है। किसी समय विएतनाम से लेकर मणिपुर तक संगाई हिरण पाए जाते थे, लेकिन बेतहाशा शिकार के चलते अब ये दुनियाभर में बमुश्किल सौ बचे हैं और उनमें से अधिकांश लोकटक की गोद में ही हैं। इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लुप्तप्राय जीव का दर्जा मिला है।
संगाई सांभर हिरण से कुछ छोटा होता है। नर संगाई का रंग कुछ कालापन लिए हुए गहरा भूरा या बादामी होता है। इसकी खूबी है कि यह मौसम के मुताबिक रंग बदलता है। तैरते जंगल पर बढ़ती आबादी, वहां घटती वनस्पति और पानी के बढ़ते प्रदूषण के कारण संगाई हिरणों की बची खुची संख्या के लिए भी संकट पैदा हो गया है। उग्रवादियों से निपटने के लिए लोकटक में तैनात किए गए तीन हॉवरक्राफ्ट हिरणों और यहां रहने वाले पक्षियों को उजड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हॉवरक्राफ्ट ऐसे वाहन होते हैं जो जमीन के साथ-साथ पानी पर भी तेजी से चलते हैं। इनके चलने से पैदा होने वाली तेज आवाज और तरंगों के कारण यहां के वन्य जीवन में व्यवधान पैदा कर दिया है।
झील को बचाने के लिए सरकारी स्तर और जनता के स्तर पर गतिविधि चल रही है, लेकिन व्यवहार में दोनों तरीके एक दूसरे के विपरीत दिख रहे हैं। सरकारी संरक्षण वाले दल का कहना है कि अंधाधुंध मछली मारने, बेपरवाही से सब्जी उगाने से जलनिधि की नैसर्गिकता प्रभावित हुई है, जबकि आम जनता इसे सही नहीं मानती। आम लोगों का कहना है कि 1979 में पनबिजली परियोजना के तहत बनाए गए इथाई बैराज के कारण ही लोकटक को खतरा पैदा हुआ है।
विडंबना यह है कि झील संरक्षण के संकल्प के साथ अभियान चला रहे कई समूह आपस में कोई संवाद नहीं करते हैं और एक दूसरे को दुश्मन की तरह देखते हैं। परिणाम सामने है-सरकार लोगों को उजाड़ती है तो आम लोग हताश हो कर केवल आरोप लगाने तक सीमित हो जाते हैं। मणिपुर विश्वविद्यालय को झील संरक्षण के लिए शोध, वैज्ञानिक परिक्षणों, प्रबंधन योजनाओं, निरीक्षण वगैरह के लिए नोडल एजेंसी बनाया गया है। दुर्भाग्य है कि नोडल एजेंसी में लोग विज्ञान और पर्यावरण के तो माहिर हैं लेकिन स्थानीय नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने में असफल रहे हैं। कोई भी विकास आम लोगों की भागीदारी के बगैर सार्थक नहीं होता और यही लोकटक की त्रासदी है।
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