संकट में देश का अन्नदाता

इन दिनों बेमौसम बरसात, ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण देश भर के कई राज्यों से किसानों के मरने की खबरें आ रही हैं। अपनी बर्बाद हुई फसल को देखकर सदमे में कई किसान हृदयाघात के कारण अपनी जान गंवा बैठे, वहीं दूसरी ओर कर्ज में डूबे कई किसान आत्महत्या जैसे गम्भीर कदम उठाने को मजबूर हो गए। किसानों पर टूटे प्राकृतिक कहर के प्रभाव से देश का आम नागरिक भी अछूता नहीं रहने वाला। जिस प्रकार फसलें नष्ट हुई हैं, उसका प्रभाव दलहन, तिलहन और तत्काल रूप से विभिन्न सब्जियों की कीमतों में बढ़ोत्तरी के रूप में आम देशवासियों पर भी पड़ेगा।

सरकार द्वारा बिना किसी लेट-लतीफी के प्राकृतिक आपदाओं के चलते बैंकों अथवा सूदखोरों के कर्जदार हुए हर किसान को उसके ऊपर लटकने वाली कर्ज की तलवार से निजात दिलाई जा सके, जिससे वह आत्महत्या जैसे कदम न उठाए।भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ यहाँ के अन्नदाता यानी किसान को कहा जा सकता है। एक किसान अपनी व अपने परिवार की लगभग हर प्रकार की जरूरतों मसलन मासिक गृह खर्च, बच्चों की शिक्षा, कपड़ा, दवाई, शादी इत्यादि के लिए अपनी फसलों पर निर्भर रहता है। यहाँ तक कि खेती-बाड़ी से सम्बन्धित हर प्रकार की खरीद-फरोख्त के लिए भी इसकी निर्भरता अपनी फसलों पर रहती है। देश में करोड़ों की संख्या में ऐसे किसान हैं, जो आर्थिक रूप से ज्यादा सम्पन्न नहीं हैं और वे बैंकों, सूदखोरों अथवा किसी अन्य प्रकार से ब्याज पर पैसे लेकर खेती करने का जोखिम उठाते हैं।

बड़ी संख्या ऐसे किसानों की भी है, जिनके पास स्वयं की कृषि योग्य भूमि भी नहीं है और ये किसी अन्य की भूमि पर अपना पैसा और मेहनत लगाकर खेती करते हैं। किसानों को बस एक ही आस होती है कि इन्हें इनकी मेहनत का फल अच्छी फसल के रूप में मिलेगा, जिससे वे अपनी व अपने परिवार की हर प्रकार की जरूरतों को पूरा कर पाएँगे एवं अपने ऊपर चढ़े बैंक अथवा सूदखोरों के कर्ज को भी चुका पाएँगे। किन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आँधी-तूफान, ओलावृष्टि, असमय बारिश अथवा सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण हमारे देश में अन्नदाता अक्सर ही संकट से घिरा दिखाई देता है। कुदरत का कहर इनके सभी अरमानों पर पानी फेर देता है।

कर्ज में डूबा किसान अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसे बच्चों की शिक्षा, शादी इत्यादि भी ढंग से पूरी नहीं कर पाता। ऐसे में जब उसे यह लगता है कि वह पूरी तरह से बर्बाद हो गया है और उसे अपने नुकसान की भरपाई के लिए कहीं से किसी प्रकार की कोई मदद भी नहीं मिलने वाली तो सूदखोरों और बैंकों के कर्ज को चुकाने की चिन्ता में या तो वह हृदयाघात, डिप्रेशन आदि का शिकार हो जाता है अथवा एक ऐसा कदम उठाता है, जिससे उसे लगता है कि उसकी समस्या समाप्त हो जाएगी और वह कदम होता है अपनी जीवनलीला को समाप्त कर लेने का यानी आत्महत्या करने का।

यह सही है कि सरकार द्वारा राहत पैकेजों की घोषणा की जाती है, किन्तु यह सरकारी राहत हर किसी के नसीब में नहीं होती। जिम्मेदार विभागों, अधिकारियों द्वारा सरकारी राहत से सम्बन्धित नियम-कानून में आपदाओं की मार झेल रहा किसान ऐसा फंसता है कि राहत तक उसकी पहुँच हो ही नहीं पाती। मसलन फसल की बर्बादी से सबसे ज्यादा नुकसान की आशंका पट्टे या बँटाई पर खेती कर रहे छोटे किसानों और मजदूरों को होती है, चूँकि किराए पर खेत लेकर पूँजी और मेहनत का दाँव लगाने वाले छोटे किसान मुआवजे से वंचित रह सकते हैं। इसका कारण है कि बर्बादी का मुआवजा उसे मिलेगा, जिसके नाम खसरा और खतौनी होगा। लेकिन वे खेतिहर मजदूर जिनकी अपनी भूमि ही नहीं है, जिनकी पूरी मेहनत, श्रम, पैसा सबकुछ डूब गया, वे क्या करें।

यहाँ जरूरत इस बात की होती है कि सरकार द्वारा बिना किसी लेट-लतीफी के प्राकृतिक आपदाओं के चलते बैंकों अथवा सूदखोरों के कर्जदार हुए हर किसान को उसके ऊपर लटकने वाली कर्ज की तलवार से निजात दिलाई जा सके, जिससे वह आत्महत्या जैसे कदम न उठाए। सरकार को अपनी ओर से किसान के हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कदम भी उठाने चाहिए, जो कि किसानों को कृषि से जुड़े जोखिम को कम करने में मदद करें। उदाहरण के लिए, फसलों का बीमा फसल की कटाई होने के समय तक का किया जाए, पट्टे अथवा बँटाई पर खेती कर रहे किसानों को भी सरकारी राहत सुनिश्चित की जाए, ऐसी फसलें जिन पर मौसम की मार का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, जैसे कि जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेदिक उपचार में प्रयुक्त होने वाली प्राकृतिक औषधियाँ, फल इत्यादि के बारे में किसानों को जागरूक किया जाए।

वक्त का तकाजा यही है कि हम कुदरत के बदलते मिजाज के अनुरूप स्वयं को व कृषि व्यवसाय को यथाशीघ्र एवं यथासम्भव ढालने का प्रयास करें। देश के मौसम विभाग विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिक व किसान परस्पर मिलकर खेती-बाड़ी के सम्बन्ध में एक ऐसी नई दिशा की तलाश करें, जो ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आ रही मौसम के परिवर्तन की चुनौती के अनुरूप हो।

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझा जाने वाला किसान सरकारों की ओर से संरक्षण व सहयोग से वंचित दिखाई देता है। फसलों की मूल्यवृद्धि की माँग करने पर उस पर पुलिस की लाठियाँ बरसती हैं, विकास एवं औद्योगीकरण को बढ़ावा दिए जाने के नाम पर लाए जाने वाले भूमि अधिग्रहण जैसे बिल उसकी रूह कँपा देते हैं। सरकारों को समझना चाहिए कि किसानों की खुशहाली केवल किसानों अथवा उनके परिवार तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि पूरे बाजार पर तथा देश की अर्थव्यवस्था पर भी अपना प्रभाव डालती है।

जब देश का किसान खुशहाल रहता है, उसे अपनी फसल की अच्छी कीमत मिलती है तो वह भी बाजारों में खरीददारी करता है, जीडीपी में इजाफा करने में अपना सहयोग देता है। सरकारें बार-बार वादों के महल खड़े करती हैं और फिर भूल जाती हैं कि किसान नाम का एक जीव भी देश में निवास करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि जब तक किसान का विकास नहीं होगा, वह खुशहाल नहीं होगा, देश के सम्पूर्ण विकास की कल्पना भी बेईमानी होगी।

लेखक का ई-मेल : shivambhardwaj1989@gmail.com

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