संकट में भूजल

1970 तक तेल निर्यातक देश सऊदी अरब विदेशी खाद्यान्न पर निर्भर था। अचानक उसने तेल निकालने वाली तकनीक से रेगिस्तान के नीचे से पानी खींचकर सिंचाई सुविधा के बल पर खेती करने का निश्चय किया। यह नीति कामयाब रही और कुछ ही वर्षों में सऊदी अरब गेहूं के मामले में आत्मनिर्भर बन गया। लेकिन जनवरी 2008 में सऊदी अरब ने घोषणा की कि जल भंडारों के खत्म होने के कारण वह अब गेहूं उत्पादन से तौबा कर रहा है। 2007 से 2010 के बीच वहां का गेहूं उत्पादन 30 लाख टन से घटकर 10 लाख टन रह गया।

यदि यही गति जारी रही तो 2012 तक सऊदी अरब अपने तीन करोड़ निवासियों के भरण-पोषण के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर हो जाएगा। इसी को देखते हुए सऊदी अरब ने विदेशों में उपजाऊ जमीन खरीदकर व पट्टे पर लेकर खेती करने की शुरुआत कर दी है। जल स्रोतों के अंधाधुंध दोहन की यही गति रही तो दुनिया के अधिकांश देशों की हालत सऊदी अरब से अलग नहीं होगी क्योंकि दुनिया की आधी जनसंख्या उन इलाकों में रहती है जहां जल की खपत उसके पुनर्भरण (रिचार्जिंग) दर से अधिक है। चूंकि 70 फीसदी पानी की खपत सिंचाई के काम में होती है, इसलिए पानी का संकट खाद्य संकट को जन्म दे सकता है।

लेकिन भारत, चीन जैसे विशाल आबादी वाले देश इतने भाग्यशाली नहीं हैं कि वे विदेश में खेती कराकर अपने देशवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें। आज जो जल संकट दिख रहा है, वह दरअसल पिछले पचास वर्षों के दौरान पानी की खपत में तीन गुना बढ़ोतरी का परिणाम है। इसमें शक्तिशाली सबमर्सिबल पंपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन पंपों के आने से किसान जल भंडारों के पुनर्भरण से अधिक पानी खींचने लगे। भारतीय संदर्भ में देखें तो जैसे-जैसे किसानों में नकदी फसल उगाने की प्रवृत्ति बढ़ी वैसे-वैसे भूजल दोहन तेज हुआ। इसका कारण है कि इन फसलों को समय पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अब देश के किसानों को एक ऐसे स्रोत की तलाश थी जो मांग पर तुरंत उपलब्ध हो और सबसे बढ़कर जिस पर उनका मालिकाना हक हो। यह स्रोत था भूजल। यही कारण है कि 1970 से ही देश में नलकूप लगाओ अभियान चला, जिसका परिणाम है कि अब तक दो करोड़ बीस लाख से अधिक निजी नलकूप लग चुके हैं। इसके चलते बहुत से इलाके बिल्कुल सूख गए और अनेक क्षेत्रों में जल्दी ही ऐसी स्थिति पैदा होने की आशंका जताई जा रही है।

आज भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है। यहां प्रति वर्ष 230 घन किलोलीटर पानी धरती की कोख से उलीचा जा रहा है जो कि विश्व की कुल खपत के एक-चौथाई से भी अधिक है। यहां 60 फीसदी सिंचाई और 80 फीसदी पेयजल की आपूर्ति भूजल से हो रही है। इसके परिणामस्वरूप 29 फीसदी ब्लॉक संकटग्रस्त, अर्द्धसंकटग्रस्त व अतिदोहित की श्रेणी में आ चुके हैं। भूजल संकट को गहरा करने में वोट बैंक की राजनीति ने आग में घी का काम किया। राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने और अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए मुफ्त बिजली का पासा फेंका। इससे भूजल दोहन में तेजी आई। सिंचाई के अलावा भूजल का सबसे ज्यादा दोहन औद्योगिक इकाइयों के लिए किया जाता है। शीतल पेय और बोतलबंद पानी के कारोबार और कपड़े रंगाई-धुलाई करने वाले कारखानों में भी बड़े पैमाने पर भूजल का इस्तेमाल होता है। कई अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि जिन क्षेत्रों में शीतल पेय बनाने के संयंत्र लगे हैं वहां जमीनी पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है। फिर जिन इलाकों में धरती के नीचे पानी है भी, वह रासायनिक खादों-कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग, औद्योगिक कचरे आदि के चलते तेजी से प्रदूषित हो रहा है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 

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