थोड़ी सी बारिश से शहर की सूरत किस कदर बिगड़ जाती है‚ यह हम–आप देखते हैं। अभी पखवाड़े भर पहले दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हालात कितने भयावह और दारुûण थे‚ यह बताने की जरूरत नहीं है। लुटियन दिल्ली के करोड़ों रुपये वाले घरों में कमर भर पानी भर गया‚ सांसद अपनी चरण पादुका हाथों में लिए अपनी कोठी की ओर पैदल जाने को मजबूर दिखे‚ एक पार्षद तो अपने इलाके में नाव चला रहे थे। कुल मिलाकर दिल्ली और आसपास के शहरों की स्थिति न केवल दयनीय‚ बल्कि हास्यास्पद भी थी। 24 घंटे की बारिश ने करीब 11 से ज्यादा लोगों की जानें ले ली।
पहले हटाना होगा अतिक्रमण
यह सब कुछ देश की राजधानी का दृश्य है। न नाली का पता है‚ न सीवर का.गटर का पानी घरों में है और लाखों की गाड़ियां सड़कों पर तैर रही हैं। तो यह सवाल सहसा मन में कौंध ही जाता है कि क्या ऐसे वक्त में जब हम विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं और तीसरी बनने की राह पर हैं‚ विश्व गुरु का तमगा हमारे सिर पर है‚ विश्व की सबसे महंगी मार्केट दिल्ली में है.तो दिलोदिमाग सोचने पर भी मजबूर हो जाता है कि आखिर‚ विकास हो कहां रहा हैॽ
2014 के अपने घोषणापत्र में भाजपा ने स्मार्ट शहरों को भव्य शहरी डिजिटल यूटोपिया की तर्ज पर दर्शाया था। बेहतर जीवन और शहरी भारत को दक्षता‚ गति और पैमाने के प्रकाश स्तंभ में बदलने के लिए ‘नई तकनीक और बुनियादी ढांचे से सक्षम' 100 नये शहर बनाने का वादा किया। जून‚ 2015 में स्मार्ट सिटी मिशन की शुरुआत करते समय मोदी ने कहा था‚ ‘स्मार्ट सिटी का मतलब है एक ऐसा शहर जो निवासियों की बुनियादी जरूरतों से दो कदम आगे हो। शहर के निवासियों और नेतृत्व को तय करे कि शहर का विकास कैसे किया जाना चाहिए। यह नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए।'
लेकिन क्या ऐसा होता दिखता है। पूरे देश की एक तस्वीर अगर मुहैया कराई जाए तो हालात बदतर ही दिखेंगे। बड़े़ शहरों के कुछ पॉकेट्स को छोड़़ दें तो अधिकांश इलाकों में स्थिति मनभावन नहीं दिखती है। इसके फेल होने के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं। मसलन; सड़़कों और नालियों का अतिक्रमण‚ साफ–सफाई पर घोर लापरवाही‚ सिविक एजेंसियों की काहिली आदि। मगर कुछ और कारण हैं‚ जिन पर गौर करने की जरूरत है। दरअसल‚ स्मार्ट सिटी मिशन को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने हर एक शहर के लिए शासी निकाय के रूप में कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत विशेष प्रयोजन वाहन (एसपीवी) बनाए। इस दृष्टिकोण ने स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों जैसे कि विधायकों‚ सांसदों या पार्षदों को बाहर कर दिया‚ इसके बजाय मंडल आयुक्त और नगर निकाय के प्रमुख जैसे अधिकारियों को बागडोर सौंप दी‚ जबकि मुंबई और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ शहरों और राज्यों ने केंद्रीय हस्तक्षेप की चिंताओं के कारण इससे बाहर निकलने का विकल्प चुना। इन सबसे यह हुआ कि चीजें संभलने की बजाय उलझती चली गईं।
कुल मिलाकर स्मार्ट सिटी योजना के तहत किसी भी शहर के हाशिए के इलाकों में शायद ही कोई काम किया गया हो। स्मार्ट सिटी ने किसी भी शहर की बड़ी आबादी के लिए काम नहीं किया है। दरअसल‚ हमारे शहरों का बुनियादी ढांचा अभी भी 1960 के दशक के स्तर पर है। स्मार्ट सिटी के नाम पर‚ कुछ ई–गवर्नंस वेबसाइट और ऐप बनाए गए हैं‚ जो उपयोगी तो कतई नहीं हैं।
सिविक एजेंसियों की जवाबदेही
इससे इतर बात करें तो सब कुछ बेहतर और बेहतरीन तभी होगा जब सरकार की कार्यशैली निष्पक्ष और निर्भीक होगी। दिल्ली की ही बात करें तो यहां कई इलाके ऐसे हैं‚ जहां झुग्गियों में बड़़ी आबादी बसती है। कई इलाके तो ऐसे हैं जहां सरकारी जमीनों‚ नाले‚ तालाब आदि का बड़े़ पैमाने पर अतिक्रमण कर लिया गया है। नतीजतन थोड़़ी सी बरसात में शहर कितना परेशानहाल हो जाता है‚ यह जगजाहिर है। दूसरी अहम वजह‚ सिविक एजेंसियां–नई दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी (एनड़ीएमसी) और दिल्ली नगर निगम (एमसीड़ी) में गहरे तक भ्रष्टाचार और काहिली है। अफसर और कर्मचारियों को गलत तरीके से कमाई करने का तो वक्त है‚ मगर उन्हें इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं कि मानसून से पहले नालों की सफाई करा दी जाए। जहां भी सरकारी जमीनों पर कब्जा किया गया है‚ उसे सख्ती से हटाया जाए।
वैसे ये दृश्य कमोबेश देश के छोटे–बड़े़ सभी शहरों के हैं‚ मगर करोड़़ों–अरबों रुपये के बजट वाले नगर निगम और प्राधिकरण के कारण अगर आम लोगों का जीवन नारकीय हो जाए तो सरकार को अपनी भौहें टेढ़ी करनी ही पड़े़गी क्योंकि यह जान–माल से जुड़ा बेहद महlत्वपूर्ण मसला है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
/articles/sandarbh-dilli-baadh-jaruri-nirnaya-lene-honge-tabhi-rukenge-hadse