एक अध्ययन बताता है कि महँगा इलाज गरीबी बढ़ाने की अहम वजह है। इसका मतलब है कि अगर सरकार नये भारत से गरीबी दूर करने की मंशा रखती है तो इसकी शुरुआत सबको सस्ती चिकित्सा दिलाने से करनी होगी। प्रदेश के साथ देशस्तर पर भी। सरकारी सुविधाओं की तय लक्ष्य तक अबाध व नियमित पहुँच बनानी होगी। इसके लिये डॉक्टरों या अफसरों में कमीशनखोरी की लत न पड़ने देना होगा। यह काम मुश्किल है। इसलिये कि यह एक सिस्टम का रूप ले चुका है।
कैसी विडम्बना है कि जिस अगस्त क्रांति (नौ अगस्त) यानी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 75वीं वर्षगांठ पर पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन चहक-चहक कर गरीबी और बीमारियों को देश छोड़ कर चले जाने के संकल्प दोहरा रहे थे और इसके अगले रोज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद में नये भारत का इंद्रधनुषी खाका खींच रहे थे; गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक-एक कर दर्जनों बच्चों की छटपटा-छटपटा कर टूटती सांसें उन दावों का जैसे मखौल उड़ा रही थीं। महज एक दिन की दूरी पर क्रांति के हुए शंखनाद को अभागे बच्चों के परिजनों की चीख-पुकारों ने ढंक लिया था। एक त्रासदी में बदल दिया था। बीमार बच्चों के मरने में या मरने देने में कोई साजिश नहीं थी तो यह निरा संयोग भी नहीं था।ऑक्सीजन सिलिंडर की अनापूर्ति को एन्सेफलाइटिस पीड़ित बच्चों की असमय मौत का पहला तात्कालिक कारण बताया गया। तमाम दावों-प्रतिदावों के बावजूद इस वजह को इसलिये खारिज नहीं किया जा सका क्योंकि गैस एजेंसी ने सिलिंडर सप्लाई न करने की छह वार्निंग दे चुकी थी। फिर भी एजेंसी के बिल का भुगतान टाला जाता रहा जबकि इस मद में पैसे पर्याप्त थे। बीमार बच्चों की जान की कीमत पर यह आपराधिक खिलवाड़ इसलिये किया गया क्योंकि ‘कमीशन’ की रकम तय नहीं हो पा रही थी। 16 अगस्त को गोरखपुर कलेक्टर की त्वरित जाँच रिपोर्ट में भी ये बातें साबित हुई, जिसमें कॉलेज अस्पताल के प्रिसिंपल व लिपिक प्रथमदृष्टया दोषी पाए गए हैं।
यहाँ इस बहस में जाना मेरा लक्ष्य नहीं है कि और कौन लोग जाँच के दायरे से बाहर रह गए और क्यों? इसके बजाय मेरा सरोकार है कि यह पूरे स्वास्थ्य क्षेत्र का असाध्य रोगों से ग्रस्त हो जाने का मामला है। और दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह केवल एक उत्तर प्रदेश या उसके एक शहर के चिकित्सा संस्थान का ही नहीं बल्कि पूरे देश के चिकित्सा क्षेत्र का कड़वा सच हो सकता है। लेकिन जैसा कि सरकार ने भी घोषित कर रखा है कि वह इसकी विस्तृत जाँच कराएगी और दोषियों पर बिना किसी पूर्वग्रह के कार्रवाई होगी। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अन्य प्रसंग में भ्रष्टाचारियों और कमीशनखोरों पर शीर्ष से नीचे तक कार्रवाई की बात कही है। इसका जरूर सार्थक परिणाम निकलेगा। उनकी ईमानदारी पर पूरे देश को भरोसा है।
फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार को देखना चाहिए कि इस घटना पर कार्रवाई तात्कालिक प्रतिक्रिया भर न रह जाए। इसलिये कि गोरखपुर मस्तिष्क ज्वर का एपिक सेंटर बना हुआ है। जापानी बुखार के नाम से कुख्यात यह बीमारी पूर्वांचल को दशकों से अपनी चपेट में लिया हुआ है। 11 जिले तो एन्सेफलाइटिस पीड़ित घोषित हैं और बीआरडी मेडिकल कॉलेज इकलौता संस्थान है, जिस पर अपने पूर्वांचल के अलावा, पड़ोसी राज्य बिहार और पड़ोसी देशनेपाल तक के मरीजों की जिम्मेदारी है। इसलिये कानून के दायरे में निष्पक्ष कार्रवाई की जानी चाहिए।
गोरखपुर में हुई अगस्त त्रासदी के कारणों की पड़ताल करें तो पहले समाज और फिर राजनीतिक पार्टियाँ व उनकी सरकारें दोषी हैं। समाज के स्तर पर अपेक्षित स्वास्थ्य-गत सजगता का अभाव है। टॉयलेट को लेकर आज जिस तरह की सजगता का वातावरण बनाया गया है, उस रूप में शायद ही कोई समाज अपने इलाके के लिये सुविधायुक्त अस्पताल की मांग करता है और कोई दल शायद ही इसे अपने चुनावी एजेंडे में शामिल करता है। चुन कर आई सरकारें भी पंचवर्षीय योजना दर योजना जीडीपी दर की दो फीसद राशि सेहत पर खर्च करने का प्लान करती रहती है। लेकिन उस बिंदु तक पहुँचना अब तक मुहाल रहा है। क्यों ऐसा है? एक बार योगी आदित्यनाथ ने ही बतौर सांसद मस्तिष्क बुखार के उन्मूलन में राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी को अव्वल वजह माना था। यह सटीक आकलन है, वरना इसके और क्या कारण हो सकते हैं कि मालदीव, बांग्लादेश या श्रीलंका जैसे छोटे देशों ने अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर कर लिया है तो हम उनसे कद्दावर हो कर भी अब तक पिछड़े हैं? प्रो अमर्त्य सेन जाने कब से स्वास्थ्य और शिक्षा मद में जीडीपी के प्रतिशत को बढ़ाने और उन पर समुचित खर्च की निगरानी पर बल देते रहे हैं, लेकिन सरकार के प्रयास मांग और आपूर्ति का संतुलन बिठाने में कमतर रह जाते हैं।
ऐसी स्थिति मरीजों को निजी अस्पतालों में जाने के लिये मजबूर करती है। इससे अमीरी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन गरीब वहाँ जाकर चंगा होने में तरीके से लुट जाते हैं। एक अध्ययन बताता है कि महँगा इलाज गरीबी बढ़ाने की अहम वजह है। इसका मतलब है कि अगर सरकार नये भारत से गरीबी दूर करने की मंशा रखती है तो इसकी शुरुआत सबको सस्ती चिकित्सा दिलाने से करनी होगी। प्रदेश के साथ देशस्तर पर भी। सरकारी सुविधाओं की तय लक्ष्य तक अबाध व नियमित पहुँच बनानी होगी। इसके लिये डॉक्टरों या अफसरों में कमीशनखोरी की लत न पड़ने देना होगा। यह काम मुश्किल है। इसलिये कि यह एक सिस्टम का रूप ले चुका है। जहाँ यह काम नहीं करता है, वहाँ वाकई कोई काम नहीं होता है। दवाओं यहाँ तक कि जीवन-रक्षक दवाओं तक के बेचने और राजनीतिक सांठ-गांठ से उनका कुछ भी न बिगड़ने में इसका इसी पैसे का जोर है। गोरखपुर का मामला कमीशनखोरी की रक्तपाई नृशंसता का क्रूर अट्टहास है। इसमें राहत यही है कि योगी आदित्यनाथ इस बीमारी के उन्मूलन में दशकों से ईमानदार प्रयास करते रहे हैं।
Path Alias
/articles/sandarabha-daimaagai-baukhaara-aba-tao-badalanaa-hai-padaegaa
Post By: Hindi