सन्थाली लोक-कथाएं

हमारा देश भारत कथाओं का देश माना गया है। इस देश में बच्चे-बूढ़े, नर-नारी सभी बड़े चाव से कथा-कहानियाँ सुनते हैं। यह देश ही नहीं बल्कि विश्व के सारे देश कथा-कहानियों से भरे-पूरे हैं। फिर भी यह निश्चित है कि पश्चिमी देशों में प्रचलित कथा-कहानियाँ पूर्वी देशों, खासकर भारत से यात्रा करती हुई पहुँची हैं। भारत का कोई जाति, धर्म, समुदाय ऐसा नहीं जिसकी परम्परा में लोक-कथाओं का प्रचलन न रहा हो। अधिकांश कथा-कहानियों के बीज वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत ग्रन्थों से मिलते हैं।

गुणाढ्य कृत पैचाशी भाषा में लिखित 'वड्ड कहा' (वृहतकथा), सोमदेव भट्ट का लिखा 'कथा सरित्सागर' पालि में ‘बौद्ध जातक' लोकप्रिय हैं। इनमें अनेक जातक कथाएं भी विद्यमान हैं। इस सम्पूर्ण कथा साहित्य के भावात्मक समन्वय के सम्बन्ध में यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अधिकांश कथाएं थोड़े-बहुत परिवर्तित रूप में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं में समान रूप से मिलती हैं। सन्थाली लोक-कथाएं भी कमोवेश इसी श्रेणी में आती हैं।

सन्थाली भाषा में कथा-कहानी को 'शाम' या 'किस्सा' कहते हैं जो सदियों से लोकवार्ता के रूप में स्वत: हस्तान्तरित होती चली आ रही हैं। ये लोक वार्ताएं सन्ताल समाज के मूल्यों, आदर्शों, शिक्षा, रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परम्पराओं और प्रकृति से उनके सम्बन्ध तथा मनोरंजन के तौर-तरीकों पर प्रकाश डालती हैं। अधिकांश सन्थाली लोक-कथाएं हास-परिहास से परिपूर्ण दिखती हैं, जिनमें चालाकी और सरलता का भरपूर समावेश भी होता है। कुछ लोक-कथाएं भावहीन होती हैं जिनके उद्देश्य का पता ही नहीं चलता है। लोक-कथाओं की एक खास विशेषता यह है कि इसमें भाई-बहन के बीच के स्नेहपूर्ण सम्बन्धों का बड़ा मार्मिक चित्रण मिलता है। इन लोक-कथाओं में प्रकृति ही नहीं, आदमी और जानवर तथा पक्षियों के बीच परस्पर सम्बन्ध भी मिलते हैं। कुछ लोक-कथाएं लोक मुहावरों एवं पहेलियों के क्षेत्र में भी सन्ताल समाज की पकड़ को भी उजागर करती हैं तो कुछ उनकी बेवकूफी और नादानियों का भी परिचय देती हैं। कुछ में उनकी वीरता-साहसिकता झलकती है तो कुछ में उनके लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष की भावना भी दृष्टिगोचर होती है।

अब अगर आधुनिक सन्दर्भ में सूक्ष्मता से इन सन्थाली लोक-कथाओं पर विचार किया जाय तो इसके कई पहलू दिखते हैं। मोटे तौर पर सन्ताल आदिवासी समाज में कई प्रकार की कथाएं सुनने को मिलती हैं। पौराणिक कथाएं, वीरता और साहस की ऐतिहासिक कथाएं, हास-परिहास की कथाएं, बेवकूफी और चालाकी की कथाएं, अन्धविश्वास की कथाएं, पशु-पक्षियों की कथाएं, नीतियुक्त उपदेशात्मक कथाएं तथा पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्ते-नातों की कथाएं आदि।

पौराणिक कथाओं में मनुष्य से लेकर देवी-देवता, भूत-प्रेत, राक्षस, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। साथ ही भूत-प्रेत, मनुष्य और देव-दानव के बीच द्वंद्व तथा उसके परिणाम में नाना पूजा विधि की उत्पत्ति का भी वर्णन मिलता है। साथ ही पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ आदि धार्मिक गतिविधियों का उल्लेख भी इनमें देखने को मिलता है। इस प्रकार की कथाओं की उत्पत्ति का स्रोत प्राय: सन्ताल पुरोहितों के धार्मिक गीतों से माना जाता है। 'काराम बिनती' के गीतों से निकली सन्ताल सृष्टि के आदि दम्पत्ति पिलचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी की उत्पत्ति से जुड़ी कथाएं ऐसी ही कथाओं की श्रेणी में आती हैं। साथ ही सन्तालों के देवी-देवता, मारांड बुरक, जाहेर ऐरा, गोसाई ऐरा आदि की कथाएं भी।

वीरता और साहस की कथाएं प्राय: ऐतिहासिक कथाओं की कोटि में आती हैं। इसके तहत सन्ताल समुदाय के अनेकों वीर योद्धाओं तथा महापुरुषों की गाथाएं होती हैं। साथ ही, समय- समय पर बाहरी ताकतों के विरुद्ध विद्रोह की घटनाओं का चित्रण भी होता है। इसके अलावे शेर, बाघ, चीता जैसे खतरनाक जंगली जानवरों से आदि मानवों के युद्ध में उनकी वीरता और साहस का बखान भी होता है। जुल्म और अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध भी दिखता है। सन्ताल विद्रोह के समय सिद्धों-कान्हू, चाँद-भैरव, फूंलो-झानो, तिलका माँझी आदि वीर योद्धाओं से जुड़ी कथाओं को इस परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा-समझा जा सकता है।

हास-परिहास की कथाओं में वे कथाएं आती हैं जो विभिन्न मानवीय रिश्तों के बीच परस्पर हँसी-मजाक तथा व्यंग्य-विनोद पर आधारित होती हैं। ऐसी काथाएं बड़े चुटीले ढंग की होती हैं, जिसके प्रभाव से सुनने और सुनाने वाले दोनों हँसते हैं। इसमें हास्य-व्यंग्य की पुट भी होती है और एक तरह की सीख भी। खासकर मनोरंजन के लिए इस तरह की कथाओं का विशेष महत्व है, जिसका सन्थाली लोक-कथाओं में पर्याप्त भण्डार है।

अन्य लोक-कथाओं की तरह सन्थाली लोक-कथाओं में भी बेवकूफी और चालाकी के किस्से मिलते हैं। सन्तालों में प्रचलित चालाक बीतना और लालची दामाद जैसी लोक-कथाओं में यह सब देखा-सुना जा सकता है।

सन्ताल समाज में अन्धविश्वास भी भरा पड़ा है। इस समुदाय के लोगों का विश्वास है कि सारी परेशानियों और बीमारियों की जड़ 'बोंगा' अर्थात शैतान प्रेतात्माएं हैं और जिनको शांत और प्रसन्न रखने का उपाय ओझा-गुरुओं के नियन्त्रण में है। यही ओझा-गुणी अन्धविश्वास से जुड़ी कथाओं के स्रोत माने जाते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना, डायन-जोगिन से जुड़ी घटनाओं का जिक्र इस तरह की कथाओं में देखा जा सकता है। मृत्यु के पश्चात् पातालपुरी में अच्छे-बुरे कर्मों के लिए स्वर्ग-नरक के दरबान के किस्से भी इन्हीं अन्धविश्वास की कथाओं के रूप हैं जिसकी झलक जादो पटिया के अन्तर्निहित कथाओं में देखी जा सकती है। इस तरह की कथाओं के स्रोत प्राय: जानगरुओं तथा धार्मिक कर्मकाण्ड सम्पन्न कराने वाले लोग माने जाते हैं।

अब जहाँ तक प्रकृति की बात है तो प्राय: सभी लोक-कथाओं में प्रकृति की उपस्थिति देखी जाती है। सन्थाली लोक-कथाओं में प्रकृति की उपस्थिति देखी जाती है। सन्थाली लोक-कथाओं में प्रकृति के विभिन्न आयाम तथा मनुष्य के उसके अन्तर्सम्बन्धों के अलावे पशु-पक्षियों से उसके परस्पर वार्तालाप की दिलचस्प बातें देखने को मिलती हैं। यहाँ पशु-पक्षियों के वार्तालाप भी मनुष्य की भाषा में होते हैं, जिसमें सामाजिक गतिविधियाँ प्रतिबिंबित होती हैं। आदिवासी लोग सदियों से जंगल-पहाड़ों पर रहते आए हैं इसलिए प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण उनकी लोक-कथाओं में प्रकृति की चर्चा तथा उसके अनुकूल पात्र, भाषा और व्यवहार देखने-सुनने को मिलते हैं। इस तरह की कथाओं में शेर, बाघ, चीता, भालू सियार, हाथी, बन्दर आदि मानवेतर प्राणियों की उपस्थिति मानव की तरह देखी जाती है। सियार भाई, मुर्गा बहन, भालू और गिरगिट, मगरमच्छ और सियार, घोड़ा सियार मछली और तेलघानी आदि लोक-कथाएं इन्हीं कथाओं की श्रेणी में आती है।

वैसे तो सीधे तौर पर सन्थाली लोक-कथाओं में नीतिपरक उपदेशात्मक कथाएं बहुत कम देखने-सुनने को मिलती हैं, पर जो कथाएं हैं उनकी लोक नीति और सामाजिक व्यवहार के कई ऐसे पात्र दृष्टिगोचर होते हैं जिनसे समाज में अच्छे-बुरे कर्मों के लिए दण्ड और वरदान जैसे विधि-विधान के माध्यम से बुराई से बचने और अच्छाई की ओर अग्रसर होने के उपदेश मिलते हैं। जस भरिया तस भार, जस भैंसा तस बैलगाड़ी, चोर बन गया बैल, माही में सोना है बेटा आदि कथाओं में नीतिपरक उपदेशात्मक सन्देश मिलते हैं।

हम देखते हैं कि सन्ताल आदिवासी संस्कृति में गीत-नृत्य के साथ-साथ लोक-कथाओं का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आज सन्ताल आदिवासी गाँव में घर की देहरी, आंगन या चौपाल पर बैठ वृद्ध लोग कभी आपबीती तो कभी जगबीती सुनाते रहते हैं और सुनने वाला व्यक्ति प्रत्युत्तर में हुँकार भरता रहता है। अधिकांश लोक-कथाएं गद्यात्मक होती हैं। कहीं-कहीं किसी कथा में दो-चार पंक्तियों के गीत भी गाकर सुनाए जाते हैं। कहानी के अंत तक जिज्ञासा बनी रहती है, जिसमें श्रोता दत्तचित्त होकर कहानी समाप्त होने पर ही सन्तोष लाभ प्राप्त करता है।

सन्थाली लोक-कथाओं में पारिवारिक रिश्ते और सामाजिक व्यवहार के किस्से भी कम नहीं हैं खासकर 'भाई-बहन के रिश्ते और उनके स्नेहपूर्ण सम्बन्धों पर ढेर सारी कथाएं सुनने को मिलतीहैं। इससे पता चलता है कि सन्ताल समाज में भाई-बहन के रिश्ते बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। बहनों के प्रति अपार स्नेह होता है। इसकी पुष्टि सिर्फ लोक-कथाओं से ही नहीं बल्कि विभिन्न पर्व-त्योहार के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों से भी होती है। इस तरह की अधिकांश कथाओं में प्रायः पाँच भाई एक बहन, छः भाई एक बहन, सात भाई एक बहन जैसे प्रसंग मिलते हैं जिनमें सभी भाइयों में बहन के प्रति अगाध प्रेम दिखता है। कुछ कथाओं में अपनी बहन के लिए भाइयों द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों की हत्या तक के वर्णन मिलते हैं। अन्य समुदाय में प्रचलित लोक-कथाओं की तरह सन्थाली लोक-कथाओं में भी भाइयों की पत्नियों द्वारा उसकी अनुपस्थिति में उसकी बहन को सताने का मार्मिक चित्रण भी मिलता है। पाँच भाई एक बहन, ढोल से निकली छोटी बहन, सबई घास की सृष्टि, कपास का जन्म आदि कथाओं में इस तरह के चित्र देखे जा सकते हैं।

भाई-बहन के अतिरिक्त माता-पिता, सास-ससुर, पति-पत्नी, बेटा-बेटी, बहू-दामाद आदि पर भी अनेकानेक किस्से इस समाज में प्रचलित हैं, जिनमें अनेक सुख-दुख, आशा-निराशा, ईर्ष्या-द्वेष, लोभ-मोह एवं हँसी-मजाक आदि के विविध रूप मिलते हैं। लालची दामाद, सभी बहरे हैं, हँसी का रहस्य आदि इसी तरह की कथाएं है।

कुछ सन्थाली लोक-कथाओं का सम्बन्ध सन्थाली समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों और परम्परागत प्रथाओं से है। इस तरह की कथाओं के सूक्ष्म विवेचना से पता चलता है कि सन्थाली समाज में प्रचलित कुछ प्रथाओं की उत्पत्ति सम्भवत: इन कथाओं में घटित घटनाओं की देन है। जैसे, साला दामड़ा की प्रथा जिसमें बहन की शादी पर उसके भाई को एक तगड़ा बैल देने की प्रथा है। परदे की ओट में सिन्दूर दान, धोखेबाज खरगोश, भैंस द्वारा मुर्गा से आदि कथाओं और इनमें वर्णित घटनाओं के पीछे कई तरह की लोक मान्यताएं समाज में प्रचलित हैं जिनके आधार पर कुछ प्रथाओं का जन्म माना गया है।

सन्थाली लोक-कथाओं का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इसमें पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अनगिनत दृश्य भी दिखते हैं, जिनमें पुरुष वर्चस्व-वादित से आतंकित महिलाओं की व्यथा सुनाई पड़ती है। लेकिन ठीक इसके विपरीत एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि सन्ताल महिलाएं सन्ताल पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा चतुर, बुद्धिमान, साहसी और मेहनती होती हैं जिसकी पुष्टि परम्परागत लोक-कथाओं से वर्णित उनके कई साहसिक रोमांचक एवं चतुराई भरे कारनामे से होती है।

सन्थाली लोक-कथाओं में कहीं-कहीं लोकोक्ति, मुहावरे और पहेलियों की पुट भी मिलती है। 'माँ दो आदमियों को एक बनाने गई है' ऐसी ही एक कथा है जिसमें वर पक्ष के कुछ लोग जब लड़की देखने उसके घर जाते हैं, तो माँ-पिता की अनुपस्थिति में लड़की यह वाक्य उन लोगों से कहती है जिसे सुनकर लड़की को मूर्ख और उसकी माँ को बदचलन समझ लोग वापस लौट आते हैं। वापस लौटने पर जब घर की महिलाएं पूछती हैं तो वे लोग सारा हाल कह सुनाते हैं और वहाँ शादी न करने की बात करते हैं। यह सुनकर जब महिलाओं ने उस लड़की की बात का अर्थ समझाते हुए उसे बुद्धिमान साबित किया और पुरुषों की नासमझी का मजाक उड़ाया तो पुरुषों के चेहरे का रंग उड़ गया।

सन्थाली लोक-कथाओं को शैली की दृष्टि से 'गेय' तथा 'अगेय' दो रूपों में ले सकते हैं। 'गेय' कहानियाँ गाकर तथा 'अगेय' कहानियाँ वार्ता के रूप में विस्तार से कही जाती हैं। कुछ कथाएं लघु होती हैं तो कुछ दीर्घ। कुछ कथाएं हास-परिहास से परिपूर्ण होती हैं जो मनोरंजनार्थ गढ़ी जाती हैं तो कुछ जीवन की गुत्थियाँ सुलझाने में सचेष्ट जान पड़ती हैं। कहानियाँ सुनते समय लोग काफी रात्रि बीतने पर भी ऊंघते नहीं है बल्कि उत्सुकतावश आगे सुनने को व्यग्र दिखाई देते हैं। मानव जीवन के विभिन्न भाव क्षेत्रों एवं व्यापारों के आधार पर कथाओं के विविध भेद किए जा सकते हैं। एक ओर प्रेम, साहस, वीरता, सदाचार एवं परोपकारिता आदि सद्गुणों की प्रदर्शक कथाएं कही जाती हैं तो दूसरी ओर छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, चालाकी, दम्भ और व्यभिचार आदि दुर्गुणों से पूर्ण किस्से भी होते हैं जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।

प्राय: घर के बड़े-बुजुर्ग कथा-कहानियों के 'खान' माने जाते हैं। खेत-खलिहानों में दिन भर के परिश्रम के बाद जब शाम को लोग आंगन में चूल्हे के इर्द-गिर्द बैठते हैं तो बच्चों के उकसाने पर वे कहानियाँ कहना शुरू कर देते हैं। कभी-कभी भोजन के बाद खाट पर लेटे-लेटे सोने से पहले किस्सा-कहानियों का दौर चलता। लोग कथा-कहानी सुनने में इतने लीन हो जाते हैं कि उस समय समस्त दुश्चिंताओं को भूलकर आनन्दमग्न हो उठते हैं। दुखपूर्ण कहानियाँ सुनकर जहाँ वे दुख और करुणा से भर जाते हैं, वहीं हास्यपूर्ण कहानियाँ सुनकर वे हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते हैं।

मनुष्य का उर्वर मस्तिष्क नई-नई मनगढ़न्त कल्पनाएं गढ़ता रहता है और इस प्रकार नई-नई कहानियाँ बनती रहती हैं। लोक-कथाओं की उत्पत्ति कब, कहाँ और किसके द्वारा हुई यह कोई नहीं कह सकता। लोक-कथा की व्यापकता मानव के जन्म से लेकर मृत्यु तक है, तथा यह स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, जवान सभी की सम्मिलित सम्पत्ति है। इसका निर्माण अपने आप विशाल जन समूह द्वारा होता है, किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा नहीं। इसका सृजन सामूहिक चेतना द्वारा स्वाभाविक रीति से होता है जो किसी निश्चित साहित्यिक प्रक्रिया का परिणाम नहीं है। जीवन की सहज क्रियाओं और कार्य-व्यापार में लीन जन समुदाय के विविध रंग-रूप इन कथाओं में प्रतिबिंबित होते हैं।

कथा प्रारम्भ करने के तरीके पर भी हम गौर करें तो पाएंगे कि अन्य लोक-कथाओं की तरह सन्थाली लोक-कथाओं का प्रारम्भ भी कुछ इस तरह होता है जैसे एक समय की बात है या बहुत पहले एक गाँव में आदि-आदि। इस तरह अधिकांश लोक-कथाएं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय या भाषा की हों, कई स्तर पर उनमें समानताएं देखने को मिलती हैं। सम्भवत: अपनी इन्हीं समानताओं और विशेषताओं के कारण प्राय: हर जाति, धर्म, समुदाय में लोक-कथाओं की अपनी एक समृद्ध परम्परा रही है, जिनकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है।

इस तरह हम देखते हैं कि सन्ताल आदिवासी संस्कृति में गीत-नृत्य के साथ-साथ लोक-कथाओं का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आज सन्ताल आदिवासी गाँव में घर की देहरी, आंगन या चौपाल पर बैठ वृद्ध लोग कभी आपबीती तो कभी जगबीती सुनाते रहते हैं और सुनने वाला व्यक्ति प्रत्युत्तर में हुँकार भरता रहता है। अधिकांश लोक-कथाएं गद्यात्मक होती हैं। कहीं-कहीं किसी कथा में दो-चार पंक्तियों के गीत भी गाकर सुनाए जाते हैं। कहानी के अंत तक जिज्ञासा बनी रहती है, जिसमें श्रोता दत्तचित्त होकर कहानी समाप्त होने पर ही सन्तोष लाभ प्राप्त करता है। कथा कहने वाला भी कथा कहने में उतनी ही रुचि लेता है और पूरा किए बिना उसे चैन नहीं मिलता।

कुल मिलाकर सन्थाली लोक-कथाएं सन्ताल आदिवासी समाज का दर्पण हैं, जिसमें झांककर उनके जीवन का वास्तविक चेहरा देखा जा सकता है।

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