एक जमाने की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में कार्टून कोना डब्बूजी के रचनाकार एवं कई लोकप्रिय साहित्यिक कृतियों के रचयिता आबिद सुरती पिछले तीन साल से हर रविवार को सुबह नौ बजे अपने साथ एक प्लम्बर (नल ठीक करनेवाला) एवं एक महिला सहायक (चूंकि घरों में अक्सर महिलाएं ही दरवाजा खोलती हैं) लेकर निकलते हैं, और तब तक घर नहीं लौटते, जब तक किसी एक बहुमंजिला इमारत के सभी घरों के टपकते नलों की मरम्मत करवाकर उनका टपकना बंद नहीं करवा देते। मुंबई के पांचसितारा होटलों में अक्सर अजब-गजब चीजें देखने को मिल जाती हैं। ऐसा ही एक नजारा कुछ दिन पहले सामने आया, जब दुनिया में पानी बचाने की मुहिम चलानेवाली एक संस्था ने शाम को मीडिया के सामने अपना कारोबार पेश किया। कंपनी के कर्ता-धर्ताओं के साथ वहां सिनेमा जगत की मशहूर हस्तियां भी थीं, जो शायद भविष्य में जलसंरक्षण पर कोई फिल्म बनाकर आस्कर अवार्ड की किसी श्रेणी में नामित होने का स्वांग रचती दिखाई देंगी। हो सकता है, जल संरक्षण के नाम पर गंभीर प्रयास करने के एवज में उन्हें मैगसेसे या नोबल जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाज दिया जाए। प्रेस कॉन्फ्रेंस के उपरोक्त स्वांग के बाद पांच सितारा संस्कृति के एक जरूरी रिति-रिवाज़ के रूप में लगभग सभी ऊंचे ब्रांडों की व्हिस्कियां, रमें, वोदकाएं और वाइनें उसी तरह बहती नजर आईं, जैसे भारत की धरती पर कभी गंगा, यमुना, कावेरी और सरस्वती बहती थीं (आज तो इनके नामधारी नाले ही बहते दिखते हैं)।
जाहिर है, दुनिया में जल संरक्षण के लिए इतना बड़ा और गंभीर प्रयास करने वाले अरबों रुपए से कम क्या खर्च कर रहे होंगे। लेकिन अफसोस इस बात का रहा कि इस प्रकार की मुहिम में लगे लोगों को मुंबई महानगर के ही एक कोने में रामसेतु बनते समय गिलहरी के जैसी मेहनत और सार्थक प्रयास (जल संरक्षण के लिए) करनेवाले आबिद सुरती का नाम तक पता नहीं था, काम तो दूर की बात है।
अब बात करते हैं आबिद सुरती की। एक जमाने की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में कार्टून कोना डब्बूजी के रचनाकार एवं कई लोकप्रिय साहित्यिक कृतियों के रचयिता आबिद सुरती पिछले तीन साल से हर रविवार को सुबह नौ बजे अपने साथ एक प्लम्बर (नल ठीक करनेवाला) एवं एक महिला सहायक (चूंकि घरों में अक्सर महिलाएं ही दरवाजा खोलती हैं) लेकर निकलते हैं, और तब तक घर नहीं लौटते, जब तक किसी एक बहुमंजिला इमारत के सभी घरों के टपकते नलों की मरम्मत करवाकर उनका टपकना बंद नहीं करवा देते। खुद को सिर्फ 75 वर्ष का नौजवान कहनेवाले आबिद सुरती इस मुहिम के पहले साल में ही एक अनुमान के मुताबिक 4,14,000 लीटर पानी बरबाद होने से बचा चुके हैं। तब से अब तक दो वर्ष और बीत चुके हैं। जिसके अनुसार पानी की बचत का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। सुरती का मानना है कि इस प्रकार के प्रयासों से यदि बूंद बचेगी तो गंगा भी बच जाएगी। इसलिए पहले एक-एकबूंद बचाने का प्रयास करना चाहिए।
मुंबई के डोंगरी इलाके में बचपन गुजार चुके आबिद सुरती को उन दिनों किसी-किसी दिन 20 लीटर पानी में ही पूरे दिन का गुजारा करना पड़ता था। क्योंकि साझे के नल में इससे ज्यादा पानी मारामारी करके भी नहीं मिल पाता था। पानी की यह तंगी राजस्थान में एक कलश पानी के लिए मीलों का सफर तय करनेवाली महिलाओं की जिंदगी का अनुभव कराने जैसी थी। इसलिए मुंबई में आएदिन फटनेवाली पानी की पाइपों एवं टैंकरों से गिरते पानी को देखकर शांत व कलाकार स्वभाव के सुरती का मन भी विचलित होने लगता था। लेकिन इन पाइपों या टैंकरों से बहते पानी को रोक पाना उनके वश में नहीं था। लेकिन एक दिन किसी मित्र के घर गए सुरती को जब वहां नल से टपकता पानी दिखाई दिया तो उन्होंने सोच लिया कि इसे तो हम ठीक कर ही सकते हैं। और यहीं से हुआ उनकी – हर एक बूंद बचाओ, या मर जाओ – मुहिम का आगाज।
मुंबई से सटे ठाणे जिले के मीरा रोड के निवासी सुरती अब अपने क्षेत्र की बहुमंजिला इमारतों के सेक्रेटरियों से मिलकर उनकी बिल्डिंग के सभी फ्लैटों में जाने की अनुमति लेते हैं और सोसायटी के प्रवेशद्वार पर अपनी मुहिम का एक पोस्टर चिपका देते हैं। शनिवार को उस बिल्डिंग के हर फ्लैट में जाकर एक पर्चा छोड़ आते हैं, ताकि लोगों को उनकी मुहिम के बारे में पता चल जाए। अगले रविवार की सुबह एक प्लम्बर और एक महिला सहायक के साथ ( ताकि घरों में पुरुषों की अनुपस्थिति में भी जाया जा सके) के साथ जा पहुंचते हैं। हर फ्लैट में जाकर रसोई, बाथरूम एवं अन्य स्थानों पर लगे नलों की जांच करते हैं। वर्ष 2007 में उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से उन्हें गुजराती साहित्य के हिंदी अनुवाद के लिए एक लाख रुपए का पुरस्कार मिला। संयोग से वह वर्ष अंतरराष्ट्रीय जलसंरक्षण वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। उन्हीं दिनों उन्होंने किसी अखबार में यह खबर पढ़ी कि किसी नल से एक सेकेंड में यदि एक बूंद पानी टपक रहा है तो एक माह में 1000 लीटर, अर्थात बिसलरी की एक हजार बोतलों की बरबादी हो जाती है। बस यहीं से उन्होंने एक-एक बूंद बचाने का संकल्प ले लिया और हिंदी संस्थान से पुरस्कार में मिले एक लाख रुपए इस संकल्प की भेंट चढ़ा दिए। सेव एवरी ड्रॉप और ड्रॉप डेड लिखे हुए पोस्टर, पर्चे और टी शर्ट्स छपवा डालीं और निकल पड़े एक-एक बूंद बचाने।
मुंबई से सटे ठाणे जिले के मीरा रोड के निवासी सुरती अब अपने क्षेत्र की बहुमंजिला इमारतों के सेक्रेटरियों से मिलकर उनकी बिल्डिंग के सभी फ्लैटों में जाने की अनुमति लेते हैं और सोसायटी के प्रवेशद्वार पर अपनी मुहिम का एक पोस्टर चिपका देते हैं। शनिवार को उस बिल्डिंग के हर फ्लैट में जाकर एक पर्चा छोड़ आते हैं, ताकि लोगों को उनकी मुहिम के बारे में पता चल जाए। अगले रविवार की सुबह एक प्लम्बर और एक महिला सहायक के साथ ( ताकि घरों में पुरुषों की अनुपस्थिति में भी जाया जा सके) के साथ जा पहुंचते हैं। हर फ्लैट में जाकर रसोई, बाथरूम एवं अन्य स्थानों पर लगे नलों की जांच करते हैं। जहां पानी टपकता दिखाई देता है, साथ गया प्लम्बर तुरंत उस नल की मरम्मत कर देता है और सुरती साहब की टीम अगले फ्लैट की कॉलबेल दबा देती है। अब तो उनकी यह मुहिम औरों के लिए भी प्रेरणा बन गई है। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए फिल्मी दुनिया के बैडब्वाय गुलशन ग्रोवर भी एक गुड ब्वाय की तरह अपने निवास क्षेत्र जुहू में इसी प्रकार की मुहिम शुरू कर चुके हैं। सुरती चाहते हैं कि ऐसे और लोग भी सामने आएं। जहां मार्गदर्शन की जरूरत हो, वह तैयार बैठे हैं। चूंकि अपनी इस मुहिम में वह किसी से कोई मेहनताना नहीं लेते, इसलिए तीन साल पहले पुरस्कार में मिली राशि अब खत्म होने को आ रही है। लेकिन जहां चाह, वहां राह। कुछ दिनों पहले ही मुंबई के एक आयकर आयुक्त ने उनसे मिलकर इस मुहिम को जारी रखने की अपील की और पूरी आर्थिक मदद का आश्वासन भी दिया। लेकिन सुरती को इस मुहिम के लिए कहीं से भी आया हुआ धन मंजूर नहीं था। लिहाजा आयुक्त महोदय ने अपनी गाढ़ी कमाई से 5000 रुपए सुरती को दिए और अपने जैसे 11 दानदाताओं से उन्हें जोड़ने का आश्वासन भी दिया। ताकि अगले बारह महीने उनकी यह मुहिम जारी रह सके। वास्तव में महीने के चार या पांच रविवारों को एक प्लम्बर व एक महिला सहायक पर खर्च करने के लिए फिलहाल इतने ही रुपयों की जरूरत भी पड़ती है। उन्हें व्हिस्कियों, रमों और वाइनों की गंगा थोड़ी बहानी है।
(लेखक जाने-माने पत्रकार हैं)
जाहिर है, दुनिया में जल संरक्षण के लिए इतना बड़ा और गंभीर प्रयास करने वाले अरबों रुपए से कम क्या खर्च कर रहे होंगे। लेकिन अफसोस इस बात का रहा कि इस प्रकार की मुहिम में लगे लोगों को मुंबई महानगर के ही एक कोने में रामसेतु बनते समय गिलहरी के जैसी मेहनत और सार्थक प्रयास (जल संरक्षण के लिए) करनेवाले आबिद सुरती का नाम तक पता नहीं था, काम तो दूर की बात है।
अब बात करते हैं आबिद सुरती की। एक जमाने की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में कार्टून कोना डब्बूजी के रचनाकार एवं कई लोकप्रिय साहित्यिक कृतियों के रचयिता आबिद सुरती पिछले तीन साल से हर रविवार को सुबह नौ बजे अपने साथ एक प्लम्बर (नल ठीक करनेवाला) एवं एक महिला सहायक (चूंकि घरों में अक्सर महिलाएं ही दरवाजा खोलती हैं) लेकर निकलते हैं, और तब तक घर नहीं लौटते, जब तक किसी एक बहुमंजिला इमारत के सभी घरों के टपकते नलों की मरम्मत करवाकर उनका टपकना बंद नहीं करवा देते। खुद को सिर्फ 75 वर्ष का नौजवान कहनेवाले आबिद सुरती इस मुहिम के पहले साल में ही एक अनुमान के मुताबिक 4,14,000 लीटर पानी बरबाद होने से बचा चुके हैं। तब से अब तक दो वर्ष और बीत चुके हैं। जिसके अनुसार पानी की बचत का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। सुरती का मानना है कि इस प्रकार के प्रयासों से यदि बूंद बचेगी तो गंगा भी बच जाएगी। इसलिए पहले एक-एकबूंद बचाने का प्रयास करना चाहिए।
मुंबई के डोंगरी इलाके में बचपन गुजार चुके आबिद सुरती को उन दिनों किसी-किसी दिन 20 लीटर पानी में ही पूरे दिन का गुजारा करना पड़ता था। क्योंकि साझे के नल में इससे ज्यादा पानी मारामारी करके भी नहीं मिल पाता था। पानी की यह तंगी राजस्थान में एक कलश पानी के लिए मीलों का सफर तय करनेवाली महिलाओं की जिंदगी का अनुभव कराने जैसी थी। इसलिए मुंबई में आएदिन फटनेवाली पानी की पाइपों एवं टैंकरों से गिरते पानी को देखकर शांत व कलाकार स्वभाव के सुरती का मन भी विचलित होने लगता था। लेकिन इन पाइपों या टैंकरों से बहते पानी को रोक पाना उनके वश में नहीं था। लेकिन एक दिन किसी मित्र के घर गए सुरती को जब वहां नल से टपकता पानी दिखाई दिया तो उन्होंने सोच लिया कि इसे तो हम ठीक कर ही सकते हैं। और यहीं से हुआ उनकी – हर एक बूंद बचाओ, या मर जाओ – मुहिम का आगाज।
मुंबई से सटे ठाणे जिले के मीरा रोड के निवासी सुरती अब अपने क्षेत्र की बहुमंजिला इमारतों के सेक्रेटरियों से मिलकर उनकी बिल्डिंग के सभी फ्लैटों में जाने की अनुमति लेते हैं और सोसायटी के प्रवेशद्वार पर अपनी मुहिम का एक पोस्टर चिपका देते हैं। शनिवार को उस बिल्डिंग के हर फ्लैट में जाकर एक पर्चा छोड़ आते हैं, ताकि लोगों को उनकी मुहिम के बारे में पता चल जाए। अगले रविवार की सुबह एक प्लम्बर और एक महिला सहायक के साथ ( ताकि घरों में पुरुषों की अनुपस्थिति में भी जाया जा सके) के साथ जा पहुंचते हैं। हर फ्लैट में जाकर रसोई, बाथरूम एवं अन्य स्थानों पर लगे नलों की जांच करते हैं। वर्ष 2007 में उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से उन्हें गुजराती साहित्य के हिंदी अनुवाद के लिए एक लाख रुपए का पुरस्कार मिला। संयोग से वह वर्ष अंतरराष्ट्रीय जलसंरक्षण वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। उन्हीं दिनों उन्होंने किसी अखबार में यह खबर पढ़ी कि किसी नल से एक सेकेंड में यदि एक बूंद पानी टपक रहा है तो एक माह में 1000 लीटर, अर्थात बिसलरी की एक हजार बोतलों की बरबादी हो जाती है। बस यहीं से उन्होंने एक-एक बूंद बचाने का संकल्प ले लिया और हिंदी संस्थान से पुरस्कार में मिले एक लाख रुपए इस संकल्प की भेंट चढ़ा दिए। सेव एवरी ड्रॉप और ड्रॉप डेड लिखे हुए पोस्टर, पर्चे और टी शर्ट्स छपवा डालीं और निकल पड़े एक-एक बूंद बचाने।
मुंबई से सटे ठाणे जिले के मीरा रोड के निवासी सुरती अब अपने क्षेत्र की बहुमंजिला इमारतों के सेक्रेटरियों से मिलकर उनकी बिल्डिंग के सभी फ्लैटों में जाने की अनुमति लेते हैं और सोसायटी के प्रवेशद्वार पर अपनी मुहिम का एक पोस्टर चिपका देते हैं। शनिवार को उस बिल्डिंग के हर फ्लैट में जाकर एक पर्चा छोड़ आते हैं, ताकि लोगों को उनकी मुहिम के बारे में पता चल जाए। अगले रविवार की सुबह एक प्लम्बर और एक महिला सहायक के साथ ( ताकि घरों में पुरुषों की अनुपस्थिति में भी जाया जा सके) के साथ जा पहुंचते हैं। हर फ्लैट में जाकर रसोई, बाथरूम एवं अन्य स्थानों पर लगे नलों की जांच करते हैं। जहां पानी टपकता दिखाई देता है, साथ गया प्लम्बर तुरंत उस नल की मरम्मत कर देता है और सुरती साहब की टीम अगले फ्लैट की कॉलबेल दबा देती है। अब तो उनकी यह मुहिम औरों के लिए भी प्रेरणा बन गई है। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए फिल्मी दुनिया के बैडब्वाय गुलशन ग्रोवर भी एक गुड ब्वाय की तरह अपने निवास क्षेत्र जुहू में इसी प्रकार की मुहिम शुरू कर चुके हैं। सुरती चाहते हैं कि ऐसे और लोग भी सामने आएं। जहां मार्गदर्शन की जरूरत हो, वह तैयार बैठे हैं। चूंकि अपनी इस मुहिम में वह किसी से कोई मेहनताना नहीं लेते, इसलिए तीन साल पहले पुरस्कार में मिली राशि अब खत्म होने को आ रही है। लेकिन जहां चाह, वहां राह। कुछ दिनों पहले ही मुंबई के एक आयकर आयुक्त ने उनसे मिलकर इस मुहिम को जारी रखने की अपील की और पूरी आर्थिक मदद का आश्वासन भी दिया। लेकिन सुरती को इस मुहिम के लिए कहीं से भी आया हुआ धन मंजूर नहीं था। लिहाजा आयुक्त महोदय ने अपनी गाढ़ी कमाई से 5000 रुपए सुरती को दिए और अपने जैसे 11 दानदाताओं से उन्हें जोड़ने का आश्वासन भी दिया। ताकि अगले बारह महीने उनकी यह मुहिम जारी रह सके। वास्तव में महीने के चार या पांच रविवारों को एक प्लम्बर व एक महिला सहायक पर खर्च करने के लिए फिलहाल इतने ही रुपयों की जरूरत भी पड़ती है। उन्हें व्हिस्कियों, रमों और वाइनों की गंगा थोड़ी बहानी है।
(लेखक जाने-माने पत्रकार हैं)
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