समस्याओं के भँवर से राज्य को उबारना बड़ी चुनौती

आपदा
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देहरादून। देखते ही देखते पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड 17 साल का सफर पूरा कर चुका है।


हालाँकि प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में उत्तराखण्ड को धनी राज्य माना जाता है। पानी, पर्यटन, जड़ी-बूटी के मामले में राज्य के पास काफी सम्भावनाएँ विद्यमान तो हैं, लेकिन नीति नियामकों ने इन सबकी अनदेखी कर ज्वलंत समस्याओं के समाधान के बजाए केवल इसे वाद-विवाद का मुद्दा बनाने में ही दिलचस्पी दिखाई।

इन सालों में उत्तराखण्ड का वर्षों पुराना दर्द खत्म होने की बजाए उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और आज वही दर्द अब एक खतरनाक नासूर बनने की ओर अग्रसर है। अफसोसजनक बात यह है कि इस नवोदित राज्य के सत्ताधीश नासूर के घावों से कराहते इस राज्य के दर्द को कम करने की जगह अपनी करतूतों से दिन-ब-दिन बढ़ाने का ही काम करते आ रहे हैं। जनता के लम्बे संघर्षों के बाद पहाड़वासियों को अपना राज्य तो जरूर मिला, लेकिन दुर्भाग्य यही रहा कि यह बड़ी आसानी से लुटेरों के हाथ में चला गया, जिसकी कीमत चुकाने को आज राज्यवासी अभिशप्त हैं।

उत्तराखण्ड राज्य को बने 17 साल से अधिक का समय बीत चुका है। इन 17 सालों में हवाई घोषणाएँ, विकास के नाम पर वायदों की लम्बी-चौड़ी श्रृंखलाएँ आश्वासनों के विशाल अम्बार राज्य की तस्वीर और तकदीर बदलने का ताना-बाना, भोली-भाली जनता के सामने रखा गया और भी बहुत कुछ ना जाने क्या-क्या परन्तु यहाँ कुछ भी नहीं बदला, यदि कुछ बदला तो राज्य के भीतर मुखिया ही बदले 8 मुख्यमंत्रियों के बाद अब 9वें मुखिया के रूप में त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कमान सम्भाल ली, लेकिन राज्य की तस्वीर आज भी ज्यों की त्यों नजर आती है। दूरस्थ पहाड़ों के गाँव विकास की बाट जोहते-जोहते खाली हो चले हैं।

सूनी गाँव की गलियाँ वीरान सीढ़ीदार खेत अधिकतर स्थानों पर अपनी हरियाली खो चुके हैं। पहाड़ की पीड़ा यथावत है, पलायन के दंश ने गाँव के गाँव वीरान कर दिए हैं। वीरानी का कारण स्पष्ट है, चहुँमुखी विकास का न होना। 17 वर्षों के भीतर कागजों में भले ही राज्य का बेहतर विकास हुआ हो लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। स्वार्थपरक राजनीति के गठजोड़, आपसी खींचातानी, पद के प्रति राजनेताओं की लोलुपता ने विकास के मार्गों पर बहुत बड़ी बाधा खड़ी कर दी है और समूचा क्षेत्र विकास की ओर मुँह ताक रहा है।

उत्तराखण्ड 9 नवम्बर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया भाजपा सरकार में नित्यानन्द स्वामी 9 नवम्बर, 2000 को इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने और 29 अक्टूबर 2001 तक रहे आपसी खींचातान के बाद भाजपा के ही कोश्यारी ने दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में 30 अक्टूबर 2001 से कार्यभार सम्भाला। लोगों की आशाओं को नए पंख लगे, लेकिन आशाओं पर तुषारापात हुआ, बेरोजगारों की फौज बढ़ती गई। लोग घर छोड़ते गए, चहुँमुखी विकास के नाम पर सिर्फ भ्रष्ट नेताओं व अफसरों का विकास हुआ। नतीजन 1 मार्च 2002 को भाजपा गई और कांग्रेस आई। अनुभवी कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में 2 मार्च, 2002 को कार्यभार सम्भाला।

उनके अनुभवों से राज्य में विकास तो हुए लेकिन सीमान्त क्षेत्र विकास से अछूते रहे। लालबत्तियों की बन्दरबाट के सहारे जैसे-तैसे अस्थिरता के दौर से गुजरकर तिवारी ने पाँच साल जैसे-तैसे पूरे किए। इसके पश्चात दूसरी निर्वाचित सरकार भाजपा की आई और जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने 7 मार्च 2007 को चौथे मुखिया के रूप में राज्य की कमान सम्भाली। ईमानदार छवि के कारण लोगों में राज्य की बेहतर दिशा के प्रति आशाओं का नया संचार हुआ किन्तु आपसी खींचातान व विरोध के चलते उन्हें इस पद से 26 जून 2009 को जाना पड़ा।

पाँचवें मुखिया के रूप में 27 जून 2009 को डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक की ताजपोशी हुई, भाजपा ने पार्टी की फजीहत होते देख पुनः सवा दो साल बाद 11 सितम्बर 2011 को जनरल खण्डूड़ी को छठे मुखिया के रूप में नवाजा, जिनका कार्यकाल 13 मार्च 2012 तक रहा। बाद में चुनावी समीकरण में आगे निकलकर कांग्रेस ने सरकार बनाई, कांग्रेस ने निर्दलीयों के सहारे सरकार बनाई और विजय बहुगुणा 13 मार्च 2012 में सातवें सीएम बने। आपदा का दंश, भ्रष्टाचार का बोलबाला, घपले घोटालों की बाढ़ इनके कार्यकाल की सुर्खियाँ रही।

बढ़ते असन्तोष व आगामी लोकसभा चुनावों में हारने की सम्भावनाओं को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने 31 जनवरी 2014 को विजय बहुगुणा को बदलकर केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत के हाथों राज्य की बागडोर सौंप दी, जिनका कार्यकाल 1 फरवरी 2014 से विभिन्न उतार-चढ़ाव के बाद वे और उनकी पार्टी 2017 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गई। भाजपा प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में आई और अब हरीश रावत के जाने के बाद त्रिवेन्द्र रावत ने राज्य की कमान सम्भाली है।

राजनीति के इस अग्निपथ पर काटों भरे ताज को पहनकर 9वाँ मुख्यमंत्री किस प्रकार राज्य को दशा व दिशा देगा यह तो समय ही बतलाएगा। बहरहाल डबल इंजन की सरकार में विकास की गति धीमी है, लेकिन इन 17 सालों में पहाड़ बचाओ, गाँव बचाओ, हिमालय बचाओ, गंगा बचाओ, नदी बचाओ, इस तरह के नारे सुन-सुनकर पहाड़वासी तंग आ चुके हैं। उनकी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि वर्षों से ऐसे नारे लगाने वाले पहाड़ की उक्त समस्याओं के मूल कारणों को समझने की कोशिश आखिर क्यों नहीं करते हैं।

ऐसा लगता है कि गला फाड़-फाड़कर नारे लगाने वाले ऐसे तमाम लोग या तो पहाड़ की उक्त प्रवृत्ति की किसी भी समस्या के मूल में निहित कारणों के बारे में कुछ नहीं जानते या फिर अपनी-अपनी दुकानें चलाने के लिये जानबूझकर आधी-अधूरी बातें करके पहाड़ के तथाकथित हितैषी बनने के नए-नए स्वांग रचते रहते हैं। उत्तराखण्ड में या फिर उत्तराखण्ड से बाहर जो भी लोग पहाड़ को बचाना चाहते हैं, यहाँ के गाँवों को बचाना चाहते हैं, यहाँ की नदियों को या फिर यहाँ के पर्यावरण अथवा पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने की इच्छा रखते हों, उन्हें एक बात भली-भाँति समझ लेनी चाहिए कि इसके लिये सबसे पहले पहाड़ के गाढ़-गधेरों (पहाड़ी जलस्रोत, झरने आदि) को बचाना होगा और इस दिशा में महज कोरे नारे नहीं लगाने होंगे, बल्कि पहाड़ों की ऊँची कन्दराओं से, पहाड़ी ढलानों के गधेरों से निकलने वाले जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने तथा उन्हें समृद्ध बनाने के लिये धरातल पर काम करना होगा।

इन शुभ चिन्तकों को यह बात भी समझनी पड़ेगी कि बिना गाढ़-गधेरों के संरक्षण के, ये पहाड़, यहाँ के गाँव, यहाँ की नदियाँ, यहाँ का पर्यावरण तथा यहाँ का पारिस्थितिकी तंत्र किसी भी सूरत में नहीं बचाए जा सकते। एक कहावत है- एको साधे सब सधें, अर्थात एक मूल समस्या हलकर दो तो बाकी सम्बन्धित समस्याएँ स्वतः ही हल हो जाती हैं।

यह सर्वविदित है कि आज ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और हिमालय में हिम का अभाव हो रहा है। ऐसे में यहाँ के गाढ़-गधेरों के महत्त्व को समझे बिना ये बचाओ वो बचाओ के नारों से पहाड़ का भला करने की ठेकेदारी लिये ये तमाम लोग भले ही किसी राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार को झटकने में कामयाब हो जाएँ, लेकिन उपरोक्त में से कोई भी चीज बचा पाना इनके सामर्थ्य की बात नहीं है, क्योंकि यह सब बिना पेट्रोल-पानी के बस, कार आदि वाहन दौड़ाने जैसी बात है। ऐसे लोग उपरोक्त समस्याओं के बहाने स्वयं को प्रचारित करके चाहे जो भी हासिल करना चाहते हों, लेकिन इतना तय है कि वे पहाड़ के गाँवों को, यहाँ की नदियों को, पर्यावरण को तथा पारिस्थितिकी तंत्र को कभी नहीं बचा सकते हैं।

सरकारों ने भी वर्षों से ऐसे ही लोगों की तरह पहाड़ का शुभचिन्तक होने के न जाने कितने स्वांग रचे हैं और परिणाम आज दुनिया के सामने है। पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र तथा नदी बचाओ जैसे अधकचरी सोच दरअसल महानगरीय संस्कृति की देन है, जिन्हें हिमालयी क्षेत्रों तथा पर्वतीय अंचलों की भूगर्भीय संरचना तथा यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों के स्वभाव की कोई जानकारी नहीं है। विशाल पर्वतीय वन क्षेत्र आज ऐसी ही सोच के चलते प्राकृतिक जलस्रोतों, वन्य जीवों तथा शुद्ध पर्यावरण से विहीन होते जा रहे हैं।

भारत समेत दक्षिण पूर्वी एशिया की अधिकतर नदियाँ हिमालय या तिब्बत के पठारीय ग्लेशियरों से ही निकलती हैं। बदलती पर्यावरणीय स्थितियों में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना लगातार जारी है। यही कारण भी है कि वैज्ञानिकों को वर्ष 2030 तक सभी ग्लेशियरों के पिघल जाने की चिन्ता सताये जा रही है, लेकिन कोई भी सरकार या फिर हिमालय के शुभचिन्तक भारत के इन हिमालयी क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों को बचाने के लिये यहाँ के पर्वतीय इलाकों में तथा वन्य क्षेत्रों में मौजूद सहस्त्रों गाढ़-गधेरों के महत्त्व को समझने को तैयार ही नहीं हैं।

जिस तेजी के साथ ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उससे यह साफ है कि यदि उन्हें बचाने के व्यावहारिक प्रयास नहीं हुए तो उसके गम्भीर पर्यावरणीय दुष्परिणाम और गम्भीर जल संकट से समूचे देश को ही जूझना होगा। वस्तुतः सदियों से ही गाढ़-गधेरों के अस्तित्व पर ही नदियों, वन्य जीवों तथा पारिस्थितिकी तंत्र का अस्तित्व निर्भर रहा है। नदियों को सदाबहार रखने की जिम्मेदारी भी इन्हीं गाढ़-गधेरों पर थी, क्योंकि इन्हीं का जल मिलकर नदी के रूप में सामने आता है।

पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल से लेकर सिंचाई कार्यों में भी सैकड़ों वर्षों से ये गाढ़-गधेरे ही अपना योगदान देते आ रहे हैं। बदलते पर्यावरणीय परिवेश में इनका अस्तित्व आज संकट में है। उस पर अव्यावहारिक व अदूरदर्शी विकास नीतियों के चलते पहाड़ी इलाकों में हजारों गधेरे, जिनमें बारहों महीने पानी देखा जाता था, अब पूरी तरह सूख गए हैं और बचे-खुचे जलस्रोत भी अब लुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं।

इन जलस्रोतों का अतीत बेहद समृद्ध रहा है। जिन इलाकों में वन क्षेत्र ठीक अवस्था में है अर्थात जहाँ सीधे तौर पर प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं की गई है वहाँ के गाढ़-गधेरों में आज भी समुचित जल देखा जा सकता है। उनके तीव्र जल प्रवाह के कारण ही नदियों में जल की मात्रा बनी हुई है। गाढ़-गधेरों के अस्तित्व पर संकट का सीधा अर्थ है, नदियों, गाँवों, पर्यावरण तथा कुल मिलाकर पहाड़ के अस्तित्व पर संकट। विकास के नाम पर मानव का प्रकृति पर बढ़ता हस्तक्षेप तेजी से विनाश की ओर ले जा रहा है।

यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि पहाड़ के इन गाढ़-गधेरों का उद्गम किसी भी ग्लेशियर से नहीं बल्कि वनाच्छादित क्षेत्रों में स्थित प्राकृतिक जलस्रोतों से होता है। अनेकों जलस्रोतों के परस्पर मिलन से ही नदियाँ अस्तित्व में आती हैं। यह सत्य है कि ग्लेशियरों से आने वाली नदियों की यात्रा में यदि सैकड़ों गाढ़-गधेरे शामिल न हों तो उनका महत्त्व निश्चित रूप से समझ आने लगेगा। तमाम तरह के प्रदूषण की बातकर नदियों में नीर का संसार देख व समझ रहे लोगों को इन गाढ़-गधेरों के महत्त्व को समझना चाहिए। ग्लेशियरों के साथ ही गाढ़-गधेरों को बचाए रखने के लिये वन क्षेत्र को समृद्ध बनाए रखने की कोशिश जरूरी है।

आपादा पर उत्तराखंड की आवाज हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ भूगर्भीय संरचना की दृष्टि से काफी संवेदनशील माने जाते हैं। उत्तराखण्ड में आई आपदा में व्यापक स्तर पर जान-माल का नुकसान होने की एक बड़ी वजह भू-स्खलन रही है, जबकि विस्फोटकों का व्यापक प्रयोग इन भू-स्खलनों में हुई बढ़ोत्तरी का एक बड़ा कारण है। विस्फोटकों का सर्वाधिक प्रयोग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें बनाने के लिये किया जाता है।

टनकपुर-धारचूला सीमान्त राजमार्ग के चौड़ीकरण में पिछले कई वर्षों से भारी मात्रा में विस्फोटकों का प्रयोग किया गया, जिसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। इसके अलावा हल्द्वानी-अल्मोड़ा, नैनीताल-रानीखेत, रामनगर-पौड़ी, रामनगर-कर्णप्रयाग आदि सड़क मार्गों में भी पिछले पाँच सालों में कई हजार किलोग्राम से ज्यादा विस्फोटक और डेटोनेटरों का प्रयोग किया जा चुका है। अभी तक इस आपदा में स्थानीय लोगों को हुए नुकसान का ही पूरा आकलन नहीं हो सका है, पर्यावरण को हुए नुकसान के आकलन में शायद वर्षों लग जाएँ।

हालाँकि प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में उत्तराखण्ड को धनी राज्य माना जाता है। पानी, पर्यटन, जड़ी-बूटी के मामले में राज्य के पास काफी सम्भावनाएँ विद्यमान तो हैं, लेकिन नीति नियामकों ने इन सबकी अनदेखी कर ज्वलंत समस्याओं के समाधान के बजाए केवल इसे वाद-विवाद का मुद्दा बनाने में ही दिलचस्पी दिखाई।

प्राकृतिक संसाधनों का जब-जब क्षेत्र के विकास के लिये दोहन की बात होती है तो खनिज सम्पदा मुख्य मुद्दा होता है, लेकिन अधिकांशतः देखा गया है कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों को हौव्वा मानकर आज के वैज्ञानिक तथा यांत्रिक युग में भी यहाँ की खनिज सम्पदा का पूरा सर्वेक्षण ही नहीं हो पाया है। देखने में आता है कि खनिज अयस्क के परिवहन के लिये कई जगह प्रोसेसिंग यूनिट तो लगाई गई, लेकिन उस समय इस बात को नजरअन्दाज कर दिया गया कि इससे पर्यावरणीय तौर पर क्षेत्रवासियों को कई परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं।

फलतः भूक्षरण होना आम बात हो गई। जंगल कटे तो वायु प्रदूषण के साथ-साथ जल तथा मिट्टी भी प्रदूषित होती गई, जिससे एक तरफ तो लगातार भूखंड क्षरित होने लगे, वहीं दूसरी तरफ भूमि की उर्वरता तथा उत्पादकता भी समाप्त होती गई। अकेले चूने के पत्थरों के खदान तथा चूने के भट्टों से निकली विषैली गैस से लोगों को तमाम तरह की बीमारियाँ झेलनी पड़ती हैं। सरकारी तौर पर अवैज्ञानिक दोहन के बावजूद उत्तराखण्ड से करोड़ों रुपए की आय होती है। जिस तरह से क्षेत्र में जिप्सम, संगमरमर, मैग्नेसाइट, रॉक फास्फेट, चूना पत्थर, सॉफ्ट स्टोन, डोलामाइट आदि की प्रचुर सम्पदा है, उससे इसे आय के सन्तोषप्रद तो नहीं माना जाता लेकिन पर्यावरण के अनुकूल वैज्ञानिक तरीकों से खनिज सम्पदा का दोहन होने लगे तो वार्षिक आय में काफी बढ़ोत्तरी हो सकती है।

लापरवाही के कारण उत्तराखण्ड के जंगलों में लगती आग कम समय, कम लागत तथा बागवानी (फल तथा सब्जी) उद्योग की भी सरकार ने जितनी उपेक्षा की है, उससे केवल उत्पादकों के उत्साह में ही कमी नहीं है बल्कि यही स्थिति रही तो साधारण से समझे जाने वाले इसी संसाधन से राज्य सरकार की आय को नुकसान पहुँच सकता है। इसके लिये राज्य सरकार के साथ-साथ दलाल और व्यापारी अधिक दोषी हैं जो उत्पादकों की मजबूरी का फायदा उठाकर बहुत ही सस्ते दामों पर इनसे फल एवं सब्जी खरीदकर खुद मोटा मुनाफा अर्जित करते हैं। इन लोगों की आपसी मिलीभगत के कारण भी किसानों का जमकर शोषण होता है। यदि उत्पादन का उन्हें उचित दाम मिले, शीतगृहों की व्यवस्था हमें फलों तथा सब्जियों से तैयार अन्य खाद्य पदार्थ तथा पेय पदार्थों के निर्माण के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग स्थापना की मानसिकता की प्रोत्साहन, आर्थिक सहायता तथा प्रशिक्षण मिले तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्रतिवर्ष उत्पादन में 20 से 30 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है।

उत्तराखण्ड में वनों की अपार सम्भावनाएँ हैं। यहाँ चीड़, सागौन, देवदार, शीशम, साल, बुरांश, सेमल, बांझ, साइप्रस, फर तथा स्प्रूश आदि वृक्षों से आच्छादित इस वन क्षेत्र से ईंधन तथा चारे के अतिरिक्त इमारती तथा फर्नीचर के लिये लकड़ी, लीसा, कागज इत्यादि का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जा सकता है। इसके अलावा वनों में जड़ी-बूटियाँ काफी मात्रा में मौजूद हैं। जरूरत है इनके संवर्द्धन की। अगर राज्य सरकार जड़ी-बूटी की तरफ नीति में संशोधन करे तो राजस्व में अच्छी खासी वृद्धि हो सकती है। आज विश्व बाजार में फूलों की बड़ी माँग है और उत्तराखण्ड में भी सरकार फूल उद्योग को बढ़ावा देने की बात तो कर रही है लेकिन धरातली क्षेत्र में कार्य सन्तोषजनक नहीं है।

आश्चर्यजनक बात यह है कि क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी होने के बावजूद भी इस व्यवसाय से लोग अभी भी अनजान बने हुए हैं। क्षेत्र में आज के प्रचलन के महँगे फूलों में ग्लाइडोरस, रजनीगंधा, गुलाब, बेला, चमेली, डहेलिया, जरवेरा, आर्किड, गुलदाऊदी, गेंदा आदि का उत्पादन किया जा सकता है। गेंदा पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वथा पाया जाता है। बहरहाल जब तक राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये ठोस नीति नहीं अपनाई जाती, तब तक राज्य में विकास की सम्भावनाएँ नहीं बन पाएँगी। कुल मिलाकर सरकार को इस क्षेत्र में पहल करनी पड़ेगी।

पर्यावरण के प्रभावित होने का सीधा प्रभाव पशुपालन पर पड़ा और यहाँ की रीढ़ गौवंश की दुर्गति होती गई और आज भी यह क्रम अनवरत रूप से जारी है। विगत सत्रह सालों में गौ-तस्करी का गढ़ बनकर राज्य का बुरा हाल रहा। पर्वतीय क्षेत्रों से व्यापक पैमाने पर हो रही गो-वंशीय पशुओं की तस्करी पर अंकुश लगता नहीं दिख रहा है। गो-तस्करी की आए दिन की घटनाएँ यही दर्शाती हैं कि पर्वतीय अंचलों में सक्रिय गो-तस्कर बेखौफ होकर अपने मकसद को अंजाम देते आ रहे हैं। इतने संवेदनशील मामले में प्रशासन की उदासीनता, क्षेत्रीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की तटस्थता व आम आदमी लाचारी बेहद हैरान करने वाली है। यदि यही सब चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पहाड़ के गाँवों से गो-वंश पूरी तरह गायब हो जायेगा।

यह बात कई लोगों को नागवार गुजर सकती है, परन्तु पर्वतीय अंचलों की वर्तमान दशा-दिशा, सामाजिक व सांस्कृतिक परम्पराओं में अश्रद्धा, धर्म व आध्यात्म में अरुचि, जीवन शैली में बदलाव तथा कुल मिलाकर सोच में आ रही विकृति जैसे लक्षण भविष्य की तस्वीर स्पष्ट करने लगे हैं। उस पर राजनीतिज्ञों की नीयत, नीतियाँ, संवेदनहीनता, खुदगर्जी और कुल मिलाकर अंग्रेजों के नक्शे कदम पर चलने की होड़ के चलते देवभूमि का स्वरूप विकृत होने व पहचान मिटने का संकट गहरा गया है। राज्य का पशुपालन विभाग तो जैसे कहीं अस्तित्व में ही नहीं है। मवेशियों की तेजी से गिरती संख्या से विभागीय अधिकारियों को कोई लेना-देना नहीं है। सरकार व विभाग की इस हद तक उदासीनता जितनी चौंकाने वाली है, उससे कहीं अधिक चिन्ताजनक भी है।

यह सर्वविदित है कि सदियों से ही पहाड़ में पशुपालन व कृषि यहाँ के लोगों की आर्थिकी व जीवन यापन का प्रमुख आधार रहे हैं और इन दोनों ही आर्थिक स्तम्भों पर यहाँ के निवासियों की निर्भरता रही है। जबकि कृषि व पशुपालन का आधार थे यहाँ के सघन वन। अर्थात सम्पूर्ण पर्वतीय जन-जीवन पूर्णरूपेण वनों पर ही निर्भर था। जब तक इस भू-भाग में पशुपालन समृद्ध अवस्था में था, यहाँ का आर्थिक चक्र पूरी तरह सुव्यवस्थित रूप से संचालित था। आजादी के बाद नए-नए वन अधिनियमों के चलते वनों से ग्रामीणों के सदियों से चले आ रहे वनाधिकार छिन गए, जिससे यहाँ का समूचा आर्थिक तंत्र बिखर गया। उस पर सरकारों की अदूरदर्शी व अव्यावहारिक विकास नीतियों ने पहाड़ का सारा चेहरा ही बिगाड़कर रख दिया।

इस सबके चलते पहाड़ के शिक्षित, प्रशिक्षित व अशिक्षित युवा महानगरों को पलायन करने को विवश हो चले और देखते ही देखते पहाड़ों से गाँव के गाँव खाली हो गए। किसी भी सरकार ने कभी इन हालातों के कारण जानने व उनका निवारण करने की दिशा में सोचने तक की जरूरत नहीं समझी। वर्तमान में पहाड़ सिर्फ सरकारी पुर्जों, चन्द ठेकेदारों, बड़े पैमाने पर पनप उठे माफिया व नेताओं की ऐशगाह बन कर रह गया है। हर कोई पहाड़ को लूटने, खसोटने तथा यहाँ के संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ में है।

सरकारों की भ्रष्ट नीतियों की छत्र-छाया में पहाड़ की बर्बादी का खेल बेखौफ होकर खेला जा रहा है, जो अत्यधिक चिन्ताजनक है। वर्षों से इस सीमान्त क्षेत्र की उपेक्षा व बर्बादी के लिये प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जिम्मेदार राज्य सरकार व केन्द्र सरकार दोनों को ही पर्वतीय अंचलों की उत्तरोत्तर बिगड़ रही तस्वीर को संवारने की दिशा में समय रहते गम्भीरता से कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी अति संवेदनशील यह सीमान्त प्रदेश राष्ट्र प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका हमेशा की तरह पूरी निष्ठा व ईमानदारी से निभा पाने में समर्थ बना रह सके। सरकारी अस्पतालों की दशा भी इन सालों में बदतर होती गयी। उत्तराखण्ड सरकार एक तरफ राज्य के तमाम सरकारी अस्पतालों में योग्य एवं अनुभवी डॉक्टरों की तैनाती कर नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराने की बात करती रही है, वहीं दूसरी ओर इन अस्पतालों में तैनात चिकित्सकों की सुरक्षा को लेकर हमेशा से ही उदासीन रहती आई है। यही कारण है कि राज्य बनने के बाद से तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारी अस्पतालों से योग्य डॉक्टरों का नौकरी छोड़कर निजी अस्पतालों की ओर रुख करने या फिर अपने ही क्लीनिक खोलकर प्रैक्टिस करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। यह सर्वविदित है कि राज्य बनने के बाद से सैकड़ों डॉक्टर सरकारी सेवाओं से अलग हो गए। सरकारी अस्पतालों से योग्य डॉक्टरों का तेजी से हो रहे मोहभंग के पीछे यूँ तो बहुत से कारण हो सकते हैं, लेकिन डॉक्टरों के साथ तमाम छुटभैय्ये नेताओं तथा रोगियों के तिमारदारों द्वारा आए दिन की जाने वाली अभद्रता व मारपीट को इसकी प्रमुख वजह बताया जा रहा है।

पिछले सालों में ही देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर, हल्द्वानी, अल्मोड़ा, पौड़ी, रामनगर तथा काशीपुर समेत राज्य के अनेक नगरों तथा कस्बों में सरकारी डॉक्टरों के साथ होने वाली मारपीट की सैकड़ों घटनाएँ सामने आई हैं। सरकार तथा पुलिस प्रशासन द्वारा इन मामलों को कभी भी गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं समझी। हर बार आरोपियों को डाँट-डपटकर या फिर उनके खिलाफ छोटी-मोटी कार्यवाही करके मामले शान्त किए जाते रहे, लेकिन योग्य डॉक्टर धीरे-धीरे सरकार तथा प्रशासन के ढुलमुल रवैये से दुखी होकर सरकारी अस्पतालों से दूर होते चले गए जिस कारण राज्यभर के अधिकांश सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाएँ पटरी से उतरती रही हैं और नागरिक हमेशा से ही समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं से लगातार वंचित रहे हैं।

देहरादून में अपना निजी क्लीनिक चला रहे एक डॉक्टर का कहना है कि जब तक सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होगी तब तक योग्य डॉक्टर वहाँ ज्यादा दिन तक अपनी सेवाएँ नहीं दे सकेंगे। उनका कहना है कि लगातार 17 सालों तक सरकारी अस्पतालों में सेवा के दौरान उनको कई बार रोगियों के तिमारदारों की अभद्रता झेलनी पड़ी और तीन बार उनके साथ स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं की अगुवाई में तिमारदारों द्वारा मारपीट भी की गई। देहरादून के एक अन्य डॉक्टर कहते हैं कि सरकारी अस्पतालों में तमाम किस्म के छुटभैय्ये नेताओं का अनावश्यक दखल बढ़ने से माहौल लगातार बिगड़ा है, जिससे योग्य तथा ईमानदार डॉक्टरों का सरकारी अस्पतालों से मोहभंग होने लगा है।

इन 17 सालों के सफर में चार-चार सरकारें और 8 मुख्यमंत्री इस नवोदित राज्य को संवारने की ठेकेदारी ले चुके हैं, लेकिन किसने क्या किया यह सबके सामने है। अर्थात राज्य के विकास के नाम पर जो कुछ भी नाटक किए गए, उनमें राज्य के संसाधनों को बेरहमी से लूटने और बर्बाद करने की ही पटकथा तैयार की गई तथा बड़ी बेशर्मी के साथ विकृत स्क्रिप्ट लिखकर नाटकों का मंचन किया गया, जो आज भी बेरोकटोक चल रहे हैं और राज्य की जनता लूट, बर्बादी, भ्रष्टाचार, उपेक्षा, भेदभाव, बेरोजगारी तथा महँगाई जैसे तमाम तमाशों का दंश झेलने को मजबूर है।

यद्यपि राज्य की जनता अलग राज्य मिलने के बाद से ही अपने सपनों के लिये लगातार चिल्लाती आ रही है, लेकिन यह सब नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है। राज्य के नीति-नियंताओं ने आम जनता के दुख दर्दों को दूर करने की न तो कभी कोशिश की और न इसकी जरूरत समझी। शुरू से ही सरकारों ने यहाँ सिर्फ माफिया संस्कृति को संरक्षण देने तथा इसे बढ़ावा देने का ही काम किया। यही कारण है कि आज राज्य के तमाम संसाधनों पर माफिया काबिज हो चला है।

एक लम्बे सतत संघर्ष तथा शहादतों के फलस्वरूप उत्तराखण्ड राज्य का सपना साकार हो सका, परन्तु आज हम सभी इस प्रान्त में उत्तराखण्ड की जनता की आकांक्षाओं और सपनों को मरता हुआ देख रहे हैं। राज्य गठन के समय राज्य की जिस जनता की आँखों में एक विकसित भविष्य के सपने थे। आज लगभग डेढ़ दशक बाद उन्हीं आँखों में शंका और मायूसी है।

केदारनाथ त्रासदी से उत्पन्न हुए हालातों ने इस शंका और मायूसी को और अधिक बढ़ा दिया है। राज्य की जनता के सामने इस त्रासदी से यह रहस्य भी उजागर हो गया है कि उत्तराखण्ड राज्य में आज तक प्राकृतिक आपदाओं से सिमटने का कोई भी आधारभूत ढाँचा विकसित नहीं हो पाया है। रोजी-रोटी का सवाल तो खैर पहाड़ के सामने आजादी के बाद से ही मुँह बाए खड़ा है जो कि सुरसा के मुँह की भाँति सदा बड़ा ही होता गया।

उत्तराखण्ड राज्य प्राप्त आन्दोलन के दौरान क्षेत्र के विकास और उसके साथ अपनी खुशहाली का सपना संजोए, आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करने वाले ग्रामीणों ने राज्य गठन के समय एक सुखद सपना यह भी देखा था कि उन्हें और उनके अपनों को पलायन की पीड़ा और विरह से धीरे-धीरे ही सही, परन्तु मुक्ति मिल जाएगी। परन्तु आज भी उत्तराखण्ड के ग्रामीणों के लिये जीवित रहने का एकमात्र रास्ता ‘पलायन’ ही है। हालिया घटित त्रासदी ने यह रहस्य भी उजागर कर दिया है कि उत्तराखण्ड के जल, जंगल, जमीनों से बेदखल किए गए लोगों के पलायन के लिये मजबूर किया जा रहा है।

उनके पुनर्वास पर सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है। विगत लम्बे समय में यहाँ स्थानीय स्तर पर पनपा माफिया ठेकेदार, भू-माफिया, नौकरशाह और राजनेताओं का नापाक गठबन्धन वर्तमान में सत्ता पर काबिज हो चुका है और यही गठबन्धन वर्तमान में विगत में घटित भयंकर त्रासदी से उबरने के लिये जूझ रहे उत्तराखण्ड को सहायता के रूप में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त पूँजी की बेशर्म दलाली पर उतर आया है।

जाहिर है कि आज हमारा संघर्ष पहले के किसी भी दौर से अधिक मुश्किल दौर में पहुँच गया है। राज्य की आम जनता के बुनियादी सवालों और विकास के वैकल्पिक एजेंडे के साथ जमीन से जुझारू संघर्षों को संचालित करना आज की माँग बन गया है। हम पलायन को तभी रोक सकते हैं जबकि हम राज्य को उसके संसाधनों पर आधारित विकास के पथ पर अग्रसर करेंगे।

आखिर हम कब तक खैरात में मिली सहायता से अपना राज्य संवारने की खाम ख्याली में रहेंगे और यह खैरात भी सत्ता के शीर्षस्थ सत्ता प्रतिष्ठान और उनके साथ नापाक तौर पर गठबन्धित हो चुके लोगों में ही बँट रही है। आम जनता तक इसका कोई भी लाभ नहीं पहुँच रहा है। बहरहाल राज्य की जनता ने विकास को दृष्टिगत रखते हुए इस बार के विधानसभा चुनावों में भाजपा पर भरोसा जताया है।

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