समस्या यह कि नहर वोट दिलाती है, गंगा नहीं : स्वामी सानन्द


स्वामी सानन्द गंगा संकल्प संवाद - 14वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

.1916 में जिस सरकार के राज्य में सूरज नहीं डूबता था। भारत में उसका गर्वनर बैठता था। फिर भी सरकार ने समझौता किया। आप याद कीजिए कि 1916 के गंगा समझौते में क्या हुआ था। 75 लोग थे; 35 सरकारी और 40 गैरसरकारी। केन्द्र, राज्य, इंजीनियरिंग, स्वास्थ्य... ये सभी प्रथम समूह में थे। गैरसरकारी में प्रजा, सन्त, सन्यासी, सामाजिक कार्यकर्ता और गंगा रिवर बेसिन के राजा-महाराजा थे। कौन नहीं था? एक तरह से सभी के प्रतिनिधि थे। सरकारी अधिकारी भी निश्चय करके हस्ताक्षर कर सके; समूह बैठकर निर्णय ले सके। किन्तु यह अब कैसे हो?

 

नहर वोट देती है, गंगा नहीं


हमने हरसम्भव कोशिश की। अविमुक्तेश्वरानन्द जी व मैंने कोशिश की कि कैसे गंगा मुद्दा बने। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के श्री मोहन भागवत जी से बात हुई, तो उन्होंने कहा कि इलेक्शन तक हमारी बात होगी। दरअसल, अब गंगा से हिंदू वोट नहीं मिलता। नहर के नाम से वोट मिलता है। उन्हें भय रहता है कि नहरों के कारण गाँव, गंगा से नहरों में पानी निकासी कम करने का विरोध करेंगे। शहर, बिजली के लालच में होते हैं। शायद इसीलिये लोग जुड़ नहीं पाते। विकास का मतलब ही सुविधा हो गया है। लोग सुविधाओं के लिये वोट देते हैं, पर्यावरण के लिये नहीं। नहर सुविधा है, गंगा पर्यावरण; कैसे हो?

(स्वामी जी का यह कथन सच है और विचारणीय भी। विचार करने की बात है कि वह क्या परिस्थितियाँ होंगी, जब लोग पर्यावरण के लिये वोट करेंगे? क्या यह महज जागरुकता से होगा या इसके लिये करना कुछ और पड़ेगा? - प्रस्तोता)

 

इको सेंसेटिव ज़ोन की व्यावहारिकता-अव्यावहारिकता


अब इको सेंसेटिव जोन को लेकर देखिए कि विरोध हो रहा है। क्यों? यह सही है कि भागीरथी इको सेंसेटिव जोन को लेकर जो माँगा, वह उससे कई गुना अधिक है। लेकिन मुझे लगता है कि वह अव्यावहारिक है, इसलिये विरोध हो रहा है।

अव्यावहारिक यह कि भागीरथी से एक किलोमीटर का भाग इको सेंसेटिव होना चाहिए। समुद्री कोस्टल रीजनल जोन 500 मीटर की बात करता है, तो गंगाजी के लिये एक किलोमीटर रखें। यह मैंने कहा। अन्य नदियों के लिये कम हो।

इस माँग का व्यावहारिक पहलू यह है कि जो माँगों, वह नहीं मिलता। पहले मिनिस्ट्री की तरफ से आया कि 100 मीटर कर देते हैं। 100 मीटर पर मैं नहीं माना, तो 500 मीटर पर समझौता करना पड़ा। उन्होंने पूरी भागीरथी घाटी के लिये नोटिफिकेशन जारी कर दिया। उसमें जाड़गंगा, भिलंगना.... सब घाटियाँ आ गईं, तो यह विरोध का कारण बना। कई बार माँग को जानबूझकर भी अव्यावहारिक करार दिया जाता है; ताकि विरोध हो और हम कैंसल करें। उसे अव्यावहारिक करार देने से अलकनन्दा और मन्दाकिनी की राह कठिन हो गई है।

 

गंगा अथॉरिटी को मोडिफाई करने की जरूरत


मैं, एक इंजीनियर हूँ। मैं सुझाव की व्यावहारिकता देखता हूँ। मैं विकल्पों को देखता हूँ। यह भी देखता हूँ कि विकल्पों के बीच क्या अधिकार होना चाहिए। वह अधिकार किसे हो; यह भी स्पष्ट होना चाहिए। यह भी देखता हूँ कि निर्णय की प्रक्रिया क्या हो? ग्राउंड लेवल से लेकर सेंट्रल लेवल तक प्रबन्धन को देखता हूँ। आज मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि गंगा बेसिन अथॉरिटी को मोडिफाई करना पड़ेगा। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस काम के लिये सुटेबल नहीं है। अथॉरिटी के भीतर फुलटाइम मशीनरी रखनी होगी। इसीलिये मैंने बिल बनाया है। गंगा महासभा, सरकार आदि के साथ उस पर बहस की जरूरत है।

(शाम घिर आई थी। एक तरह से यह मेरा स्वार्थ ही था कि मैं उनकी बात रोकने के पक्ष में नहीं था। मैं ज्यादा-से-ज्यादा जान लेना चाहता था। इस लालच में मैंने सोचा था कि मैं वहीं अस्पताल के कमरे में एक कोने ज़मीन पर सो रहूँगा। किन्तु उन्हें मेरी चिन्ता थी। स्वामी जी ने मेरे रहने की व्यवस्था, श्री रवि चोपड़ा जी के घर में की थी। बसन्त विहार - मुझे वहीं रात बितानी थी। मैं देहरादून के रास्तों से अनजान था। इसीलिये स्वामी जी ने मुझे शाम के आठ बजते-बजते विदा कर दिया।

अच्छा लगा कि रवि चोपड़ा जी भाईसाहब ने मुझे पूरे उत्साह से लिया। सुबह जल्दी उठकर खुद अपने हाथ से मेरे लिये चाय व नाश्ता बनाया। नाश्ते पर रवि जी से अमेठी, कांग्रेस, गंगा, तरुण भारत संघ, राजेन्द्र सिंह से लेकर घर-परिवार की कई बातें हुईं। अच्छा लगा कि उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं कि स्वामी जी से मेरी क्या बात हुई। मैंने रात ही सोच लिया था कि अगले दिन गंगा हेतु किये जा रहे प्रयासों को लेकर स्वामी जी के मन की आशा और निराशा को टटोलुँगा।

कुछ निजी परिचयात्मक जीवनगाथा के बारे में जानूँगा। सोचा था कि स्वामी जी के समक्ष लोगों की इस अनुभूति को भी रखूँगा, जो स्वामी को स्वभाव से रूखा और निजी निर्णय को आगे रखने वाला पाती है। सो, साढ़े आठ बजे अस्पताल पहुँच गया। एक अक्टूबर, 2013 - आज यही तारीख है। आज स्वामी के उपवास का 111वाँ दिन है। उनके साथ संवाद का मेरा दूसरा दिन है। मेरे पहुँचने से पहले ही स्वामी जी तैयार बैठे थे। जैसे मेरा ही इन्तजार कर रहे हों। रवि जी के यहाँ अथवा घर ढूँढने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? इसी कुशलक्षेम के साथ बात शुरू हुई। मैंने भी गंगा प्रयासों से निकले नतीजों के प्रति आशा-निराशा सम्बन्धी प्रश्न उनके समक्ष रख दिया। जवाब देखिए। - प्रस्तोता)

 

अगले जन्मों में भी गंगा कार्य की आकांक्षा


इस स्टेज में मेरा जीवन, मेेरे लिये बिल्कुल भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। गंगाजी महत्त्वपूर्ण हैं। हालांकि विवेकानन्द जी कहा था कि जन्म-मरण से मुक्ति मानव का लक्ष्य होना चाहिए, किन्तु मैं स्पष्ट हो रहा हूँ। मेरा अपना लक्ष्य, मेरी मुक्ति भी नहीं है। मैं तो अगले जन्मों में भी गंगाजी का काम करना चाहूँगा।

 

किन्हें एक्सपोज करना जरूरी?


फिलहाल मैं कांग्रेस की वर्तमान सरकारों को एक्सपोज करना चाहता हूँ। मैं नहीं कहता हूँ कि बाकि सब अच्छी हैं। लेकिन सभी को एक्सपोज करने से एक्सपोजर का महत्त्व घट जाता है। उतना ही मैं चाहता हूँ कि धार्मिक नेताओं को भी एक्सपोज किया जाये।

 

विश्व हिंदू परिषद ने गंगा जी के लिये क्या किया?


अब देखिए कि रामदेव जी ने ‘गंगा रक्षा मंच’ स्थापित किया। मैंने 13 जून, 2008 को अपना अनशन करने की घोषणा की थी। शायद 16 जून को रामदेव जी ने ‘गंगा रक्षा मंच’ की पहली बैठक रखी थी। उससे पहले विश्व हिन्दू परिषद के सचिव श्री राजेन्द्र पंकज मेरे यहाँ आये थे। उन्होंने कहा था कि अनशन न शुरू करें; 16 की बैठक में शामिल हों। बताया था कि गोविंदाचार्य जी उसका संयोजन करेंगे। मैंने ऐसा सोचा था कि किसी को उस बैठक में भेजूँगा। पता चला कि गोविंदाचार्य जी ने संयोजन करने से मना कर दिया। प्रश्न यहाँ यह है कि उस वक्त विश्व हिंदू परिषद के सचिव गंगा के काम के नाम पर मेरे घर आये; आज वह गंगाजी के लिये क्या कर रहे हैं?

 

क्या गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कराने वालों ने दायित्व निभाया?


तो यूँ तो एक्सपोज तो सभी को, लेकिन जिनकी भूमिका गंगा अथॉरिटी और गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कराने में रही, उनका दायित्व अन्य से अधिक है कि नहीं। उन्होने दायित्व नहीं निभाया, तो उन्हें तो एक्सपोज करना ही चाहिए।

 

हिंदू संस्कृति के नाम की रोटी खाने वालों ने क्या किया?


तीसरा, कथावाचकों को एक्सपोज करने की जरूरत है। 2006 में एक रामदेव ने एक सभा की थी। उसमें मुरारी बापू भी थे। उन्होंने कहा - “मैं तो गंगाजल ही पीता हूँ। गंगाजल में सने आटे की रोटी बनाकर खाता हूँ।’’ श्री श्री रविशंकर ने भी गंगा संरक्षण को लेकर कुछ कहा। मुझे लगता है कि जो कोई भी हिंदू संस्कृति के नाम से रोटी खाता है, उसने हिंदू संस्कृति के लिये क्या किया? किसी को उनसे पूछना चाहिए। जाहिर है कि यह स्वामी सानन्द नहीं, सरकारों और धर्माचार्यों के साथ हुए कटु अनुभव बोल रहे थे।

(अपने अनुभवों के कारण स्वामी सानन्द दुखी दिखे और भीतर-ही-भीतर क्रोधित भी। सो बातचीत को मैंने संवाद का रुख स्वामी जी की जन्मस्थली कांधला, बचपन, स्कूल-कॉलेज और उनके स्वर्गीय बाबा बुधसिंह से मिले संस्कारों की स्मृतिकथा की ओर मोड़ दिया। यह स्मृतिकथा आज से पहले कभी मेरी जानकारी में नहीं आई। आपकी जानकारी में भी नहीं आई होगी। सम्भवतः स्वामी जी ने इससे पूर्व किसी से कही ही न हो। इससे जानना सचमुच बेहद दिलचस्प होगा। - प्रस्तोता)

अगले सप्ताह दिनांक 24 अप्रैल, 2016 दिन रविवार को पढ़िए स्वामी सानन्द गंगा संकल्प संवाद शृंखला का 15वाँ कथन

इस बातचीत की शृंखला में पूर्व प्रकाशित कथनों कोे पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

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प्रस्तोता सम्पर्क
ईमेल : amethiarun@gmail.com
फोन : 9868793799

 

 

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Post By: RuralWater
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