नदी प्रणाली और उसके आसपास के पारिस्थितिकी तंत्र को एक समग्र तरीके से एक इकाई के रूप में समझने की जरूरत है। नदियां और उनसे जुड़ी सहायक नदियां, जलोढ़ क्षेत्र, वन क्षेत्र भूजल एवं तालाब आदि आपस में एक गहरे रिश्ते के साथ एक इकाई बनाते हैं और हमें कई सेवाएं मुफ्त में प्रदान करते हैं। नदी प्रणाली एवं इससे जुड़ी जल ग्रहण क्षेत्रों की पारिस्थितिकी को समझने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
भूमि सतह प्रक्रियाओं और मानवीय हस्तक्षेपों के साथ बदलते परिवेश में नदी बेसिन में कई प्रकार के नकारात्मक बदलाव आए हैं, जिन्हें समझने के लिए लंबी अवधि के आंकड़ों की जरूरत पड़ती है।
उत्तर प्रदेश में बहने वाली गोमती नदी मानवीय हस्तक्षेपों के कारण आज संकट से गुजर रही हैं। पूरे गोमती नदी बेसिन में कृषि गतिविधियों के साथ मानव आबादी में काफी वृद्धि हुई है, जिसके फलस्वरूप नदी के साथ-साथ सहायक नदियों के हाइड्रोलॉजिकल व्यवस्था पर भी काफी तनाव बढ़ा है। वर्तमान में किए गए एक अध्ययन में पांच प्रमुख समस्याओं की पहचान की गई है, जिनका समग्र मूल्यांकन कर संरक्षण एवं एकीकृत प्रबंधन की नितांत आवश्यकता है।
1. नदी के ऊपरी क्षेत्र में व्यापक अतिक्रमण एवं प्रवाह का खत्म हो जाना।
2. पूरे गोमती नदी बेसिन में भूजल का व्यापक दोहन।
3. नदी और उसकी समस्त सहायक नदियों में प्राकृतिक प्रवाह की कमी।
4. पानी की गुणवत्ता में गिरावट
5. मछलियों, जलीय वनस्पतियों और कछुओं के साथ पूरे नदी जैव-विविधता में कमी।
1978 और 2008 के उपग्रह चित्रों की मदद से गोमती नदी बेसिन में हुए बदलाव का अध्ययन किया गया। साथ ही 2011 एवं 2012 के उपग्रह चित्रों से इन्हें जोड़कर महत्वपूर्ण कारणों को समझने का प्रयास किया गया है। इसके साथ ही 1978 से 2012 तक नदी के प्रवाह में हुई कमी का अध्ययन किया गया।
नदी-बेसिन में व्यापक भूमि बदलाव हुए हैं, जिनके कारण नदी और जलोढ़ क्षेत्र की कनेक्टिविटी प्रभावित हुई है। कई सहायक नदियां गैर मानसून के महीनों में सूख रही हैं।
गोमती नदी, पहाड़ों से नहीं बल्कि जमीन से निकल कर 960 किमी. यात्रा के बाद गंगा में मिल जाती है। ऐसी अद्भुत नदी को समझने के लिए जरूरी है कि नदी के आदि से अंत तक गांव, शहर, जहां से यह गुजरती है खुद जाकर उसके स्वरूप से और इसमें मिलने वाली सभी छोटी-बड़ी नदियों से मिला जाए। समग्र गोमती एक प्रयास है-एक समग्र समझ-चिंतन बनाने के लिए ताकि सुजला-सजला गोमती सदैव अविरल निर्मल बहती रहे।
गोमती नदी हिमालय की तलहटी से 55 किमी. दक्षिण पीलीभीत जनपद के उत्तर स्थित माधौ टाण्डा गांव में फुलहर झील से निकलती है। यह नदी पूर्णतः भूगर्भ जल से अनुप्राणित है। नदी 960 किमी. की दूरी के बाद गंगा नदी मे मिल जाती है। नदी का कुल जल निकासी क्षेत्र 30437 वर्ग किमी है एवं गंगा बेसिन का 3.53 प्रतिशत हिस्सा है। नदी का ऊपरी क्षेत्र रामगंगा और शारदा नदियों के बीच में आता है, जबकि निचला हिस्सा गंगा और घाघरा नदियों के बीच में है। नदी में घुमाव अधिक है और औसतन ढलाव 0.14 मीटर प्रति किमी है।
पीलीभीत की सीमा से करीब 57 किमी तक नदी में प्रवाह न के बराबर है। अत्यधिक गाद जमा होने के कारण नदी की चैनल कैपेसिटी काफी कम है। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र द्वारा अतिक्रमण से प्रभावित है। वनों की अत्यधिक कटाई से भी सिल्ट का जमाव हुआ है, जिससे चैनल क्षमता में कमी आई है। राजस्व अभिलेखों में गोमती की अधिकांश जमीनें गोमती के नाम न होकर किसानों के नाम दर्ज हैं। माधौ टाण्डा से कुछ दूर जाकर ही गोमती की धारा समाप्त हो गई है तथा एक छोटे धारा के रूप में गोमती गुरूद्वारे के पास जाकर प्रकट हुई है।
माधौ टाण्डा से एकोत्तर नाथ के मध्य (करीब 57 किमी.) तक गैर मानसून प्रवाह न होने के कारण एवं पिछले 30 वर्षों में वार्षिक औसत वर्षा में कमी के कारण गोमती नदी एवं इसकी सभी सहायक नदियों में गैर-मानसून एवं औसत प्रवाह में काफी कमी आई है। नीमसार तथा लखनऊ में गोमती का जल प्रवाह मार्च से मई तक काफी कम हो जाता है, जिसको बढ़ाने हेतु सिंचाई विभाग को 50 क्यूसेक पानी शारदा नहर प्रणाली की हरदोई शाखा से निकली माधौ टाण्डा रजबहा से फुलहर झील में छोड़ना पड़ता है। इसके साथ ही लखनऊ से ऊपर शारदा नहर की हरदोई शाखा पर स्थित महदोइया स्केप से बेहटा नदी के रास्ते एवं खीरी शाखा पर स्थित अटरिया स्केप के माध्यम से 100 क्यूसेक पानी 15 फरवरी से 15 जून के बीच छोड़ा जाता है। गोमती में मिलने वाली सभी नदियां वर्षा काल के अतिरिक्त पूरे वर्ष भूजल पर निर्भर करती है- ऐसे में भूजल के व्यापक दोहन से इन नदियों के प्रवाह में भी काफी कमी आई है। अध्ययन के दौरान गर्मियों में छोहा और अंधरा छोहा नदियों में पानी बिलकुल सूखा पाया गया और सुखेता नदी में भी जल का स्तर नहीं के बराबर था कई गांवों में कुएं सुख गए थे और बड़े-छोटे तालाबों में भी पानी का स्तर बहुत कम पाया गया।
सितंबर के महीने में 75 प्रतिशत भरोसेमंद प्रवाह माईघाट (सई-गोमती संगम के बाद) पर औसतन 450 क्यूमेक और हनुमान सेतु पर 125 क्यूमेक दर्ज किया गया है। अप्रैल के महीने में इन दोनों जगहों पर न्यूनतम प्रवाह क्रमशः 25 और 15 क्यूमेक हो जाता है।
पूरे गोमती बेसिन में औसतन वर्षा में भी करीब 100 से 150 मिमी. की कमी आई है तथा मानसून काल का समय भी कुछ हद तक पिछले 40 वर्षों में बदला है। वर्ष 1979 में गोमती का औसत वार्षिक जल प्रवाह लखनऊ में 4238 क्यूसेक था जो वर्ष 2008 में घटकर मात्र 1448 क्यूसेक रह गया। मई के महीने में प्रवाह बहुत कम रह जाता है। यह आंकड़ा 30 वर्ष में 1130 क्यूसेक से घटकर 2008 में सिर्फ 459 क्यूसेक हो गया जो नदी के अस्तित्व की दृष्टि से चिंताजनक है।
नैमिषारण्य में वर्ष 2007-08 में नवंबर से मई के महीनों में गोमती का जल प्रवाह वर्ष 1980-81 के मुकाबले 50 फीसदी ही रह गया है। सुल्तानपुर में भी इस अवधि में नदी के जल प्रवाह में 60 फीसदी कमी आई है। सई नदी का भी जल प्रवाह काफी कम हुआ है और मई जून के महीने में कई स्थानों पर यह सूख जाती है। 1988 में जहां इसका प्रवाह 339 क्यूसेक था वह 2008 में घटकर 181 क्यूसेक हो गया।
गोमती बेसिन का 65.77 प्रतिशत हिस्सा कृषि-बुवाई क्षेत्र में आता है, जिसमें कृषि गहनता 155.62 प्रतिशत है। बढ़ती जनसंख्या एवं उत्पाद की मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर गहरे एवं उथले नलकूपों एवं लघु सिंचाई योजनाओं द्वारा भूजल का दोहन किया जाता है। 1984 में गोमती बेसिन के करीब 60 प्रतिशत हिस्सों में मानसून पूर्व भूजल स्तर 5 मीटर के ऊपर होता था, जो 2006 में घटकर करीब 22 प्रतिशत हो गया। पूरे गोमती बेसिन में तेजी से भूमि उपयोग परिवर्तन और शहरीकऱण के कारण वनों और झीलों में काफी कम आई है। जलग्रहण क्षेत्र में भी कृषि के स्वरूप में परिवर्तन आया है जिसके फलस्वरूप जहां पर दलहनी या कम जल वाली फसलें होती थीं वहां पर धान, गन्ना, गेहूं जैसी अधिक जल वाली फसलें होने लगीं। सिंचाई के लिए अत्यधिक जल की मांग से भूजल दोहन का स्तर काफी बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप पूरे बेसिन में भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है। अधिकांश गांवों में कुएं सूख गए हैं एवं तालाबों-झीलों में भी अब सालों भर पानी नहीं रहता।
जलचक्र के एक प्रमुख कारक के रूप में भूजल गोमती और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह में मुख्य योगदान देती है।
मानसून के दौरान वर्षा जल से गोमती बेसिन में भूजल का पुनर्भरण होता है और यही भूजल नदी के प्रवाह को भी गैर मानसून महीनों में कायम रखते हैं। यदि भूजल का पुनर्भरण होता रहे तो यह नदियां भी बहती रहेंगी और यदि भूजल स्रोत सूख गए तो गोमती की सहायक नदियों के साथ-साथ गोमती भी सूख जाएगी। संक्षेप में कहें तो यदि गोमती व उसकी सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में भूगर्भ जल स्तर ठीक रहता है तो गोमती सदानीरा बनी रहेगी।
गोमती नदी के मध्य एवं निचले भागों में जल की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। कई जगहों पर बिना शोधन किया हुआ शहरी और औद्योगिक कचरा एवं मल-मिश्रित जल नदी में प्रवाहित किया जा रहा है। सीवेज के मुख्य अवयवों में कार्बनिक तथा नाइट्रोजनिक पदार्थों की अधिकांश मात्रा होती है जो गोमती के जल की गुणवत्ता के प्रमुख मानकों जैसे घुलित ऑक्सीजन एवं जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग को प्रभावित करते हैं। उपचारित और अनुपचारित सीवेज में उपस्थित विषाक्त धातुओं एवं अन्य प्रदूषक तत्व के कारण गोमती जल की गुणवत्ता लगातार घट रही है जो जलीय जैव तंत्र के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधियां जैसे पूजन एवं हवन सामग्री, मृतकों का अंतिम संस्कार आदि का गलत तरीकों से घाटों पर प्रवाहित करने से भी जल की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। गोमती नदी से लिए गए जल नमूनों में जैविक ऑक्सीजन मांग एवं फिकल कोलीफार्म में वृद्धि पाई गई है जो हैजा एवं आंत्रशोध जैसी बीमरियों का कारण है।
नैमिषारण्य-सिधौली के मध्य गोन सरायन के गोमती में मिलने के बाद नदी जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने लगती है। सरायन में गोला शुगर मिल का व नगरीय अपशिष्ट तथा सीतापुर में नगरीय अपशिष्ट के साथ ही अस्पताल का कूड़ा-कचरा तथा गोन में हरगांव शुगर मिल का प्रदूषित जल गोमती के जल को प्रदूषित करते हैं। लखनऊ से पूर्व ही बेहता नदी भी मिलती है, फिर भी लखनऊ में प्रवेश से पूर्व बालागंज तक नदी का जल शारदा नहर से जलापूर्ति के कारण थोड़ा बेहतर है, जिसमें घुलित ऑक्सीजन 8 मिग्रा. प्रति ली. से अधिक व जैव ऑक्सीजन मांग 3 मिग्रा. प्रति ली. से कम तथा कोलीफार्म की संख्या भी 5000 प्रति 100 मिली से कम है। लखनऊ आते ही डालीगंज, शहीद स्मारक तथा पिपराघाट तक सभी स्थानों पर घुलित ऑक्सीजन कई महीनों में केवल एक मिग्रा. प्रतिलीटर के बराबर हो जाती है। कोलीफार्म की संख्या में भी करीब 2.0 लाख के बराबर हो जाती है। लखनऊ के बाद सुल्तानपुर तक गोमती तट पर कोई बड़ा शहर व उद्योग नहीं होने के कारण जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। हैदरगढ़ के बाद रेठ नदी बाराबंकी शहर के प्रदूषण को समेटे, कल्याणी नदी को अपने में मिलाते हुए जब गोमती में मिलती है तो नदी के प्रवाह के साथ-साथ प्रदूषण का स्तर भी बढ़ता है। सुल्तानपुर में गंगा कार्य योजना के अंतर्गत कई करोड़ की लागत से सीवेज शोधन संयंत्र बनाया गया पर वह भी अभी तक नहीं चल पाया। जौनपुर के हनुमान घाट पर कूड़े का निस्तारण किया जाता है और घाट के दूसरी तरफ बूचड़खाने से खून मिश्रित जल गोमती में मिलता है। विसर्जन घाट तक जाते-जाते इसकी जल धारा दुर्गन्धयुक्त हो जाती है। उन्नाव एवं रायबरेली के शहरी जल-मल व औद्योगिक इकाईयों के प्रवाह को समेटकर सई नदी गोमती के निचले भाग को सर्वाधिक प्रदूषित (ई-ग्रेड) करती है।
लखीमपुर-सीतापुर स्थित चीनी मिलों के गंदले-जहरीले पानी ने नदी की जैव-विविधता को काफी नुकसान पहुंचाया है। लखनऊ, सुल्तानपुर और जौनपुर जैसे शहरों ने गोमती को जलीय जीवों के लायक नहीं छोड़ा। गोमत ताल के आगे कुछ ही स्थानों पर कछुए दिखते हैं जहां-जहां जल की गुणवत्ता ठीक है वहां मछलियों की प्रजातियां भी अधिक है। लखनऊ के बाद हैदरगढ़ से ब्रायोफाइट्स की कई प्रजातियां, वॉटर लिलि, जलकुंभी व कई अन्य जलीय वनस्पतियां हैं जो जलीय जीवों के लिए फायदेमंद हैं। इन पौधों से मछलियोंं और कछुओं को भोजन और प्रवास मिलता है। गोमती नदी की मछलियों से हजारों परिवारों की रोजी-रोटी चल रही है पर पिछले कुछ वर्षों में मछलियों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। प्रदूषण और जल में कमी के कारण मछलियों का प्रजनन क्षमता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। गोमती नदी के किनारे बसे मछुवारे समाज की रोजी-रोटी पर भारी संकट खड़ा हो गया है। मछलियों की प्रजातियों में गिरावट के साथ-साथ उनमें गुणात्मक गिरावट भी दर्ज की गई है जैविक व आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रजातियों ने बेहतर प्रजातियों का स्थान ले लिया है।
समग्र गोमती का अभिप्राय, गोमती के उद्गम स्थल की प्राकृतिक संस्थिति से लेकर इसके गंगा में मिलने तक अविरल और निर्मल प्रवाह, तथा तटवर्ती पर्यावरण की रक्षा करते हुए इसे प्रकृति एवं लोकोपयोग के योग्य बनाए रखना है। इस दृष्टि से नदी को मात्र एक चैनल न समझते हुए समग्र तरीके से नदी और इसके आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र को इकाई के रूप में नदी-संयोजन एवं संरक्षण की प्रकल्पित परियोजनाओं को मूर्त रूप देना होगा।
समग्रता का तात्पर्य नदी-संस्कृति से है जिसके मूल में नारी, गांव, वट, नाव, और जलीय जीव-जंतु हैं।
गोमती नदी एवं इसकी सहायक नदियों में अविरल प्रवाह बना रहे इसके लिए आवश्यकता है कि नदी और भूगर्भ जल स्रोतों की अंतर्संबंधिता बनी रहे और नदी के जलोढ़ क्षेत्रों में भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन न हो, जिससे कि नदी में जल की कमी होने पर भूगर्भ जल स्रोत अपना संचयित जल नदी के प्रवाह को कायम बनाए रख सके। प्रवाह को अविरल बनाने के लिए गोमती बेसिन में भूजल आधारित सिंचाई व पेयजल योजनाओं को कम करना होगा, किसानों को खेती के तरीके बदलने होंगे और सतही एवं भूजल का साझा योग एवं प्रबंधन करना होगा।
गोमती और उसकी सहायक नदियों के बाढ़ क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए जिससे उसमें अतिक्रमण, अनधिकृत निर्माण एवं उसके जल प्रवाह में अवरोध पैदा करने वाले कार्यों पर प्रभावी रोक लग सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय कि, “गंगा यमुना के दोनों ओर 500 मीटर क्षेत्र में निर्माण कार्य न हों, यदि निर्माण चल रहा हो तो उसे सील कर दिया जाए” का अनुपालन गोमती व उसकी सहायक नदियों पर भी किया जाए। नदी की लैंड मैपिंग एवं लैंड डिमार्केशन कराकर नदी का भूक्षेत्र चिन्हित किया जाए।
गोमती नदी के किनारे व्यापक हरित-पट्टिका विकसित की जा सकती है। वृक्षारोपण की प्रक्रिया को वन विभाग गैर सरकारी संगठनों एवं सामाजिक संस्थानों की सहभागिता के साथ और भी सफल बनाया जा सकता है। कदम्ब, बरगद, पीपल, पाकर, नीम, अशोक, जामुन, अर्जुन, आंवला आदि वृक्ष लगाकर नदी के तटीय क्षेत्रों को सुंदर बनाया जा सकता है। गोमती नदी के तट पर काफी अवैध कब्जे हैं। नदी के दोनों किनारों में पांच-पांच सौ मीटर क्षेत्र को अवैध कब्जों से मुक्त कराकर ‘नदी उद्यान’ बनाकर सुरक्षित हरित क्षेत्र घोषित कर दिया जाए तो हरियाली लौट सकती है। पीलीभीत एवं लखीमपुर खीरी को छोड़ दें तो पूरे बेसिन में वनाच्छादन की स्थिति दयनीय है, जिसे कम से कम तीन गुना यानी 12 फीसदी तक बढ़ाने की जरूरत है।
1. गोमती यात्रा के दौरान उद्गम स्थल के कायाकल्प को लेकर सरकार गंभीर हुई थी। तात्कालिक अतिरिक्त कैबिनेट सचिव उद्गम स्थल पहुंचकर अप्रैल 2011 में सफाई, सौंदर्यीकरण एवं अतिक्रमण को रोकने का प्रोजेक्ट तैयार करवाया था। उन्होंने मनरेगा परियोजना से गोमती उद्गम स्थल और तालाबों की सफाई तथा वृक्षारोपण कराने का निर्देश डी.एम. को दिया था। साथ में आए प्रमुख अभियंता (सिंचाई) से भी डिसिल्टिंग का प्रोजेक्ट तैयार करने को कहा था। उद्गम स्थल की सूरत आज भी वैसी ही है और गोमती के दिन बहुरने की आस लगाए लोग बैठे हैं।
2. गोमती के ऊपर क्षेत्र में पड़ने वाले जिलों के जिलाधिकारियों को निर्देश दिए गए थे कि नदी के नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज भूमि की नाप कराई जाए और उस जमीन को फिर से नदी के नाम दर्ज कराया जाए। आज भी नहीं हटे गोमती की जमीन से कब्जे। गोमती की धारा को अविरल बनाए रखने में उसकी जमीन पर हो चुका अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। जांच के उपरांत राजस्व अभिलेखों से गोमती का नाम ही गायब होने से कार्यवाही नहीं हो सकी।
3. भूगर्भ जल विभाग के प्रमुख सचिव ने नदी संरक्षण हेतु चेकडैम, तालाब व नाले खुदवाकर जल प्रबंधन हेतु नदी का प्रवाह जन जिलों से होकर जाता है उनके सीडीओ और सिंचाई विभाग के अभियंताओं को पत्र लिखकर निर्देश दिए थे। अभी तक न तो कोई चेकडैम बने और न ही नालों की खुदाई शुरू हुई।
4. कृषि विभाग (भू-संरक्षण अनुभाग) उत्तर प्रदेश द्वारा भूगर्भ संरक्षण हेतु विभिन्न नालों में मानसून उपरांत जहां भूजल स्तर 8 मीटर से अधिक नीचे है, वहां चेक डैम प्रस्तावित किए गए थे, अभी यह कार्य शुरू नहीं हो सका।
5. पीलीभीत की सीमा में उद्गम स्थल से 47 किमी. लंबाई में नदी तल में डिसिल्टिंग की कार्य योजना (अनुमानित लागत 1556 लाख) मनरेगा के अंतर्गत शुरू किए जाने के निर्देश मुख्य सचिव द्वारा जिलाधिकारी पीलीभीत को अगस्त 2011 में दिए गए थे। अभी तक यह कार्य शुरू नहीं हो सका है।
6. शाहजहांपुर में गोमती नदी की जोखनई नदी के संगम तक 17 किमी. लंबाई में सुचारू जल प्रवाह हेतु कार्य योजना (437.64 लाख ) जिसमें डिसिल्टिंग के अलावा जल प्रबंधन की योजना है, को पूरा नहीं किया जा सका।
7. उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दूषित औद्योगिक इकाईयों के चिन्हित कर उन्हें प्रदूषण नियंत्रण का जिम्मा दिया था, ताकि भविष्य में मछलियां न मरें। आज भी फैक्ट्रियों के दूषित जल से बड़ी मात्रा में मछलियां मरती हैं।
8. जनवरी 2011 में लखनऊ में 345 एमएलडी क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चालू हो गया पर स्थितियां कुछ खास नहीं बदली। नालों से आ रहे टनों पॉलीथीन निकालने का तरीका अब भी नहीं बदला है। 24 घंटे में तीन पालियों में पंपिंग स्टेशनों पर पॉलीथीन निकालने का कार्य सफाई कर्मियों के द्वारा होता है। निगरानी व्यवस्था फेल होने पर सीवेज सीधे नदी में जाता है। पंपिंग स्टेशन ठीक से नहीं चलने पर सीवेज को नदी में डाइवर्ट कर दिया जाता है।
असिस्टेंट प्रोफेसर पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ, बाबा साहेब भीमराव अमबेडकर (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, लखनऊ। मोबाइल - +91-9918466778
भूमि सतह प्रक्रियाओं और मानवीय हस्तक्षेपों के साथ बदलते परिवेश में नदी बेसिन में कई प्रकार के नकारात्मक बदलाव आए हैं, जिन्हें समझने के लिए लंबी अवधि के आंकड़ों की जरूरत पड़ती है।
उत्तर प्रदेश में बहने वाली गोमती नदी मानवीय हस्तक्षेपों के कारण आज संकट से गुजर रही हैं। पूरे गोमती नदी बेसिन में कृषि गतिविधियों के साथ मानव आबादी में काफी वृद्धि हुई है, जिसके फलस्वरूप नदी के साथ-साथ सहायक नदियों के हाइड्रोलॉजिकल व्यवस्था पर भी काफी तनाव बढ़ा है। वर्तमान में किए गए एक अध्ययन में पांच प्रमुख समस्याओं की पहचान की गई है, जिनका समग्र मूल्यांकन कर संरक्षण एवं एकीकृत प्रबंधन की नितांत आवश्यकता है।
1. नदी के ऊपरी क्षेत्र में व्यापक अतिक्रमण एवं प्रवाह का खत्म हो जाना।
2. पूरे गोमती नदी बेसिन में भूजल का व्यापक दोहन।
3. नदी और उसकी समस्त सहायक नदियों में प्राकृतिक प्रवाह की कमी।
4. पानी की गुणवत्ता में गिरावट
5. मछलियों, जलीय वनस्पतियों और कछुओं के साथ पूरे नदी जैव-विविधता में कमी।
1978 और 2008 के उपग्रह चित्रों की मदद से गोमती नदी बेसिन में हुए बदलाव का अध्ययन किया गया। साथ ही 2011 एवं 2012 के उपग्रह चित्रों से इन्हें जोड़कर महत्वपूर्ण कारणों को समझने का प्रयास किया गया है। इसके साथ ही 1978 से 2012 तक नदी के प्रवाह में हुई कमी का अध्ययन किया गया।
नदी-बेसिन में व्यापक भूमि बदलाव हुए हैं, जिनके कारण नदी और जलोढ़ क्षेत्र की कनेक्टिविटी प्रभावित हुई है। कई सहायक नदियां गैर मानसून के महीनों में सूख रही हैं।
गोमती नदी, पहाड़ों से नहीं बल्कि जमीन से निकल कर 960 किमी. यात्रा के बाद गंगा में मिल जाती है। ऐसी अद्भुत नदी को समझने के लिए जरूरी है कि नदी के आदि से अंत तक गांव, शहर, जहां से यह गुजरती है खुद जाकर उसके स्वरूप से और इसमें मिलने वाली सभी छोटी-बड़ी नदियों से मिला जाए। समग्र गोमती एक प्रयास है-एक समग्र समझ-चिंतन बनाने के लिए ताकि सुजला-सजला गोमती सदैव अविरल निर्मल बहती रहे।
गोमती नदी के उद्गम क्षेत्र में अतिक्रमण
गोमती नदी हिमालय की तलहटी से 55 किमी. दक्षिण पीलीभीत जनपद के उत्तर स्थित माधौ टाण्डा गांव में फुलहर झील से निकलती है। यह नदी पूर्णतः भूगर्भ जल से अनुप्राणित है। नदी 960 किमी. की दूरी के बाद गंगा नदी मे मिल जाती है। नदी का कुल जल निकासी क्षेत्र 30437 वर्ग किमी है एवं गंगा बेसिन का 3.53 प्रतिशत हिस्सा है। नदी का ऊपरी क्षेत्र रामगंगा और शारदा नदियों के बीच में आता है, जबकि निचला हिस्सा गंगा और घाघरा नदियों के बीच में है। नदी में घुमाव अधिक है और औसतन ढलाव 0.14 मीटर प्रति किमी है।
पीलीभीत की सीमा से करीब 57 किमी तक नदी में प्रवाह न के बराबर है। अत्यधिक गाद जमा होने के कारण नदी की चैनल कैपेसिटी काफी कम है। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र द्वारा अतिक्रमण से प्रभावित है। वनों की अत्यधिक कटाई से भी सिल्ट का जमाव हुआ है, जिससे चैनल क्षमता में कमी आई है। राजस्व अभिलेखों में गोमती की अधिकांश जमीनें गोमती के नाम न होकर किसानों के नाम दर्ज हैं। माधौ टाण्डा से कुछ दूर जाकर ही गोमती की धारा समाप्त हो गई है तथा एक छोटे धारा के रूप में गोमती गुरूद्वारे के पास जाकर प्रकट हुई है।
नदी और उसकी सहायक नदियों में प्रवाह में कमी
माधौ टाण्डा से एकोत्तर नाथ के मध्य (करीब 57 किमी.) तक गैर मानसून प्रवाह न होने के कारण एवं पिछले 30 वर्षों में वार्षिक औसत वर्षा में कमी के कारण गोमती नदी एवं इसकी सभी सहायक नदियों में गैर-मानसून एवं औसत प्रवाह में काफी कमी आई है। नीमसार तथा लखनऊ में गोमती का जल प्रवाह मार्च से मई तक काफी कम हो जाता है, जिसको बढ़ाने हेतु सिंचाई विभाग को 50 क्यूसेक पानी शारदा नहर प्रणाली की हरदोई शाखा से निकली माधौ टाण्डा रजबहा से फुलहर झील में छोड़ना पड़ता है। इसके साथ ही लखनऊ से ऊपर शारदा नहर की हरदोई शाखा पर स्थित महदोइया स्केप से बेहटा नदी के रास्ते एवं खीरी शाखा पर स्थित अटरिया स्केप के माध्यम से 100 क्यूसेक पानी 15 फरवरी से 15 जून के बीच छोड़ा जाता है। गोमती में मिलने वाली सभी नदियां वर्षा काल के अतिरिक्त पूरे वर्ष भूजल पर निर्भर करती है- ऐसे में भूजल के व्यापक दोहन से इन नदियों के प्रवाह में भी काफी कमी आई है। अध्ययन के दौरान गर्मियों में छोहा और अंधरा छोहा नदियों में पानी बिलकुल सूखा पाया गया और सुखेता नदी में भी जल का स्तर नहीं के बराबर था कई गांवों में कुएं सुख गए थे और बड़े-छोटे तालाबों में भी पानी का स्तर बहुत कम पाया गया।
सितंबर के महीने में 75 प्रतिशत भरोसेमंद प्रवाह माईघाट (सई-गोमती संगम के बाद) पर औसतन 450 क्यूमेक और हनुमान सेतु पर 125 क्यूमेक दर्ज किया गया है। अप्रैल के महीने में इन दोनों जगहों पर न्यूनतम प्रवाह क्रमशः 25 और 15 क्यूमेक हो जाता है।
पूरे गोमती बेसिन में औसतन वर्षा में भी करीब 100 से 150 मिमी. की कमी आई है तथा मानसून काल का समय भी कुछ हद तक पिछले 40 वर्षों में बदला है। वर्ष 1979 में गोमती का औसत वार्षिक जल प्रवाह लखनऊ में 4238 क्यूसेक था जो वर्ष 2008 में घटकर मात्र 1448 क्यूसेक रह गया। मई के महीने में प्रवाह बहुत कम रह जाता है। यह आंकड़ा 30 वर्ष में 1130 क्यूसेक से घटकर 2008 में सिर्फ 459 क्यूसेक हो गया जो नदी के अस्तित्व की दृष्टि से चिंताजनक है।
नैमिषारण्य में वर्ष 2007-08 में नवंबर से मई के महीनों में गोमती का जल प्रवाह वर्ष 1980-81 के मुकाबले 50 फीसदी ही रह गया है। सुल्तानपुर में भी इस अवधि में नदी के जल प्रवाह में 60 फीसदी कमी आई है। सई नदी का भी जल प्रवाह काफी कम हुआ है और मई जून के महीने में कई स्थानों पर यह सूख जाती है। 1988 में जहां इसका प्रवाह 339 क्यूसेक था वह 2008 में घटकर 181 क्यूसेक हो गया।
तालिका : गैर-मानसून (नवंबर से मई) में गोमती मे जल प्रवाह (क्यूसेक में)
जनपद | वर्ष 1980-81 | वर्ष 2007-08 |
नैमिषारण्य, सीतापुर | 821 | 420.25 |
लखनऊ | 1483 | 918 |
सुल्तानपुर | 4132 | 1617 |
जौनपुर | 4414 | 1872 |
भूजल का अत्यधिक दोहन-
गोमती बेसिन का 65.77 प्रतिशत हिस्सा कृषि-बुवाई क्षेत्र में आता है, जिसमें कृषि गहनता 155.62 प्रतिशत है। बढ़ती जनसंख्या एवं उत्पाद की मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर गहरे एवं उथले नलकूपों एवं लघु सिंचाई योजनाओं द्वारा भूजल का दोहन किया जाता है। 1984 में गोमती बेसिन के करीब 60 प्रतिशत हिस्सों में मानसून पूर्व भूजल स्तर 5 मीटर के ऊपर होता था, जो 2006 में घटकर करीब 22 प्रतिशत हो गया। पूरे गोमती बेसिन में तेजी से भूमि उपयोग परिवर्तन और शहरीकऱण के कारण वनों और झीलों में काफी कम आई है। जलग्रहण क्षेत्र में भी कृषि के स्वरूप में परिवर्तन आया है जिसके फलस्वरूप जहां पर दलहनी या कम जल वाली फसलें होती थीं वहां पर धान, गन्ना, गेहूं जैसी अधिक जल वाली फसलें होने लगीं। सिंचाई के लिए अत्यधिक जल की मांग से भूजल दोहन का स्तर काफी बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप पूरे बेसिन में भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है। अधिकांश गांवों में कुएं सूख गए हैं एवं तालाबों-झीलों में भी अब सालों भर पानी नहीं रहता।
जलचक्र के एक प्रमुख कारक के रूप में भूजल गोमती और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह में मुख्य योगदान देती है।
मानसून के दौरान वर्षा जल से गोमती बेसिन में भूजल का पुनर्भरण होता है और यही भूजल नदी के प्रवाह को भी गैर मानसून महीनों में कायम रखते हैं। यदि भूजल का पुनर्भरण होता रहे तो यह नदियां भी बहती रहेंगी और यदि भूजल स्रोत सूख गए तो गोमती की सहायक नदियों के साथ-साथ गोमती भी सूख जाएगी। संक्षेप में कहें तो यदि गोमती व उसकी सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में भूगर्भ जल स्तर ठीक रहता है तो गोमती सदानीरा बनी रहेगी।
जल की गुणवत्ता में गिरावट
गोमती नदी के मध्य एवं निचले भागों में जल की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। कई जगहों पर बिना शोधन किया हुआ शहरी और औद्योगिक कचरा एवं मल-मिश्रित जल नदी में प्रवाहित किया जा रहा है। सीवेज के मुख्य अवयवों में कार्बनिक तथा नाइट्रोजनिक पदार्थों की अधिकांश मात्रा होती है जो गोमती के जल की गुणवत्ता के प्रमुख मानकों जैसे घुलित ऑक्सीजन एवं जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग को प्रभावित करते हैं। उपचारित और अनुपचारित सीवेज में उपस्थित विषाक्त धातुओं एवं अन्य प्रदूषक तत्व के कारण गोमती जल की गुणवत्ता लगातार घट रही है जो जलीय जैव तंत्र के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधियां जैसे पूजन एवं हवन सामग्री, मृतकों का अंतिम संस्कार आदि का गलत तरीकों से घाटों पर प्रवाहित करने से भी जल की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। गोमती नदी से लिए गए जल नमूनों में जैविक ऑक्सीजन मांग एवं फिकल कोलीफार्म में वृद्धि पाई गई है जो हैजा एवं आंत्रशोध जैसी बीमरियों का कारण है।
नैमिषारण्य-सिधौली के मध्य गोन सरायन के गोमती में मिलने के बाद नदी जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने लगती है। सरायन में गोला शुगर मिल का व नगरीय अपशिष्ट तथा सीतापुर में नगरीय अपशिष्ट के साथ ही अस्पताल का कूड़ा-कचरा तथा गोन में हरगांव शुगर मिल का प्रदूषित जल गोमती के जल को प्रदूषित करते हैं। लखनऊ से पूर्व ही बेहता नदी भी मिलती है, फिर भी लखनऊ में प्रवेश से पूर्व बालागंज तक नदी का जल शारदा नहर से जलापूर्ति के कारण थोड़ा बेहतर है, जिसमें घुलित ऑक्सीजन 8 मिग्रा. प्रति ली. से अधिक व जैव ऑक्सीजन मांग 3 मिग्रा. प्रति ली. से कम तथा कोलीफार्म की संख्या भी 5000 प्रति 100 मिली से कम है। लखनऊ आते ही डालीगंज, शहीद स्मारक तथा पिपराघाट तक सभी स्थानों पर घुलित ऑक्सीजन कई महीनों में केवल एक मिग्रा. प्रतिलीटर के बराबर हो जाती है। कोलीफार्म की संख्या में भी करीब 2.0 लाख के बराबर हो जाती है। लखनऊ के बाद सुल्तानपुर तक गोमती तट पर कोई बड़ा शहर व उद्योग नहीं होने के कारण जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। हैदरगढ़ के बाद रेठ नदी बाराबंकी शहर के प्रदूषण को समेटे, कल्याणी नदी को अपने में मिलाते हुए जब गोमती में मिलती है तो नदी के प्रवाह के साथ-साथ प्रदूषण का स्तर भी बढ़ता है। सुल्तानपुर में गंगा कार्य योजना के अंतर्गत कई करोड़ की लागत से सीवेज शोधन संयंत्र बनाया गया पर वह भी अभी तक नहीं चल पाया। जौनपुर के हनुमान घाट पर कूड़े का निस्तारण किया जाता है और घाट के दूसरी तरफ बूचड़खाने से खून मिश्रित जल गोमती में मिलता है। विसर्जन घाट तक जाते-जाते इसकी जल धारा दुर्गन्धयुक्त हो जाती है। उन्नाव एवं रायबरेली के शहरी जल-मल व औद्योगिक इकाईयों के प्रवाह को समेटकर सई नदी गोमती के निचले भाग को सर्वाधिक प्रदूषित (ई-ग्रेड) करती है।
जैव विविधता का निरंतर घटना
लखीमपुर-सीतापुर स्थित चीनी मिलों के गंदले-जहरीले पानी ने नदी की जैव-विविधता को काफी नुकसान पहुंचाया है। लखनऊ, सुल्तानपुर और जौनपुर जैसे शहरों ने गोमती को जलीय जीवों के लायक नहीं छोड़ा। गोमत ताल के आगे कुछ ही स्थानों पर कछुए दिखते हैं जहां-जहां जल की गुणवत्ता ठीक है वहां मछलियों की प्रजातियां भी अधिक है। लखनऊ के बाद हैदरगढ़ से ब्रायोफाइट्स की कई प्रजातियां, वॉटर लिलि, जलकुंभी व कई अन्य जलीय वनस्पतियां हैं जो जलीय जीवों के लिए फायदेमंद हैं। इन पौधों से मछलियोंं और कछुओं को भोजन और प्रवास मिलता है। गोमती नदी की मछलियों से हजारों परिवारों की रोजी-रोटी चल रही है पर पिछले कुछ वर्षों में मछलियों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। प्रदूषण और जल में कमी के कारण मछलियों का प्रजनन क्षमता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। गोमती नदी के किनारे बसे मछुवारे समाज की रोजी-रोटी पर भारी संकट खड़ा हो गया है। मछलियों की प्रजातियों में गिरावट के साथ-साथ उनमें गुणात्मक गिरावट भी दर्ज की गई है जैविक व आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रजातियों ने बेहतर प्रजातियों का स्थान ले लिया है।
समग्र गोमती हेतु कुछ ठोस कदम
समग्र गोमती का अभिप्राय, गोमती के उद्गम स्थल की प्राकृतिक संस्थिति से लेकर इसके गंगा में मिलने तक अविरल और निर्मल प्रवाह, तथा तटवर्ती पर्यावरण की रक्षा करते हुए इसे प्रकृति एवं लोकोपयोग के योग्य बनाए रखना है। इस दृष्टि से नदी को मात्र एक चैनल न समझते हुए समग्र तरीके से नदी और इसके आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र को इकाई के रूप में नदी-संयोजन एवं संरक्षण की प्रकल्पित परियोजनाओं को मूर्त रूप देना होगा।
समग्रता का तात्पर्य नदी-संस्कृति से है जिसके मूल में नारी, गांव, वट, नाव, और जलीय जीव-जंतु हैं।
नदी और भूगर्भ जल की अंतर्संबंधिता बनी रहे
गोमती नदी एवं इसकी सहायक नदियों में अविरल प्रवाह बना रहे इसके लिए आवश्यकता है कि नदी और भूगर्भ जल स्रोतों की अंतर्संबंधिता बनी रहे और नदी के जलोढ़ क्षेत्रों में भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन न हो, जिससे कि नदी में जल की कमी होने पर भूगर्भ जल स्रोत अपना संचयित जल नदी के प्रवाह को कायम बनाए रख सके। प्रवाह को अविरल बनाने के लिए गोमती बेसिन में भूजल आधारित सिंचाई व पेयजल योजनाओं को कम करना होगा, किसानों को खेती के तरीके बदलने होंगे और सतही एवं भूजल का साझा योग एवं प्रबंधन करना होगा।
फ्लडप्लेन में न हो अतिक्रमण
गोमती और उसकी सहायक नदियों के बाढ़ क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए जिससे उसमें अतिक्रमण, अनधिकृत निर्माण एवं उसके जल प्रवाह में अवरोध पैदा करने वाले कार्यों पर प्रभावी रोक लग सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय कि, “गंगा यमुना के दोनों ओर 500 मीटर क्षेत्र में निर्माण कार्य न हों, यदि निर्माण चल रहा हो तो उसे सील कर दिया जाए” का अनुपालन गोमती व उसकी सहायक नदियों पर भी किया जाए। नदी की लैंड मैपिंग एवं लैंड डिमार्केशन कराकर नदी का भूक्षेत्र चिन्हित किया जाए।
आरक्षित हरित क्षेत्र हो नदी तट
गोमती नदी के किनारे व्यापक हरित-पट्टिका विकसित की जा सकती है। वृक्षारोपण की प्रक्रिया को वन विभाग गैर सरकारी संगठनों एवं सामाजिक संस्थानों की सहभागिता के साथ और भी सफल बनाया जा सकता है। कदम्ब, बरगद, पीपल, पाकर, नीम, अशोक, जामुन, अर्जुन, आंवला आदि वृक्ष लगाकर नदी के तटीय क्षेत्रों को सुंदर बनाया जा सकता है। गोमती नदी के तट पर काफी अवैध कब्जे हैं। नदी के दोनों किनारों में पांच-पांच सौ मीटर क्षेत्र को अवैध कब्जों से मुक्त कराकर ‘नदी उद्यान’ बनाकर सुरक्षित हरित क्षेत्र घोषित कर दिया जाए तो हरियाली लौट सकती है। पीलीभीत एवं लखीमपुर खीरी को छोड़ दें तो पूरे बेसिन में वनाच्छादन की स्थिति दयनीय है, जिसे कम से कम तीन गुना यानी 12 फीसदी तक बढ़ाने की जरूरत है।
क्यों रह गए अधूरे काम अभी बाकी है लड़ाई...
1. गोमती यात्रा के दौरान उद्गम स्थल के कायाकल्प को लेकर सरकार गंभीर हुई थी। तात्कालिक अतिरिक्त कैबिनेट सचिव उद्गम स्थल पहुंचकर अप्रैल 2011 में सफाई, सौंदर्यीकरण एवं अतिक्रमण को रोकने का प्रोजेक्ट तैयार करवाया था। उन्होंने मनरेगा परियोजना से गोमती उद्गम स्थल और तालाबों की सफाई तथा वृक्षारोपण कराने का निर्देश डी.एम. को दिया था। साथ में आए प्रमुख अभियंता (सिंचाई) से भी डिसिल्टिंग का प्रोजेक्ट तैयार करने को कहा था। उद्गम स्थल की सूरत आज भी वैसी ही है और गोमती के दिन बहुरने की आस लगाए लोग बैठे हैं।
2. गोमती के ऊपर क्षेत्र में पड़ने वाले जिलों के जिलाधिकारियों को निर्देश दिए गए थे कि नदी के नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज भूमि की नाप कराई जाए और उस जमीन को फिर से नदी के नाम दर्ज कराया जाए। आज भी नहीं हटे गोमती की जमीन से कब्जे। गोमती की धारा को अविरल बनाए रखने में उसकी जमीन पर हो चुका अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। जांच के उपरांत राजस्व अभिलेखों से गोमती का नाम ही गायब होने से कार्यवाही नहीं हो सकी।
3. भूगर्भ जल विभाग के प्रमुख सचिव ने नदी संरक्षण हेतु चेकडैम, तालाब व नाले खुदवाकर जल प्रबंधन हेतु नदी का प्रवाह जन जिलों से होकर जाता है उनके सीडीओ और सिंचाई विभाग के अभियंताओं को पत्र लिखकर निर्देश दिए थे। अभी तक न तो कोई चेकडैम बने और न ही नालों की खुदाई शुरू हुई।
4. कृषि विभाग (भू-संरक्षण अनुभाग) उत्तर प्रदेश द्वारा भूगर्भ संरक्षण हेतु विभिन्न नालों में मानसून उपरांत जहां भूजल स्तर 8 मीटर से अधिक नीचे है, वहां चेक डैम प्रस्तावित किए गए थे, अभी यह कार्य शुरू नहीं हो सका।
5. पीलीभीत की सीमा में उद्गम स्थल से 47 किमी. लंबाई में नदी तल में डिसिल्टिंग की कार्य योजना (अनुमानित लागत 1556 लाख) मनरेगा के अंतर्गत शुरू किए जाने के निर्देश मुख्य सचिव द्वारा जिलाधिकारी पीलीभीत को अगस्त 2011 में दिए गए थे। अभी तक यह कार्य शुरू नहीं हो सका है।
6. शाहजहांपुर में गोमती नदी की जोखनई नदी के संगम तक 17 किमी. लंबाई में सुचारू जल प्रवाह हेतु कार्य योजना (437.64 लाख ) जिसमें डिसिल्टिंग के अलावा जल प्रबंधन की योजना है, को पूरा नहीं किया जा सका।
7. उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दूषित औद्योगिक इकाईयों के चिन्हित कर उन्हें प्रदूषण नियंत्रण का जिम्मा दिया था, ताकि भविष्य में मछलियां न मरें। आज भी फैक्ट्रियों के दूषित जल से बड़ी मात्रा में मछलियां मरती हैं।
8. जनवरी 2011 में लखनऊ में 345 एमएलडी क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चालू हो गया पर स्थितियां कुछ खास नहीं बदली। नालों से आ रहे टनों पॉलीथीन निकालने का तरीका अब भी नहीं बदला है। 24 घंटे में तीन पालियों में पंपिंग स्टेशनों पर पॉलीथीन निकालने का कार्य सफाई कर्मियों के द्वारा होता है। निगरानी व्यवस्था फेल होने पर सीवेज सीधे नदी में जाता है। पंपिंग स्टेशन ठीक से नहीं चलने पर सीवेज को नदी में डाइवर्ट कर दिया जाता है।
असिस्टेंट प्रोफेसर पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ, बाबा साहेब भीमराव अमबेडकर (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, लखनऊ। मोबाइल - +91-9918466778
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