समाज की जवाबदेही


स्वच्छ भारत अभियान ने अब जन जागरण का रूप ले लिया है। 2 अक्टूबर 2014 महात्मा गाँधी की जयंती से इस अभियान को शुरू किया गया। इसका समापन गाँधी जी की 150वीं जयंती 2 अक्टूबर 2019 को होगा। महात्मा गाँधी ने स्वच्छता को आजादी से भी महत्त्वपूर्ण माना। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान वह जिन-जिन स्थानों पर जाते थे, वहाँ-वहाँ गंदगी पर विशेष ध्यान देते थे। उन्होंने सदैव गंदगी से मुक्त होने का संदेश दिया। इसके लिये गाँधी जी ने केवल बोला ही नहीं, बल्कि कई बस्तियों में, कार्यालयों में और सड़कों पर स्वयं सफाई करने का अभियान शुरू किया। यह सवाल गाँधी जी ने आजादी के आन्दोलन के दौरान ही उठा दिया था कि देश की महिलाएँ और पुरुष खुले में शौच जाते हैं, यह बहुत शर्मनाक स्थिति है। इसके लिये गाँव-गाँव में शौचालय बनाने के लिये लोगों को जागरूक करना बहुत आवश्यक है। उन्होंने कहा था कि स्वच्छ शरीर अस्वच्छ शहर में नहीं रह सकता।

गाँधी जी के विचारों में निर्मल भारत का सपना पलता था। इसीलिये उन्होंने कहा था कि आप अपने गाँव में शौचालय का निर्माण कराइये। मनुष्य के मैले की खाद बनाइये। इससे गाँव में सफाई रहेगी। इससे लोगों में भंगी के काम करने में दिलचस्पी भी पैदा होगी, जिससे अस्पृश्यता खत्म करने में मदद मिलेगी। गाँधी जी स्वयं मैला उठाकर फेंकने में कभी हिचकते नहीं थे। गाँधी जी के प्रयासों से देश को आजादी मिली। लेकिन अफसोस है कि स्वतंत्रता मिलने के इतने वर्षों बाद भी देशवासियों में साफ-सफाई को लेकर उदासीनता दिखती है। साथ ही देश के प्रत्येक नागरिकों के लिये सरकारें शौचालय तक मुहैया नहीं करा पाईं और लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। इससे भी शर्मनाक बात यह है कि अपने परिवार को दो जून की रोटी जुटाने के लिये सैकड़ों लोग सिर पर मैला ढो रहे हैं।

यह अमानवीय कृत भारत के स्वाभिमान को लांछित करता है तो दूसरी ओर अनगिनत महिलाएँ और बच्चियाँ आज भी ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में खुले में शौच जाती हैं। यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि दिन के उजाले की वजह से शौच त्याग की इच्छा होते हुए भी महिलाएँ शौच के वेग को रोकती हैं और शाम होने तक का इंतजार करती हैं। इसकी वजह से वे विभिन्न प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। कई बार महिलाओं को अंधेरे में शौच जाने के कारण छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे अपराधों का शिकार होना पड़ता है। देश के हजारों स्कूलों में या तो शौचालय नहीं है और यदि है तो उनकी स्थिति बहुत खराब है। आँकड़े बताते हैं कि देश में लगभग 11 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। वहीं 18 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिये अलग से शौचालय नहीं है।

आज भी 60 करोड़ से अधिक लोग यानी 53 फीसदी भारतीय परिवार खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। ग्रामीण इलाकों में करीब 70 फीसदी घरों में शौचालय नहीं है जबकि 13 फीसदी शहरी आबादी खुले में शौच करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि स्वच्छता के अभाव में देश को सालाना सवा तीन लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है। इसकी भरपाई तभी संभव है जब देश के सभी नागरिकों के लिये शौचालय जाने की सुविधा उपलब्ध हो। बहरहाल, खुले में शौच के लिये हमारी सोच को भी बदलने की जरूरत है। एक गैर सरकारी संगठन रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ कम्पैशनेंट इकोनॉमिक्स के सर्वे के अनुसार खुले में शौच जाने वाले तकरीबन आधे लोगों का मानना है कि यह ज्यादा सुविधाजनक तरीका है। यही कारण है कि पिछली वर्षों में शौचालय निर्माण से जुड़ी तमाम सरकारी नीतियों के बावजूद खुले में शौच जाने वालों की संख्या में कोई खास कमी नहीं आई है। इसलिये शौचालयों के बावजूद निर्माण से पहले लोगों की मानसिकता को बदलने की जरूरत है। गंदगी के संदर्भ में यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि भारत गरीब देश है।

इसका अमीरी-गरीबी से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि स्वच्छता तो एक संस्कार है। गंदगी हमारी प्रतिष्ठा को ही प्रभावित नहीं कर रही है बल्कि थोक के भाव बीमारियों का कारण भी बन रही है। इससे जन स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण की हालत बिगड़ी है। शरीर के अन्दर पहुँचने वाले कृमि और बैक्टीरिया हमें बीमार कर रहे हैं। एक अनुमान के तहत भारत में प्रतिदिन एक हजार बच्चे अकेले डायरिया से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि यदि बेहतर शौचालयों की व्यवस्था हो जाए और पीने का शुद्ध पानी मिले तो लोगों को पन्द्रह गम्भीर बीमारियों से बचाया जा सकता है। स्वच्छता मिशन में सरकार के साथ नागरिकों की भी अपनी जवाबदेही तय करनी है। यह अभियान देश की जरूरत भी है और सेहत भी।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 

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