गांधी विचार पर शोध में ऊर्जा की कमी वास्तव में विचलित करने वाला तथ्य है। अपने आस-पास फैली अनेक बुराइयों के बावजूद अंततः यह विश्वास हमें ढाढस बंधाता है कि बहुसंख्य समाज आज भी बेहतर मानवीय संकल्पनाओं से ओतप्रोत है। प्रस्तुत आलेख अनुपम मिश्र द्वारा दिए गए दीक्षंत भाषण का दूसरा एवं अंतिम भाग है।
नालंदा और तक्षशिला इन दो नामों के साथ छात्र शब्द की भी एक व्याख्या देंखे- जो गुरु के दोषों को एक छत्र की तरह ढंक दे- वह है छात्र। तो इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी कुछ प्रेरणा दे सकता है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती हैं। संस्थाएं, खासकर शिक्षण संस्थाएं केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनतीं। वे गुरु और छात्रों के सबसे अच्छे संयोग से बनती हैं, उसी से बढ़ती हैं और उसी से टिकती भी हैं। यह बारीक संयोग जब तक वहां बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहे।आप सब जानते ही हैं कि इनमें से कैसे-कैसे बड़े नाम उस काल में निकले। कैसे-कैसे बड़े-बड़े प्राध्यापक वहां पढ़ाते थे, चाणक्य जैसी विभूतियां वहां थीं, जिनका लिखा लोग इतने सैकड़ों बरस पहले भी पढ़ते थे और उनके लिखे वे सारे अक्षर आज भी क्षर नहीं हुए हैं, आज भी मिटे नहीं हैं। लोग उन्हें आज भी पढ़ते हैं।आप बहुत भाग्यशाली हैं कि आपको एक ऐसी विद्यापीठ में प्रवेश का संयोग मिला जिसे खुद गांधी जी ने बनाया था। जो खुद सन् 1920 से अपनी आखिरी सांस तक इसके कुलपति रहे और उस बेहद कठिन दौर में देश की आजादी से लेकर बीमार की सेवा तक के हजारों कामों को करते हुए भी इस विद्यापीठ का पूरा ध्यान रखा। उन्हें इसके भविष्य के बारे में बहुत आशा थी। उन्होंने इसी आंगन में एक बार कहा था कि मैं खुद तो बूढ़ा हूं, पका हुआ पत्ता हूं। दूसरे कामों में फंसा हुआ हूं। मेरे जैसा पका हुआ पत्ता अगर झड़ जाए तो उससे (इस) पेड़ को कोई आंच नहीं आएगी। आचार्य और अध्यापक भी इस पेड़ के पत्ते ही हैं, हालांकि वे अभी कोमल, मुलायम हैं। कुछ समय बाद वे भी पके पत्ते बनकर शायद झड़ जाएंगे। लेकिन विद्यार्थी इस सुंदर पेड़ की डालियां हैं और इन डालियों से भविष्य में आचार्य और अध्यापकों के रूप में पत्ते फूटने वाले हैं।
मैं आप सबके बीच एक तरह से पहली बार ही आया हूं इसलिए यहां कि शोध की व्यवस्था के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है मुझे। लेकिन यह निवेदन करना चाहता हूं कि शोध में यदि श्रद्धा का भाव नहीं जुड़ेगा तो वह कितना ही अच्छा हो, हमें एक डिग्री जरूर देगा पर हमारे समाज को उससे कुछ ज्यादा नहीं मिलेगा। हर वर्ष यहां से होने वाले शोध अध्ययनों में से एक दो इस दर्जे के होने ही चाहिए कि वे पूरे देश में अपना झंडा फहरा दें। आखिर आप किसी मामूली विद्यापीठ से नहीं हैं। इसके पीछे गांधी का झंडा है, जिसने उस अंग्रेजी साम्राज्य का झंडा झुकवा दिया था, जहां कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था।
मुझे यह बताते हुए अटपटा ही लग रहा है, अच्छा नहीं लग रहा पर पूरे देश में गांधी विचार की शोध में कोई चमक, उत्साह, आनंद नहीं दिखता। गांधी अध्ययन केंद्रों की संख्या खूब है और वहां से शोध कर उपाधि पाए शोधार्थियों की संख्या भी खूब है- इन आंकड़ों पर हमें गर्व भी हो सकता है पर क्या हम सचमुच कह सकते हैं कि ये शोध, ये शोधार्थी समाज के कुछ काम आ सकेंगे? गुजराती में एक शब्द है- बेदिया ढोर। हम ऐसे ढोर न बने, ऐसे गधे न बनें, जिसकी पीठ पर कुछ वेद रखे हैं। गांधी का वेद बहुत वजनी है। उसे निरर्थक नहीं ढोना है। तो गांधी विचार की शोध तो ऐसी हो जो हमें भी तारे और हमारे समाज को भी तारे। हम दोनों को वह इस प्रलय में से बचाकर ले जाए।
आज हमारे अखबार, टेलीविजन के सात दिन-चौबीस घंटे चलने वाले एक-दो नहीं सौ चैनल अमंगलकारी समाचारों से भरे पड़े हैं। तो क्या हम सचमुच ऐसे अनिष्टकारी युग से गुजर रहे हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। गांधीजी ने हिन्दस्वराज में जैसा कहा था यह ठीक वैसा ही है- यह तो किनारे की मैल है। बीच बड़ी धारा तो साफ है। समाज के उस बड़े हिस्से के बारे में गांधीजी ने सौ बरस पहले बड़े विश्वास से कहा था कि उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं और न आप राज कर सकेंगे। हां आज वह लगातार उपेक्षित रखे जाने पर शायद थोड़ा टूट गया है, पर अभी भी अपनी धुरी पर कायम है। तो अपनी धुरी से न हटे समाज पर हमारा शोध कितना है? यह हमारी कसौटी बननी चाहिए।
थोड़े पहले विद्यापीठ के वर्णन के उस रुपक में जड़ों का उल्लेख छूट-सा गया था। जड़ों की मजबूती से ही पूरे पेड़ की मजबूती होती है। अब विद्यापीठ की जड़ें कहां होंगी? कौन-सी होंगी? उत्तर हमें गांधीजी से ही मिल सकता है। इसी विद्यापीठ में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान का हरेक घर विद्यापीठ है, माता-पिता आचार्य हैं। यह बात अलग है कि घर ने, माता-पिता ने आज वह अपनी विशिष्ट भूमिका खो दी है। लेकिन यहां से बाहर निकल जब आप अब अपने नया घर बनाएं तो उसमें इस विचार की, विद्यापीठ के विचार की जड़ें जरूर पनपने दें।अंग्रेजी भाषा का एक शब्द मुझे बहुत छूता है, बहुत ही आकर्षक लगता है: वह शब्द है पिगमेलियन। यह एक बड़ा विचित्र अर्थ लिए हुए है। हम जो हैं नहीं, पर कोई प्यार से कह दे कि तुम तो ये हो तो हमारा मन हमें वैसा ही बना देना चाहता है। इस शब्द को शीर्षक बनाकर अंग्रेजी के एक बहुत ही बड़े लेखक बर्नाड शॉ ने एक बहुत ही सुंदर नाटक लिखा था और फिर बाद में हालीवुड ने इसी नाटक को आधार बनाकर एक बहुत ही सुंदर फिल्म भी बनाई थी। फिल्म का नाम था ‘माई फेयर लेडी’।
विनोबा ने भी कहा है हमें सभी बताते हैं कि हम दूसरों के पहाड़ जैसे दोषों को तिल की तरह छोटा बना कर देखें और अपने तिल जैसे दोषों को पहाड़ जितना बड़ा करके देखें। पर विनोबा ने कहा यह सब तो बहुत हो गया। अब दूसरों के भी गुण देखो और दूसरों से भी आगे बढ़ अपने भी गुण देखो- इसे उन्होंने गुणदर्शन नाम दिया है। हम अपने साथियों में गुण देखें, अपने में भी गुण देखें। जो गुण नहीं भी होंगे, उन्हें भी ‘देखें’ तो वे हममें धीरे-धीरे आने भी लगेंगे।
जब यह विद्यापीठ बनी थी, तब हम गुलाम थे। इसलिए इसके कुलपति के नाते गांधीजी जो भी भाषण यहां देते थे, उसमें प्रायः सरकार से असहयोग की बात भी करते ही थे। आज हम आजाद हैं पर यह आजादी बड़ी विचित्र है। हम, हमारा समाज इस आजादी को ठीक से समझ ही नहीं पा रहा है। इसलिए आज जो ज्ञान हमने यहां अर्जित किया है, उसे यहां से बाहर निकल समाज में बांटने के काम में हम लग सकें तो अच्छा होगा। आज समाज से सहयोग का रास्ता आप बनाएं। नौकरी जरूर करें पर चाकरी इस समाज की करें।
तब समाज के हर अंग में आपको तिल-तिल गांधी दिखने लगेंगे। उन तिलों को एकत्र करते जाएं। पौराणिक किस्सा बताता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि की उत्तमोत्तम चीजों से तिल-तिल जमा कर तिलोत्तमा नामक एक पात्र की रचना की थी। उसी तरह आप समाज में से उत्तम, उत्तम तिल एकत्र कर तिलोत्तम बनें- ऐसी हम सबकी शुभकानाएं हैं।
अंत में मैं एक बार फिर विनोबा के एक सुंदर कथन से आज के इस पावन प्रसंग को समेटना चाहूंगा। विनोबा कहते हैं कि पानी तो निकलता है, बहता है समुद्र में मिलने के लिए। पर रास्ते में एक छोटा-सा गड्ढ़ा आ जाए, मिल जाए तो वह पहले उसे भरता है। उसे भर कर आगे बढ़ सके तो ठीक नहीं तो वह उतने से ही संतोष पा लेता है। वह किसी से ऐसी शिकायत नहीं करता, कभी ऐसा नहीं सोचता कि अरे मुझे तो समुद्र तक जाने का एक महान उद्देश्य, एक महान लक्ष्य, एक महान सपना पूरा करना था। और वह महान लक्ष्य तो पूरा हो ही नहीं पाया!
तो हम बहना शुरू करें। जीवन की इस यात्रा में छोटे-छोटे गड्ढ़े आएंगे, खूब प्यार के साथ उन्हें भरते चलें। उसी को यहां के अच्छे शिक्षण का एक उम्दा परिणाम मानें। इतनी विनम्रता हमें विद्यापीठ से मिली शिक्षा सिखा सके तो शायद हम समुद्र तक जाने की शक्ति भी बटोर लेंगे।
परिचय: श्री अनुपम मिश्र जाने माने पर्यावरणविद् हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी मार्ग (हिंदी) के सम्पादक हैं। हाल ही में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं।
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