स्कूलों में जल का पाठ्यक्रम अलग से जोड़ने की जरूरत

विश्व साक्षरता दिवस 08 सितम्बर 2015 पर विशेष


ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नई-नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं। कुछ ऐसी चुनौतियाँ जिनका समाधान हमें पारम्परिक ज्ञान से मिलने में दिक्कत आ रही है। ऐसी ही एक समस्या या संकट जल की उपलब्धता का है। वैसे ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में कम-से-कम दो हजार साल का ज्ञात इतिहास हमारे पास है। दृश्य और लौकिक जगत में अपने काम की लगभग हर बात के पता होने का हम दावा करते हैं। लेकिन जल से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान का पर्याप्त पाठ्य हमें मिल नहीं रहा है।

जल प्रबन्धन पर पारम्परिक और आधुनिक प्रौद्योगिकी जरूर उपलब्ध है लेकिन पिछले दो दशकों में बढ़ा जल संकट और अगले दो दशकों में सामने खड़ी दिख रही भयावह हालत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सामने बिल्कुल नई तरह की चुनौती खड़ी कर दी है।

हालांकि जागरूक समाज का एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा जल संकट को लेकर पिछले एक दशक से वाटर लिटरेसी यानी जल शिक्षा या जल जागरुकता की मुहिम चलाता दिख जरूर रहा है लेकिन नतीजे के तौर पर देखें तो ऐसे आन्दोलन का कोई असर नजर नहीं आया। इधर लोकतांत्रिक सरकार की सबसे ज्यादा कोशिश और अपनी पूरी क्षमता के बावजूद जल उपलब्धता की स्थिति यह है कि देश में सालाना प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता पचास फीसद से ज्यादा नहीं बची है।

देश की जनसंख्या में हर साल दो करोड़ की बढ़ोत्तरी पर हमारा ध्यान पानी की उपलब्धता को सामने रखकर नहीं गया। जनसंख्या नीति की बातें करते समय हमने यह कभी नहीं माना कि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज से भी जनसंख्या पर गौर कर लें।

इसी का नतीजा माना जा सकता है कि आज़ादी के समय हम जल सम्पन्न देश होते हुए भी आज बुरी तरह से जल विपन्न देशों की सूची में आ गए हैं। पानी के इस्तेमाल में किफायत बरतने की शिक्षा और जल संरक्षण के उपायों का प्रचार इसलिये बेमानी साबित हो सकता है क्योंकि चाहे नहाने, धोने और पीने के लिये हो और चाहे खेती के लिये, हमारे पास जरूरत के मुताबिक पानी उपलब्ध ही नहीं है।

देश में जागरूक समाज का जो छोटा सा हिस्सा जल शिक्षा या जल जागरुकता को लेकर अपने-अपने अभियानों की सार्थकता का दावा करता है उनके सन्देशों और गतिविधियों को देखें तो वे घूम-फिरकर सरकार के कान उमेठते रहने में ही ज्यादा व्यस्त रहे हैं। नए बाँध बनाने के विरोध में खड़े हुए आन्दोलनों में भी ये बात हमेशा गायब सी रही कि पानी की इतनी बड़ी जरूरत पूरी करने का और विकल्प है क्या?

बहुत सम्भव है कि ऐसा इसलिये हो गया हो कि इतने बड़े देश के कुल जल संसाधनों का हिसाब-किताब समझना और समझाना उतना आसान काम नहीं था। आज भी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के पाठ्यक्रम में जलचक्र और जल प्रबन्धन के उपयोगी पाठ जोड़े नहीं जा सके। इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र के एक-से-एक जटिल तथ्य उन किशोर उम्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं लेकिन जल संसाधनों की उपलब्धता के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया जाता।

अगर जल के पाठ्यक्रम के बारे में सोचा जाता है तो और कुछ हो या न हो कम-से-कम एक यह सम्भावना तो बनती ही है कि भविष्य में ये विद्यार्थी जल विज्ञान के क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिये प्रेरित हो सकते हैं। आज स्थिति यह है कि सिविल इजीनियरिंग में बीटेक या बीई करने वाला विद्यार्थी भी इस बात पर ज्यादा गौर नहीं कर पाता कि जल विज्ञान कितना महत्त्वपूर्ण विषय है और करियर के तौर पर भी इसमें कितनी सम्भावनाएँ हैं।

देश में जल संकट की जड़ जनसंख्या वृद्धि की दर के बारे में यानी जनसांख्यिकी विषय भी स्कूली या विश्वविद्यालयीन शिक्षा में बड़ी लापरवाही और यूँ ही शामिल किया नजर आता है। देश के मेधावी छात्रों तक को पता नहीं होता कि नृतत्वशास्त्र भी अध्ययन का अलग से कोई विषय है।

जल के पाठ्यक्रम के बारे में सोचा जाता है तो और कुछ हो या न हो कम-से-कम एक यह सम्भावना तो बनती ही है कि भविष्य में ये विद्यार्थी जल विज्ञान के क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिये प्रेरित हो सकते हैं। आज स्थिति यह है कि सिविल इजीनियरिंग में बीटेक या बीई करने वाला विद्यार्थी भी इस बात पर ज्यादा गौर नहीं कर पाता कि जल विज्ञान कितना महत्त्वपूर्ण विषय है और करियर के तौर पर भी इसमें कितनी सम्भावनाएँ हैं। खासतौर पर सामाजिक नृतत्वशास्त्र को स्कूली पाठ्यक्रम शामिल करने से स्कूली शिक्षा में समाज विज्ञान को आवश्यक रूप से पढ़ाए जाने का घोषित लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है। उच्चतर माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में जल विज्ञान और नृतत्वशास्त्र को शामिल किया जाना हमारी आज की समस्याओं और ज़रूरतों के लिहाज से तो काम का साबित होगा ही साथ ही विज्ञान के छात्रों के लिये ये विषय रोचक भी हो सकते हैं।

उस स्थिति में बहुत सम्भव है कि समाज के जागरूक लोगों का वह बहुत छोटा-सा हिस्सा जो जल और जनसंख्या जैसे मुद्दों को महत्त्वपूर्ण मानता है उसे आसानी से व्यवस्थित, विश्वसनीय व वैज्ञानिक विषयवस्तु भी मिलने लगे जिसके सहारे जल कार्यकर्ता वाटर लिटरेसी के असरदार आन्दोलन खड़े कर सकें।

अब बात आएगी जल और जनसंख्या पर स्कूली पाठ्यक्रम बनाने की। दोनों ही विषय इतने जटिल और गम्भीर हैं कि परम्परावादी और प्राच्यप्रिय लोग इसमें दिलचस्पी लेने से बच नहीं सकते। आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी और परम्परावादियों के बीच झगड़ा-झंझट होने से बच नहीं सकता। ऐसी स्थिति में परम्परावादियों को समझाया जा सकता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।

ज्ञात प्राचीन काल में कभी ऐसे जल संकट का उल्लेख है नहीं सो प्राचीन ज्ञान ग्रंथों में ऐसा ज्ञान या प्रौद्योगिकी होने की सम्भावना कम है। लिहाजा कम-से-कम इस मामले में ज्ञान के नव सृजन के काम में लगना पड़ेगा। उनसे अनुरोध किया जा सकता है कि अपूर्व संकट के इस मौके पर आधुनिक जल विज्ञान और प्रबन्धन प्रौद्योगिकी के विद्वानों के बुद्धि उत्तेजक विमर्श में सहयोग करें ताकि स्कूली पाठ्यक्रम बनाने में सुविधा हो।

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Post By: RuralWater
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