शिवनाथ और ईब

कलकत्ता आते और जाते समय अनेक नदियों से मुलाकात होती है। इस प्रदेश का इतिहास मुझे मालूम नहीं है, इसकी शर्म आती है। यहां के लोग कितने सरल और भले मालूम होते हैं! उन्होंने यदि मनुष्य-संहार की कला हस्तगत की होती, तो उनका नाम इतिहास में अमर हो जाता। कुछ लोग मरकर अमर होते हैं। कुछ लोग मारनेवालों के रूप में अमर होते हैं। मलिक काफुर, काला पहाड़ आदि दूसरी कोटि के लोग हैं।

इन नदियों के किनारे लड़ाइयां हुई हों तो मुझे मालूम नहीं। इसलिए मेरी दृष्टि से इन नदियों का जल फिलहाल तो विशेष पवित्र है। चर्मण्वती ने यज्ञ-पशुओं के खून का लाल रंग धारण किया। शोण और गंगा ने सम्राटों का महत्त्वाकांक्षी रक्त हजम किया। इन नदियों ने भी वैसा ही किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। मगर जब तक मुझे मालूम नहीं है, तब तक इस अनिश्चय का लाभ मैं उन्हें देता हूं।

किन्तु इन नदियों के किनारे कई साधुओं ने तप अवश्य किया होगा और कृतज्ञतापूर्वक उनके स्रोत भी गाये होंगे। यह भी मुझे मालूम नहीं है। फिर भी मैं अपने को भारत वासी कहता हूं!

एकबार मैं द्रुग गया था तब शिवनाथ नदी का मुझे थोड़ा परिचय हुआ था। गोंड़, भील आदि पर्वतीय जातियों की वह माता है। सारे छत्तीसगढ़ की तो वह स्तन्यदायिनी है। उसकी करुण कथा चित्त को गमगीन करने वाली है। पुण्य सलिला नदी की कहानी क्या ऐसी होती है? किन्तु नदी बेचारी क्या करे? विजयी आर्यों ने यदि उसकी कथा गढ़ी होती तो उसमें उल्लास का तत्त्व मिल जाता। यह तो हारी हुई, दबी हुई और उलझन में पड़ी हुई आदिम-निवासियों की जाति के संस्मरणों के साथ बहने वाली नदी है! उसकी कहानियां तो वैसी ही गमगीनी-भरी होगी।

कलकत्ते के रास्ते पर शिवनाथ नदी बार-बार मिलती है और कहती हैः राजाओं के और साधुओं के इतिहास से तुम संतोष मत मानना। विजेताओं के और सम्राटों के इतिहास में तुम्हें लोक-हृदय नहीं मिलेगा। ब्राह्मण और श्रमण, मुल्ला और मिशनरी, किसी ने भी जिनका दुःख नहीं जाना ऐसे पहाड़ी लोगों के दुःख दर्द का अध्ययन करने की दीक्षा मैं तुम्हें दे रही हूं। क्या यह दीक्षा लेने का साहस तुम में हैं?

हिन्दुस्तान की मूक जनता को वाचाल एकता देने के हेतु से मैं हिन्दुस्तानी का प्रचार कर रहा हूं। इसी काम के सिलसिले में अभी मैं पूना हो आया। इसी काम के लिए अब रामगढ़ जा रहा हूं। वहां की कांग्रेस में तमाम प्रांतों के लोग आयेंगे। गांधी जी के आग्रह के कारण कांग्रेस के अधिवेशन अब देहातों में होने लगे हैं। यह सब ठीक है। मगर क्या रामगढ़ मे भी ये पर्वतीय लोग आयेंगे? बिहार के ‘सान्थाल’ और ‘हो’ शायद आयेंगे। किन्तु पता नहीं इस शिवनाथ के पुत्र आयेंगे या नहीं।

आज सुबह से अनेक नदियां देखीं। लंबे-लंबे और चौड़े पत्थरों वाली नदी भी देखी और कीचड़वाली नदी भी देखी। जिसके किनारे एक भी पेड़ नहीं है ऐसी नदी भी देखी और जिसने एक ओर पेड़ों की एक मोटी दीवार खड़ी की है ऐसी नदी भी देखी। सफेद बगुले उसके पट पर कीचड़ में अपने पैरों की आकृतियां बना रहे थे। मगर इस चरणलिपि में मैं कोई इतिहास नहीं पा सका, न किसी दंतकथा का हल खोज सका। नदी आशा से लिखती जाती है और निराशा से अपना लिखा लेख मिटाती जाती है और नये लेखक-पाठकों की राह देखती रहती है।

हम झारसूगुड़ा जंक्शन के पास जा रहे हैं। एक छोटा-सा स्टेशन पास आ रहा है। इतने में हमारे रास्ते के नीचे से बहती हुई एक सुन्दर नदी हमने देखी। सभी नदियां सुंदर होती है, मगर इस नदी में असाधारण सुन्दर आकृतियां बनाने की कला नजर आयी। पानी के स्रोत में भंवर पैदा होते होंगे। काई के कारण पानी को विशेष रूप प्राप्त होता होगा। ऊपर से यह सब देखकर मुझे रवीन्द्रनाथ के चित्र याद आये। इस नदी की आकृतियां भी बिना कुछ बोले, बिना कोई बोध दिये, हृदय तक पहुंचती थीं और वहां हमेशा के लिए अपनी छाप डाल देती थीं। इसी का नाम है सच्ची कला!

मगर इस नदी का नाम क्या है? परिचय हो और नाम न मिले, यह कितनी विचित्र स्थिति है! इतने में ईब स्टेशन आया। हमने लोगों से पूछा, ‘इस नदी नाम क्या है?’ उन्होंने बताया ‘ईब’। ‘नदी के नाम पर से ही स्टेशन का नाम पड़ा है।’ तब उसमें औचित्य नहीं है, ऐसा कौन कहेगा? मगर मन में संदेह जरूर पैदा हुआ। यहां भेडेन नामक एक नदी ईब से मिलती है। स्टेशन भेडेन के किनारे हैं। ईब जरा बड़ी है; इसी कारण भेडेन के साथ अन्याय करके उसका नाम स्टेशन को नहीं दिया गया। भेडेन कोई मामूली नदी नहीं है। काफी चौड़ी है। दूर से आती है। मगर वह किसी तरह का गर्व रखते हुए अपना पानी ईब को सौंप देती है और अपने नाम का आग्रह भी नहीं रखती। मैंने ईब से पूछाः ‘देखों उदारता में यह भेडेन तुझसे श्रेष्ठ है या नहीं?’ ईब ने जरा-सा आकृतियों वाला स्मित करके कहाः “यह तो तुम मनुष्य जानो! भेडेन ने अपना नाम छोड़कर अपना नीर मुझे दे दिया, इस उदारता की तारीफ करने के बजाय उससे अर्पण की दीक्षा लेकर उसके जैसी बनना मुझे अधिक पसंद है। देखो, उसका और मेरा नीर इकट्ठा करके महानदी को देने के लिए मैं संबलपुर जा रही हूं। वहां मैं भी अपना नाम छोड़ दूंगी। इस प्रकार उत्तरोत्तर नाम रूप का त्याग करने से ही हम सबको महानदी का महत्त्व प्राप्त हुआ है; और वह भी सागर को अर्पण करने के लिए ही।”

और जाते-जाते ईब ने अनुष्टुभ् छंद में एक पंकित गा सुनाईः

सर्वे महत्त्वम् इच्छिन्ति कुलं तत् अवसीदति।
सर्वे यत्र विनेतारः राष्ट्रं तत् नाशम् आप्नुयात।।


ईब का यह संदेश सुनकर ही मैं रामगढ़ गया।

मार्च, 1940

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