शीत जल मत्स्यिकी - संसाधन एवं पुनर्वासन (Cold Water Fisheries - Resources & Rehabilitation)


जल संसाधनों में इन मछलियों की अधिकाधिक उपलब्धता के लिये विभिन्न प्रसार एवं पुनर्वासन कार्यक्रमों के माध्यम से इन प्रजातियों पर गम्भीर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की चुनौतियों और कार्य की विविधता के संदर्भ में समस्त संबंधित मत्स्य पालकों के मध्य सघन प्रयास की आवश्यकता है।

प्रकृति में शीत जल संसाधनों का वैविध्य है। यह विविधता झरनों, नदियों, झीलों तथा ऊँचाइयों से गिरने वाले स्रोतों के रूप में व्याप्त है तथा सम्पूर्ण हिमालयी तथा भारत के दक्षिणी पठारी क्षेत्रों में फैली है। यह संसाधन भोजन, आखेट एवं सजावटी मत्स्य प्रजातियों की सतत संख्या को नियंत्रित करते हैं। कुछ दशक पूर्व इन संसाधनों पर विचार किया गया तथा यह पाया गया कि उच्च क्षेत्रों में निवास करने वाली जनता के लिये ये संसाधन विकसित किए जा सकते हैं। पिछले पाँच दशकों में जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक संबंद्धि ने न केवल मैदानी वरन पर्वतीय क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है। व्यापक पैमाने पर विकसित क्रियाकलापों ने ठण्डे पानी की नदियों, झीलों एवं अन्य स्रोतों की पारिस्थितिकी को प्रभावित किया है और इस पारिस्थितिकी प्रणाली से मत्स्य उपलब्धता में बहुत कमी आयी है। भारत के हिमालयी तथा दक्षिणी भाग में शीत जल मत्स्य संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए शीत जल मत्स्य प्रजातियों के विकास हेतु उचित कदम उठाने आवश्यक हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में शीत जल मात्स्यिकी सामान्यत: उत्तर में बृहद हिमालय, हिमालय जल क्षेत्र तथा दक्षिणी पठार (पश्चिमी घाट) के दक्षिणी ढलान वाले जलस्रोतों में बहुतायत से पायी जाती है। यद्यपि शीत जल मत्स्य शब्द का संबंध साल्मोनिडी की मछलियों एवं जल पारिस्थितिकी से है जो ट्राउट मछलियों के बेहतर जीवन हेतु सामान्य ऑक्सीजन व तापक्रम का स्तर बनाए रखती है। प्राय: 20 डिग्री से.ग्रे. से कम तापक्रम वाली नदियों, झीलों व अन्य जल स्रोतों में रहने वाली महासीर, स्नो ट्राउट तथा अन्य सामान्य वर्ग की मछलियाँ भी इस परिभाषा के अंतर्गत आती है। विभिन्न प्रकार के भौतिक रासायनिक, भू रासायनिक एवं जैविकी तत्व जैसे- जल का तापक्रम, अवमुक्त ऑक्सीजन, जल वेग, गदलापन, आधार तत्व, पोषण स्तर, आहार उपलब्धता आदि शीत जल की विभिन्न मत्स्य प्रजातियों के वितरण व प्रचुरता को प्रभावित करते हैं।

भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित विभिन्न शीत जल स्रोतों में विभिन्न व अनोखी प्रकार की मछलियाँ पायी जाती हैं जिनमें 258 मत्स्य प्रजातियाँ जो कि 76 वंश से संबंधित है सम्पूर्ण हिमालयी व दक्षिणी पठारी क्षेत्रों में फैली है। मुख्यत: स्नो ट्राउट, महासीर, माइनर कार्प, बारील्स, मिन्नउ, कैटफिश तथा लोचेस आदि देशी प्रजाति की तथा ट्राउट व चाइनीज कार्प विदेशी प्रजाति के अंतर्गत आती है। यद्यपि उत्तर पश्चिम से उत्तर-पूर्व तक फैले हुए विशाल हिमालय क्षेत्रों में अन्य प्रकार के असंख्य प्राकृतिक तथा मानव निर्मित जल संसाधनों का भण्डार है।

भारत में अन्तर्स्थली मत्स्य उत्पादन के क्षेत्र में पर्वतीय राज्यों का योगदान 3-4 प्रतिशत है। यद्यपि इसकी क्षमता इससे अधिक है। जिसे बाद में हिमालय क्षेत्र की विभिन्न ऊँचाई वाले क्षेत्रों में मात्स्यिकी विकास गतिविधियों, आवासों एवं मात्स्यिकी संसाधनों के संरक्षण को बेहतर मत्स्य प्रजाति संयोजन द्वारा 8-10 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है।

हिमालयी नदियों में मत्स्य प्रजातियों का वितरण मुख्यत: प्रवाह क्षेत्र, प्रकृति का आधार, जल का तापक्रम तथा भोजन की उपलब्धता पर आधारित है। तेज प्रवाह वाली नदियों के मुहाने वाले क्षेत्रों में रिहोफिलिक प्रजाति की कैट फिश (निमाचिलस ग्रेसिलिस, एन स्ओलिकी तथा ग्लैप्टोस्टरनम रेटीकूलेटम) तथा बड़े नदी क्षेत्र में डिप्टीकस मैक्यूलेटस एवं निमाचिलस प्रजातियों का आवास होता है। इनमें एक ओर ऊपरी क्षेत्रों में स्नोट्राउट मछलियों की रिहोफिलिक प्रजाति की साइजोथोराक्थीज इसोसीनस, एस प्रोजेस्टस शाइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी एवं साइजोगोप्सीज स्ओलिके जिनमें साइजोथोरैक्स लौंगिपिनस, एस प्लैनिफ्रांस व एस माइक्रोपोगोन की बहुलता होती है का आवास होता है तो दूसरी ओर निम्न क्षेत्रों में गारा गोटाइला, क्रोसोचिलस डिप्लोचिलस, लैबियो डेरो एवं एल डायोचिलस का। यद्यपि विसर्पी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में ठण्डी तथा यूरीथरमल प्रजातियाँ जैसे -बारील्स, टौर, कैटफिशें, होमालोप्टीरिड मछली (होमालोप्टेरा) एवं स्नेकहैड; चन्ना) आदि का आवास स्थल होता है।

व्यावसायिक एवं जीविका की दृष्टि से मुख्यत: कार्प (लेबियो एवं टोर) बारील्स गारीडस (गारा प्रजाति) एवं सिसोरिडस (ग्लैप्टोथोरैक्स एवं ग्लोप्टोस्टीरनम) प्रजाति आदि का प्रयोग किया जाता है। अन्य वर्गों में छोटे आकार की वह बहुत कम मूल्य वाली मछलियाँ आती हैं। विदेशी ब्राउन ट्राउट (सालमो ट्रूटा) ने हिमालय के कुछ क्षेत्रों में अपने आपको व्यवस्थित किया है।

मछली पकड़ने की विधियों में जाल, हापा एवं जहर सामान्यत: प्रयोग में लाये जाते हैं। कास्ट नेट का प्रयोग अधिकांश जनों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। अन्य प्रयोग किए जाने वाले जालों में - ड्रेग नेट, नुकीले, खूंटा जाल, बैग नेट तथा अन्य प्रकार के जाल मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त अनेक विषैले रसायनों का भी प्रयोग किया जाता है जिनमें-चूना, रामबांस का अर्क (यूफौरबिया रोगलिआना), ब्लीचिंग पाउडर, उबली हुई चाय की पत्तियाँ आदि मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त बरछा, भाला, हारपून आदि का भी विभिन्न हिमालयी जल स्रोतों में इस्तेमाल किया जाता है।

भारत में आखेट की शुरूआत अंग्रेजों ने इस शताब्दी की प्रथम अर्ध सदी के पूर्व की थी और मुख्यत: इस क्षेत्र में पर्वतीय जल स्रोतों में उन्होंने ब्राउन ट्राउट और रेन्बो ट्राउट मछलियों का प्रवेश कराया। प्रमुख आखेट योग्य मछलियों में- टौर पुटिटोरा, टौर-टौर एवं ब्राउन ट्राउट आदि हैं।

जल संसाधनों में इन मछलियों की अधिकाधिक उपलब्धता के लिये विभिन्न प्रसार एवं पुनर्वासन कार्यक्रमों के माध्यम से इन प्रजातियों पर गम्भीर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की चुनौतियों और कार्य की विविधता के संदर्भ में समस्त संबंधित मत्स्य पालकों के मध्य सघन प्रयास की आवश्यकता है।

लेखक परिचय
पी.सी. महंता एवं एस. अय्यप्पन
राष्ट्रीय शीत जल मात्स्यिकी अनुसंधान केन्द्र भीमताल

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