इन दिनों मध्य प्रदेश के उज्जैन में सिंहस्थ कुम्भ चल रहा है। हर 12 साल में आयोजित कुम्भ में देशभर से करोड़ों श्रद्धालु यहाँ पहुँचते हैं और क्षिप्रा नदी में स्नान करते हैं। लेकिन इस बार तमाम प्रयासों और कवायदों के बावजूद क्षिप्रा का पानी सिंहस्थ शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका था। लिहाजा प्रदेश सरकार को नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना से बड़ी मात्रा में नर्मदा का पानी उज्जैन में क्षिप्रा को प्रवाहमान बनाए रखने के लिये लाना पड़ा। इस कवायद में भारी–भरकम खर्च भी हुआ और सरकारी अमले को भी महीनों तक जुटे रहना पड़ा।
नदियों में पानी जिस तीव्रता से कम होता जा रहा है, उसकी पूर्ति करने के लिये हमें अपने सरकारी धन का बड़ी तादाद में खर्च करना पड़ रहा है। यह हमारे लिये एक बानगी भी है और एक चेतावनी भी कि यदि अब भी और इतनी मशक्कत के बाद भी हम बारिश के पानी को नहीं सहेज पा रहे हैं और हमारे जल संसाधनों को साफ नहीं रख पा रहे हैं तो आने वाले दिन कड़ी मुश्किलों का सामना करने के लिये हमें अब तैयार रहना होगा। पानी के संकट से हमें फिर कोई नहीं बचा सकता। जिस लापरवाही और छोटे स्वार्थों से हमने अपनी सदानीरा नदियों को नालों में बदल दिया, अब उसका असर हमें साफ नजर आने लगा है।
सदियों से उज्जैन में क्षिप्रा तट पर सिंहस्थ का कुम्भ भरता रहा है, लेकिन कभी नदी में पानी के लिये इतनी बड़ी जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी थी। यह पहली बार है जबकि इतनी बड़ी राशि खर्च कर मशक्कत करना पड़ रहा है। हम क्षिप्रा के पानी को प्रवाहमान नहीं रख सके, इसी वजह से हमें यहाँ सिंहस्थ के लिये नर्मदा का पानी कई किमी दूर से लाकर यहाँ छोड़ना पड़ रहा है।
बीते कुछ सालों से क्षिप्रा नदी गर्मियों के आते ही सूखने लगी है और इसमें स्नान तो दूर आचमन कर पाना भी सम्भव नहीं हो पाता है। इसलिये सिंहस्थ कुम्भ के लिये इसमें लाखों श्रद्धालुओं को स्नान करा पाना सरकार के लिये सबसे बड़ी चुनौती बन गया था।
सिंहस्थ के लिये प्रदेश की सरकार को बजट का बड़ा हिस्सा सिर्फ पानी पर खर्च करना पड़ रहा है। अब तक 200 करोड़ रुपए का तो नर्मदा नदी का पानी ही यहाँ क्षिप्रा नदी में प्रवाहित किया जा चुका है। इसके अलावा प्रदूषित खान नदी को क्षिप्रा में मिलने से रोकने पर भी सरकार को करीब 180 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े हैं। 12 करोड़ लागत से 7.75 गैलन क्षमता के दो फिल्टर प्लांट भी लगाए गए हैं। 164 करोड़ की लागत से क्षिप्रा में लाल पुल से दत्त अखाड़ा तक करीब 5 किमी लम्बे घाट बनाए गए हैं। इसके अलावा 44 करोड़ रुपए नर्मदा के पानी को लाने में खर्च हो रही बिजली बिल के रूप में सरकार को देने पड़ रहे हैं।
सिंहस्थ को ही ध्यान में रखकर सरकार ने 432 करोड़ रुपए की लागत से नर्मदा–क्षिप्रा लिंक योजना को पहले ही 2014 में मूर्त रूप दे दिया गया था। इसके लिये नर्मदा के पानी को पाइपलाइन से उद्वहन कर खरगोन जिले के सिस्लिया से पहले इंदौर के पास उज्जैनी गाँव में क्षिप्रा के उद्गम स्थल लाया गया और वहाँ से देवास स्थित क्षिप्रा बाँध में नर्मदा पानी को संग्रहित कर जरूरत के मुताबिक उज्जैन में शाही स्नान और अन्य दिनों के लिये क्षिप्रा में छोड़ा जा रहा है। फिलहाल नर्मदा का पानी करीब सवा सौ किमी की यात्रा तय करते हुए उज्जैन पहुँच रहा है।
इस तरह समग्र रूप से देखें तो सरकार अब तक सिर्फ नर्मदा के पानी को ही उज्जैन क्षिप्रा नदी तक लाने के लिये 800 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। इसमें सिर्फ और सिर्फ नर्मदा के पानी को क्षिप्रा में प्रवाहित करने में खर्च हो रही राशि का ही हिसाब है। इसके अलावा भी 3061 हेक्टेयर में फैले सिंहस्थ मेला क्षेत्र में पीने के पानी को लेकर की गई बड़े पैमाने पर व्यवस्थाओं का खर्च शामिल नहीं है और न ही उज्जैन शहर में वितरित किये जाने वाले पानी के खर्च का कोई ब्यौरा है।
फिलहाल सिंहस्थ के दौरान उज्जैन शहर में प्रतिदिन 62 मिलियन लीटर जलापूर्ति की जा रही है। पेयजल स्रोत नर्मदा क्षिप्रा लिंक योजना, गम्भीर डैम, साहेबखेड़ी तालाब एवं उडासा तालाब है। मेला क्षेत्र में 250 नए नलकूपों का खनन किया गया है। साथ ही 12 हजार नल कनेक्शन प्रदान किये गए हैं। जल वितरण के लिये मेला क्षेत्र में 160 किमी लम्बी पाइप लाइन बिछाई गई है। 10 टंकियों के माध्यम से जल वितरण किया जा रहा है। साधु-सन्तों के पंडालों में 2000 से 5000 लीटर क्षमता की छोटी पानी की टंकियाँ रखवाई गई हैं। मेला क्षेत्र में किराए के टैंकरों के माध्यम से भी जलापूर्ति की जा रही है। मेला क्षेत्र में गन्दे पानी का निष्पादन 145 किमी लम्बी पाइप लाइन के माध्यम से किया जा रहा है। 9 पम्पिंग स्टेशन और 29 अस्थायी सम्पवेलों का निर्माण भी किया गया है।
क्षिप्रा नदी में अब तक 2790 एमसीएफटी(2.8 बिलियन क्यूबिक फीट) नर्मदा का पानी छोड़ा जा चुका है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधिकारियों के मुताबिक नर्मदा के पानी की कीमत 22 रुपए 60 पैसे प्रति हजार लीटर के मान से तय की जाती है। इस तरह इस पानी की कीमत हो जाती है करीब 178 करोड़ रुपए। यह अब तक के कुम्भ का सबसे महंगा पानी साबित हुआ है। यदि इस पानी को शहर में वितरित किया जाता तो उज्जैन जैसे शहर के लिये यह करीब डेढ़ साल तक चार लाख लोगों की प्यास बुझा सकता था। अधिकारी दावा करते हैं कि चार पम्पिंग स्टेशनों से 28 हजार किलोवाट की पूरी क्षमता से चला रहे हैं और इससे हर सेकेण्ड क्षिप्रा में 5 हजार लीटर नर्मदा पानी छोड़ा जा रहा है।
गौरतलब है कि क्षिप्रा में पानी की कमी और सिंहस्थ में पानी की माँग के मद्देनजर सरकार ने पहले ही कदम उठाते हुए 6 फरवरी 2014 को नर्मदा–क्षिप्रा लिंक परियोजना का काम पूरा कर लिया था। तब से अब तक इससे क्षिप्रा नदी में 3000 एमसीएफटी नर्मदा का पानी छोड़ा जा चुका है। इसके संचालन पर 50 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। बीते दो सैलून में इस पर बिजली का खर्च ही करीब 44 करोड़ रुपए का हो चुका है। इसके अलावा 6 करोड़ रुपए का खर्च नए तरीके से ठेका संचालन पर हुआ। यहाँ गौरतलब यह भी है कि इस परियोजना पर आज तक जितना भी खर्च किया गया, उससे सरकार को एक रुपए की भी अब तक कोई आमदनी नहीं हुई है। नर्मदा पानी को बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठानों और देवास के उद्योगों को भी पैसे लेकर पानी देने की कई योजनाएँ इस बीच बनाई गई लेकिन अभी तक कहीं से भी कोई अमल नहीं हुआ है। शायद सरकार की मंशा भी सिंहस्थ से पहले किसी को भी इसका पानी नहीं देने की रही है। लगता है अब सिंहस्थ के बाद ही सरकार इस योजना से कोई आमदनी कर सके।
स्कन्दपुराण में क्षिप्रा का बहुत महत्त्व बताया गया है। विक्रमादित्य शोध संस्थान के निदेशक डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित बताते हैं कि उज्जैन में सिंहस्थ और कुम्भ का समन्वय है। इस कुम्भपर्व में दस अनूठे योग मिलते हैं, जो अन्यत्र किसी कुम्भ में नहीं मिलते। इसलिये यहाँ स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिये बड़ी तादाद में श्रद्धालु पहुँचते हैं। यहाँ स्नान से गंगा स्नान से भी दस गुना ज्यादा फल मिलता है। इसीलिये क्षिप्रा स्नान से अमर होने की बात आई है।
इससे पहले 1897 के सिंहस्थ कुम्भ में भी अकाल की वजह से यहाँ की क्षिप्रा नदी में पानी नहीं होने से गम्भीर हालात बन गए थे। तब उज्जैन के पास महिदपुर के क्षिप्रा तट पर सिंहस्थ मेले को स्थानान्तरित करना पड़ा था। बुजुर्ग बताते हैं कि तब बारिश नहीं होने से लोगों को न पानी मिल पा रहा था और न ही अन्न। लोग पलायन करने को मजबूर थे। इसलिये उज्जैन की जगह इसे 50 किमी दूर महिदपुर कस्बे में लगाया गया था और साधु–सन्तों ने वहीं स्नान भी किया था। तब उज्जैन क्षेत्र ग्वालियर के सिंधिया घराने और महिदपुर इन्दौर के होलकर राजाओं की रियासत में आता था। होल्कर रियासत ने पानी और राशन दोनों की व्यवस्थाएँ की थी।
हालांकि बड़ा सवाल यही है कि इस बार जैसे-तैसे सरकार ने सैकड़ों करोड़ खर्च करके सिंहस्थ में साधु–सन्तों और श्रद्धालुओं को क्षिप्रा में नर्मदा के पानी में भले ही डूबकी लगवा कर अपनी पीठ थपथपा ली हो पर आने वाले दिनों में पानी का संकट साफ सुनाई दे रहा है। इसके लिये स्थायी उपाय और तौर–तरीके ढूँढने होंगे और ईमानदारी से उनपर अमल भी करना होगा अन्यथा पानी हमारी जिन्दगी से लगातार दूर तो होता ही जा रहा है।
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