भारत का तापघर कहे जाने वाले सिंगरौली में कोयले का अकूत भंडार है और यहां कई ताप उर्जा घर हैं। नतीजतन इस इलाके को बेहद सम्पन्न होना चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि यह गरीब और अत्यंत प्रदूषित क्षेत्र है। यहां के लोग असाधारण बीमारियों से जूझ रहे हैं। दिल्ली स्थित सेंटर फॅार साइंस एंड एनवायरमेंट ने यहां जांच कर पाया कि कोयले में पाया जाने वाला घातक विषैला तत्व पारा धीरे- धीरे लोगों के घरों, भोजन, पानी और खून में भी प्रवेश कर रहा है। पचास के दशक में जापान में घटी मिनीमाता दुर्घटना ने सारे विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। इस दुर्घटना में मिनीमाता खाड़ी के पास रहने वाले सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी एवं कई विकलांग हो गये थे। यह दुर्घटना एक रासायनिक कारखाने से निकले अपषिष्ट में मौजूद पारे (मरक्यूरी) के कारण हुई थी। पारे की विषाक्तता से यह बीमारी मुख्य रूप से षरीर के स्नायुतंत्र को प्रभावित करती है। यही कहानी अब देश के पावर हाउस कहे जाने वाले मध्य प्रदेश-उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे सिंगरौली क्षेत्र में दोहराई जा रही है।
दुनिया भर में पारे का उपयोग बेटरी, पेंट, प्लास्टिक, चिकित्सा उपकरण, कास्टिक सोड़ा, कागज, कीटनाशी, ट्यूबलाइट एवं ऊर्जा बचाने वाले सीएफएल बल्ब में किया जाता है। इसीलिए इन कारखानों के अपशिष्ट में पारा किसी न किसी रूप में पाया जाता है। पारा या उसके यौगिक एक बार पर्यावरण में आने पर भोजन श्रृंखला के अलग-अलग स्तर पर एकत्र होते हैं एवं उनकी मात्रा भी बढ़ती रहती है। मनुष्य में पारा मछली, सब्जी, अनाज, दूध, पेयजल, हवा आदि स्रोतों से पहुंच कर जमा होता रहता है। माना जाता है कि मनुष्य प्रतिदिन भोजन से 0.005 मिलीग्राम पारा ग्रहण करता है। मिथाईल मरक्युरी पारे का सबसे विषाक्त रूप है, क्योंकि मानव शरीर इसका 90 प्रतिशत से ज्यादा भाग अवशोषित करता है। पारे की विशेषता यह है कि यह कोशिकाओं में उपस्थित प्रोटीन से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर अपना प्रभाव डालता है। प्रारम्भ में पारे की विषाक्तता के लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। हानिकारक प्रभाव के लक्षण तभी दिखाई देते हैं जब शरीर में एकत्रित पारे की मात्रा ज्यादा होने लगती है। पारे की विषाक्तता का अंतिम प्रहार दिमाग एवं केन्द्रीय स्नायुतंत्र पर होता है, जहां क्षति पहुंचने से लकवा, अंधापन एवं याददाश्त में कमी, महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता एवं कुछ अन्य प्रभाव पैदा होते हैं।
हाल ही में दिल्ली स्थित स्वतंत्र गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने सिंगरौली में पारा विषाक्तता का अध्ययन किया था। ये प्रयोगशाला परीक्षण वहां की जल, मिट्टी, अनाज, मछली एवं लोगों के नाखून, बाल एवं रक्त के नमूनों में किए गए। यह अध्ययन चिलिकादाद, दिबुलगंज, किरवानी खैराही, ओबरा,रेणुकूट, अनापरा एवं अन्य गांवों में किए गए। सी. एस. ई. की प्रदूषण नियंत्रण प्रयोगशाला ने सोनभद्र जिले में पारे की जांच हेतु 6 समूह में नमूने एकत्रित किए थे। इसके अंतर्गत 19 लोगों के खून, बाल और नखूनों की जांच की गई। सोनभद्र के विभिन्न स्थानों से 23 नमूने वहां के पानी से लिए गए। जबकि 7 नमूने मिट्टी के लिए गए। 5 नमूने क्षेत्र में पैदा होने वाली फसलों चावल, गेहूं दालों के लिए गए। अध्ययन के परिणाम बेहद चैंकाने वाले थे। जिसमें पानी एवं मिट्टी के नमूनों में पारे के अलावा अन्य भारी धातुओं लेड, केडमियम, क्रोमियम और आर्सोनिक का भी पता चला। अनाज के नमूनों में भी भारी मात्रा में रसायन पाए गए। जबकि रिंहद नदी पर बने गोविंद वल्लभ पंत जलाशय की मछलियों में पारे के एक घातक रूप मिथाईल मरक्यूरी की जांच की गई। जल में घुलने के बाद पारा मिथाईल मरक्यूरी में बदल जाता है। मानव शरीर में लकवा, हाथ पैर में कम्पन्न, आंखों से कम दिखाई देना, सफेद दाग, श्वांस रोगों, जोड़ों के दर्द, याददाश्त में कमी, अवसाद, भ्रम, व्यवहार में बदलाव, गुर्दे में खराबी, महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता, बंध्यता, मृत शिशु एवं विकलांग शिशुओं के जन्म आदि के लक्षण देखे गये।
प्रयोगशाला की रिपोर्ट से पता चला कि 8 से 69 वर्ष के जिन 19 महिलाओं एवं पुरुषों के रक्त में पारे का स्तर औसतन 34.3 पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) था, जो कि अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षित मानक स्तर 5.8 पीपीबी से 6 गुना अधिक था। कैराही गांव के कैलाश के रक्त में पारे की मात्रा 113.48 पीपीबी पाई गई, जो कि सर्वाधिक थी। इसी प्रकार 11 लोगों के बालों में पारे का स्तर 1.17 पीपीएम से 31.32 पीपीएम के मध्य पाया गया जबकि सुरक्षित स्तर 6 पीपीएम तक हैं।
वर्तमान में सिंगरौली में कोयला आधारित ताप घरों की कुल उत्पादन क्षमता 13,200 मेगावाट है और लगभग 83 लाख टन कोयला प्रतिवर्ष निकाला जाता है। यहां पारा विषाक्तता के पीछे कोयला जिम्मेदार है। दरअसल पारा कोयले में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक खतरनाक तत्व है। एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर यह वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में फैल जाता है। एक आंकलन के अनुसार सिंगरौली में 1000 मेगावाट का बिजली घर वर्ष भर में लगभग 500 किलो पारा वायुमंडल में उत्सर्जित करता है। कोयला खदानों से निकले कोयले को धोने से भी पारे की कुछ मात्रा निकलकर जल एवं मिट्टी में पहुंच जाती है। एक ग्राम पारा लगभग 20 एकड़ भूमि को प्रदूषित करने की क्षमता रखता है। बिजलीघरों में कोयला जलाने से पारे की काफी मात्रा वायुमंडल में पहुंचती है। कोयले में पारे की मात्रा को ज्ञात करने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिंगरौली में कोयले के ग्यारह नमूनों का आकलन किया और पाया कि कोयले में पारे की मात्रा 0.09 पीपीएम से 0. 487 पीपीएम के बीच है। सन् 2011 में सीएसई ने सोनभद्र जिले के अनापरा गांव में कोयले में पारे की 0 .15 पी पी एम मात्रा दर्ज की थी।
वर्ष 1998 में लखनऊ स्थित भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केंद्र ने भी सिंगरौली क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया था। अध्ययन के दौरान लगभग 1200 लोगों का परीक्षण किया गया था। जिनमें से 60 प्रतिशत से अधिक के रक्त में पारे की मौजूदगी का स्तर काफी ऊंचा था। सोनभद्र की संस्था वनवासी सेवा आश्रम के जगत विश्वकर्मा के अनुसार सरकार ने संस्थान की रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया। और ना ही कोई ठोस कार्रवाई की। और अब सीएसई की रिपोर्ट से पारे की मात्रा के स्तर का जो खुलासा हुआ है, सरकारी उदासीनता को दर्शाता है।
भविष्य में देश में कई कारणों से पर्यावरण में पारा की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना है। नियम कानून शिथिल होने या सख्त कानूनों का ईमानदारी से पालन न होना है।
देश में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सरकार ने बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन किया है ताकि कोयले से बिजली बनाई जावे। कोयले से बिजली बनाने पर सिंगरौली की कहानी देश के कई स्थानों पर दोहराई जा सकती है। सरकार ने सिंगरौली को देश का 9वां सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाका घोषित किया है। सिंगरौली में पारे का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि मिनीमाता की संख्या हजारों में थी तो सिंगरौली की लाखों में है। इस टाइमबम को तुरंत बिखेरने से रोकना होगा। सरकार को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें और पारे प्रदूषण की समस्या का अविलंब निदान करें। इसके अलावा कोयला आधरित तापघरों, कोयला धुलाई के स्थानों और खनन के लिए पारे के मानक तय किये जाने चाहिए। वर्तमान और भविष्य में स्थापित किए जाने वाले संयंत्रों में अत्याधुनिक पारा नियंत्रण प्रणाली लागू की जाए एवं उन सभी पुराने संयंत्रों को बंद कर दिया जाना चाहिए जो इन मानकों को पूरा नहीं करते हैं। अगर समय रहते हम न चेते तो मिनीमाता की गलती दोहराने में देर नहीं लगेगी।
दुनिया भर में पारे का उपयोग बेटरी, पेंट, प्लास्टिक, चिकित्सा उपकरण, कास्टिक सोड़ा, कागज, कीटनाशी, ट्यूबलाइट एवं ऊर्जा बचाने वाले सीएफएल बल्ब में किया जाता है। इसीलिए इन कारखानों के अपशिष्ट में पारा किसी न किसी रूप में पाया जाता है। पारा या उसके यौगिक एक बार पर्यावरण में आने पर भोजन श्रृंखला के अलग-अलग स्तर पर एकत्र होते हैं एवं उनकी मात्रा भी बढ़ती रहती है। मनुष्य में पारा मछली, सब्जी, अनाज, दूध, पेयजल, हवा आदि स्रोतों से पहुंच कर जमा होता रहता है। माना जाता है कि मनुष्य प्रतिदिन भोजन से 0.005 मिलीग्राम पारा ग्रहण करता है। मिथाईल मरक्युरी पारे का सबसे विषाक्त रूप है, क्योंकि मानव शरीर इसका 90 प्रतिशत से ज्यादा भाग अवशोषित करता है। पारे की विशेषता यह है कि यह कोशिकाओं में उपस्थित प्रोटीन से जुड़कर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर अपना प्रभाव डालता है। प्रारम्भ में पारे की विषाक्तता के लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। हानिकारक प्रभाव के लक्षण तभी दिखाई देते हैं जब शरीर में एकत्रित पारे की मात्रा ज्यादा होने लगती है। पारे की विषाक्तता का अंतिम प्रहार दिमाग एवं केन्द्रीय स्नायुतंत्र पर होता है, जहां क्षति पहुंचने से लकवा, अंधापन एवं याददाश्त में कमी, महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता एवं कुछ अन्य प्रभाव पैदा होते हैं।
हाल ही में दिल्ली स्थित स्वतंत्र गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने सिंगरौली में पारा विषाक्तता का अध्ययन किया था। ये प्रयोगशाला परीक्षण वहां की जल, मिट्टी, अनाज, मछली एवं लोगों के नाखून, बाल एवं रक्त के नमूनों में किए गए। यह अध्ययन चिलिकादाद, दिबुलगंज, किरवानी खैराही, ओबरा,रेणुकूट, अनापरा एवं अन्य गांवों में किए गए। सी. एस. ई. की प्रदूषण नियंत्रण प्रयोगशाला ने सोनभद्र जिले में पारे की जांच हेतु 6 समूह में नमूने एकत्रित किए थे। इसके अंतर्गत 19 लोगों के खून, बाल और नखूनों की जांच की गई। सोनभद्र के विभिन्न स्थानों से 23 नमूने वहां के पानी से लिए गए। जबकि 7 नमूने मिट्टी के लिए गए। 5 नमूने क्षेत्र में पैदा होने वाली फसलों चावल, गेहूं दालों के लिए गए। अध्ययन के परिणाम बेहद चैंकाने वाले थे। जिसमें पानी एवं मिट्टी के नमूनों में पारे के अलावा अन्य भारी धातुओं लेड, केडमियम, क्रोमियम और आर्सोनिक का भी पता चला। अनाज के नमूनों में भी भारी मात्रा में रसायन पाए गए। जबकि रिंहद नदी पर बने गोविंद वल्लभ पंत जलाशय की मछलियों में पारे के एक घातक रूप मिथाईल मरक्यूरी की जांच की गई। जल में घुलने के बाद पारा मिथाईल मरक्यूरी में बदल जाता है। मानव शरीर में लकवा, हाथ पैर में कम्पन्न, आंखों से कम दिखाई देना, सफेद दाग, श्वांस रोगों, जोड़ों के दर्द, याददाश्त में कमी, अवसाद, भ्रम, व्यवहार में बदलाव, गुर्दे में खराबी, महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता, बंध्यता, मृत शिशु एवं विकलांग शिशुओं के जन्म आदि के लक्षण देखे गये।
प्रयोगशाला की रिपोर्ट से पता चला कि 8 से 69 वर्ष के जिन 19 महिलाओं एवं पुरुषों के रक्त में पारे का स्तर औसतन 34.3 पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) था, जो कि अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षित मानक स्तर 5.8 पीपीबी से 6 गुना अधिक था। कैराही गांव के कैलाश के रक्त में पारे की मात्रा 113.48 पीपीबी पाई गई, जो कि सर्वाधिक थी। इसी प्रकार 11 लोगों के बालों में पारे का स्तर 1.17 पीपीएम से 31.32 पीपीएम के मध्य पाया गया जबकि सुरक्षित स्तर 6 पीपीएम तक हैं।
वर्तमान में सिंगरौली में कोयला आधारित ताप घरों की कुल उत्पादन क्षमता 13,200 मेगावाट है और लगभग 83 लाख टन कोयला प्रतिवर्ष निकाला जाता है। यहां पारा विषाक्तता के पीछे कोयला जिम्मेदार है। दरअसल पारा कोयले में प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक खतरनाक तत्व है। एक हजार डिग्री से ज्यादा तापमान पर यह वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में फैल जाता है। एक आंकलन के अनुसार सिंगरौली में 1000 मेगावाट का बिजली घर वर्ष भर में लगभग 500 किलो पारा वायुमंडल में उत्सर्जित करता है। कोयला खदानों से निकले कोयले को धोने से भी पारे की कुछ मात्रा निकलकर जल एवं मिट्टी में पहुंच जाती है। एक ग्राम पारा लगभग 20 एकड़ भूमि को प्रदूषित करने की क्षमता रखता है। बिजलीघरों में कोयला जलाने से पारे की काफी मात्रा वायुमंडल में पहुंचती है। कोयले में पारे की मात्रा को ज्ञात करने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सिंगरौली में कोयले के ग्यारह नमूनों का आकलन किया और पाया कि कोयले में पारे की मात्रा 0.09 पीपीएम से 0. 487 पीपीएम के बीच है। सन् 2011 में सीएसई ने सोनभद्र जिले के अनापरा गांव में कोयले में पारे की 0 .15 पी पी एम मात्रा दर्ज की थी।
वर्ष 1998 में लखनऊ स्थित भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केंद्र ने भी सिंगरौली क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया था। अध्ययन के दौरान लगभग 1200 लोगों का परीक्षण किया गया था। जिनमें से 60 प्रतिशत से अधिक के रक्त में पारे की मौजूदगी का स्तर काफी ऊंचा था। सोनभद्र की संस्था वनवासी सेवा आश्रम के जगत विश्वकर्मा के अनुसार सरकार ने संस्थान की रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया। और ना ही कोई ठोस कार्रवाई की। और अब सीएसई की रिपोर्ट से पारे की मात्रा के स्तर का जो खुलासा हुआ है, सरकारी उदासीनता को दर्शाता है।
भविष्य में देश में कई कारणों से पर्यावरण में पारा की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना है। नियम कानून शिथिल होने या सख्त कानूनों का ईमानदारी से पालन न होना है।
देश में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सरकार ने बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन किया है ताकि कोयले से बिजली बनाई जावे। कोयले से बिजली बनाने पर सिंगरौली की कहानी देश के कई स्थानों पर दोहराई जा सकती है। सरकार ने सिंगरौली को देश का 9वां सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाका घोषित किया है। सिंगरौली में पारे का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि मिनीमाता की संख्या हजारों में थी तो सिंगरौली की लाखों में है। इस टाइमबम को तुरंत बिखेरने से रोकना होगा। सरकार को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें और पारे प्रदूषण की समस्या का अविलंब निदान करें। इसके अलावा कोयला आधरित तापघरों, कोयला धुलाई के स्थानों और खनन के लिए पारे के मानक तय किये जाने चाहिए। वर्तमान और भविष्य में स्थापित किए जाने वाले संयंत्रों में अत्याधुनिक पारा नियंत्रण प्रणाली लागू की जाए एवं उन सभी पुराने संयंत्रों को बंद कर दिया जाना चाहिए जो इन मानकों को पूरा नहीं करते हैं। अगर समय रहते हम न चेते तो मिनीमाता की गलती दोहराने में देर नहीं लगेगी।
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