थार के विशाल मरुस्थल में स्थित सिंधु नदी-प्रणाली (इन्डस रीवर सिस्टम) विश्व की एक महानतम नदी प्रणाली है। इस प्रणाली में सिंध नदी के अलावा उसकी प्रमुख सहायक नदियां , झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलज और लुप्त प्राय सरस्वती शामिल है। भारत के इतिहास में युग में प्रवेश करने के पूर्व भी पंजाब, सिंधु और राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी भाग सिंधु नदी प्रणाली से लाभान्वित होते रहे थे। गत कुछ दशकों मे की गई पुरातत्व सम्बन्धी खोज के फलस्वरूप यह सिद्ध हो गया है कि ईसा के 2300 वर्ष पूर्व गंगानगर जिले में स्थित कालीबंगा सभ्यता का केंद्र था, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता अथवा हड़प्पा संस्कृति कहा जाता है। कालीबंगा महानदी सरस्वती के किनारे पर स्थित थी।
यद्यपि सिंधु घाटी में बारह महीनों बहने वाली नदियां विद्यमान थी, तथापि इस क्षेत्र में सिंचाई उक्त नदियों के किनारे-किनारे तंग भू-भागों तक सीमित थीं। संभववतया सिंधु घाटी सभ्यता के नगर इन नदियों के किनारों पर स्थित होने के कारण किसी प्रलयंकारी बाढ़ और तूफान के शिकार हो गये और इस प्राचीन सभ्यता का अंत हो गया। इसी कारण शायद सरस्वती भी लुप्तप्राय हो गई। 16वीं शताब्दी के मध्य नहर-विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ और उनके साथ ही देश के सिंधु घाटी क्षेत्र में सिंचाई-क्रांति हो गई। घाटी के विशालतम रेतीले क्षेत्र सश्य श्यामला भूमि में परिवर्तित हो गये।
15 अगस्त, 1947 को देश के विभाजन के साथ ही साथ सिंधु नदी प्रणाली का भी विभाजन हो गया। संयुक्त भारत में इस प्रणाली से 260 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती थी। उसमें से 210 लाख एकड़ भूमि पाकिस्तान में चली गई और केवल 50 लाख एकड़ भूमि भारत में रही। पर सिंधु नदी एवं उसकी सभी सहायक नदियां भारत से निकलती थीं। पाकिस्तान की दो प्रमुख नहरों के हैंड वर्कस भी भारत में ही स्थित थे। अतः पाकिस्तान को चिन्ता हो गई कि भारत कभी भी उसकी नहरों को सुखा सकता है। उसने अपनी सीमा में फिरोजपुर के ऊपर सतलज को एक नहर निकालने का प्रयत्न शुरू कर दिया। बस यही से भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु घाटी के नदियों के पानी का विवाद शुरू हो गया। मार्च, 1952 में भारत और पाकिस्तान ने विश्व बैंक के तत्वाधान मे इस विवाद के हल के लिए वार्ता करना स्वीकार कर लिया।
एक ओर विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच विचार विनिमय चलता रहा औऱ दूसरी ओर भारत और पाकिस्तान सिंधु घाटी की नदियों के पानी के उपयोग के सम्बन्ध में योजना बनाते रहे। बीकानेर राज्य ने अक्टूबर, 1944 में बीकानेर और जैसलमेर राज्यों की भूमि को रावी-व्यास नदियों से सिंचाई करने का एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा था। यह प्रस्ताव बीकानेर राज्य के तत्कालीन मुख्य अभियन्ता कंवर सेन ने तैयार किया था। यहीं कंवर सेन बाद में राजस्थान नहर परियोजना-मंडल के प्रथम अध्यक्ष बने थे। स्मरण रहे बीकानेर राज्य का यह दावा ब्रिटिश सन् 1918 में स्वीकार कर लिया की बीकानेर को सिंधु नदी प्रणाली लाभान्वित होने का उसी तरह अधिकार है जैसे पंजाब व पटियाला भागलपुर आदि रियासतों को इसी आधार पर बीकानेर ने गंगा-नहर का निर्माण कराया। सन् 1952 में हरिके बांध बन कर तैयार है गया। इस बांध पर 15000 क्यूसैक्स पानी की क्षमता वाला एक हेड रैगुलेटर प्रस्तावित राजस्थान नहर को पानी देने के लिए लगा दिया गया। सन् 1953 में राजस्थान नहर क्षेत्र का प्राथमिक सर्वेक्षण पूरा हो गया।
तारीख 26 जनवरी, 1955 को भारत के सिंचाई और विद्युत मंत्री श्री गुलजारीलाल नन्दा की अध्यक्षता में पंजाब, पैप्सू, जम्मू एवं कश्मीर तथा राजस्थान के मुख्य मंत्रियों की एक बैठक हुई जिससे सर्वानुमति से 1929-45 की फलो-सिरिज के आधार पर रावी-व्यास नदी के 158.50 लाख एकड़ फीट पानी का बंटवारा इस प्रकार किया गयाः-
रावी, व्यास के पानी के अन्तर्राज्यीय बंटवारे के साथ ही राजस्थान सरकार ने राजस्थान नहर परियोजना का विस्तृत सर्वेक्षण करवाया। उसने 1957 में परियोजना का प्रारूप योजना आयोग के समक्ष प्रस्तुत किया जो तुरन्त स्वीकार कर लिया गया। सन् 1958 के शुरू में भारत के गृहमंत्री श्री गोविन्द बल्लभपन्त ने इस योजना का उद्घाटन किया।
सितम्बर, 1960 में विश्व बैंक के तत्वावधान में भारत और पाकिस्तान के बीच “ईन्डस वाटर संधि” पर हस्ताक्षर हो गये। इसके फलस्वरूप भारत को सिंधु घाटी की पूर्वी नदियों- सतलज रावी और व्यास- के सारे पानी के उपयोग का अधिकार मिल गया। वस्तुतः विश्व बैंक के सामने भारत के दावे का सारा दारोमदार ही राजस्थान नहर परियोजना थी।
पैप्सू का पंजाब में विलय हो जाने से रावी-व्यास के पानी में पंजाब का हिस्सा 72 लाख एकड़ फीट हो गया। सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के फलस्वरूप हरियाणा राज्य की स्थापना हुई। अतः पंजाब और हरियाणा के बीच रावी-व्यास नदी के पानी के बंटवारे का प्रश्न पैदा हो गया। सन् 1976 में भारत सरकार ने दोनों राज्यों को 35-35 लाख एकड़ फीट पानी आवंटित किया। शेष 2 लाख एकड़ फीट पानी दिल्ली की पेयजल समस्या हल करने के लिए के दे दिया। पंजाब को यह निर्णय मान्य नहीं हुआ। उसने केन्द्रीय सरकार के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया। हरियाणा भी फैसले की क्रियान्वित के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गया। अन्त में भारत सरकार ने पंजाब हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के बीच 1981 में एक समझौता करवा दिया। इस समझौते के आधार पर रावी-व्यास से 1921-60 की फ्लो-सीरिज (Flow-series) के आधार पर विभिन्न राज्यों को निम्न पानी मिलाः-
पंजाब और हरियाणा ने सर्वोच्च न्यायालय से अपने अपने दावे उठा लिए। सन 1980 में अकाली दल पंजाब में आम चुनावों में हार गया था। वहां कांग्रेस सरकार बन गई थी। अतः अगले ही वर्ष अर्थात् 1981 में अकाली दल ने आनन्द-साहब प्रस्ताव में निहित मांगों के आधार पर हिंसात्मक आन्दोलन छेड़ दिया जिसमें हजारों निरापराध स्त्री, पुरूष और बच्चे मारे गये। प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी स्वयं आतंकवादियों की बलिवेदी पर चढ़ गई। अन्त में 24 जुलाई, 1985 को नये प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी और अकाली दल नेता लोगोंवाल के बीच एक समझौता हुआ।
इस समझौते के अनुसार भारत सरकार ने ता. 2 अप्रैल, 1985 को अन्तर्राज्यी जल विवाद विधेयक, 1956 की धारा 14 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस वी. बालकृष्ण इराडी की अध्यक्षता में एक-तीन सदस्यीय अधिकरण की नियुक्ति की। इस अधिकरण ने ता. 30 जनवरी, 1987 को अपना प्रतिवेदन भारत सरकार को प्रस्तुत किया। भारत सरकार ने ता. 20 मई, 1987 को सरकारी गजट द्वारा अधिकरण के निर्णयों की घोषणा की। उक्त विधेयक की धारा 6 के अन्तर्गत अधिकरण के निर्णय अन्तिम और सम्बन्धित पक्ष उन निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं।
सन् 1981 के समझौते के अनुसार पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फीट और हरियाणा को 35.00 लाख एकड़ फीट पानी आवंटित किया गया था। इराडी अधिकरण ने पाया कि सतलज, व्यास और रावी के रिम स्टेशनों के नीचे लगभग 46.13 लाख एकड़ फीट अतिरिक्त पानी उपलब्ध है और उक्त पानी का 40 प्रतिशत अर्थात् 18.5 लाख एकड़ फीट पानी उपयोग में लाया जा सकता है। अतः उसने पंजाब-समझौते के पैरा 6(2) के अन्तर्गत उक्त पानी में से 7.80 लाख एकड़ फीट पानी पंजाब को और 3.3 लाख एकड़ फीट हरियाणा को आवंटित कर दिया। पर पैरा 6(2) में राजस्थान को पक्षकार नहीं बनाया था और न वह स्वयं भी पक्षकार बनाना चाहता था। अतः अधिकरण ने उक्त पैराग्राफ के अन्तर्गत राजस्थान को कोई पानी आवंटित नहीं किया। पर उसने 7.8 लाख एकड़ फीट पानी सुरक्षित छोड़ दिया। राजस्थान चाहे तो इस पानी में उचित हिस्से के लिए अपना दावा भारत-सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। पर विशेषज्ञों की राय में इस पानी का उपयोग आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महंगा होगा।
इराडी ट्रिब्यूनल के निर्णय के बाद रावी-व्यास के पानी में विभिन्न राज्यों का हिस्सा निम्न प्रकार हो जायेगा।
अधिकरण ने निर्णय दिया है कि पंजाब की तरह हरियाणा और राजस्थान भी सिंधु घाटी (इन्डसबैसिन) के भाग हैं। अधिकरण ने सन् 1955 और 1981 के अन्तर्राज्यीय समझौतों को सभी सम्बन्धित पक्षों के लिए मान्य ठहराते हुए स्पष्ट घोषणा की है कि उक्त समझौतों के अन्तर्गत राजस्थान को आवंटित पानी की मात्रा में वह किसी प्रकार रद्दोबदल नहीं कर सकता
रावी-व्यास के पानी को लेकर पहला विवाद सन् 1966 में हुआ, जब पंजाब के विभाजन के फलस्वरूप हरियाणा राज्य का प्रादुर्भाव हुआ। संयुक्त पंजाब के 72 लाख एकड़ फीट पानी के हरियाणा और पुनर्गठित पंजाब के बंटवारे को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ, उसे निपटाने के लिए वह प्रयत्न हुए। इराड़ी अधिकरण इन प्रयत्नों की एक कड़ी है। पर यह नहीं कहा जा सकता कि विवाद का अन्त हो गया है। पंजाब अब तक इराडी अधिकरण के फैसले को स्वीकार करने में टाल-मटोल करता रहा है।
रावी-नदी पर थीन नामक स्थान पर 420 मेगावाट की क्षमता वाले बिजली घर की स्थापना को लेकर जनता के शासन के दौरान पंजाब और राजस्थान में एक भीषण विवाद उठ खड़ा ङुआ था जिसका समाधान आज तक भी नहीं हुआ है। सिंधु नदी क्षेत्र में निर्मित विभिन्न बहुउद्देश्यीय योजनाओं से उपलब्ध सिंचाई और विद्युत उत्पादन में संबंधित राज्य हकदार रहते आये हैं। अन्य राज्यों की तरह राजस्थान भी भाखड़ा और व्यास परियोजना से उपलब्ध पानी के साथ बिजली में भी भागीदार रहा है। अतः यह स्वाभाविक है की थीन परियोजना से उपलब्ध होने वाली बिजली में राजस्थान भागीदार होता। पंजाब के मुख्यमंत्री ने स्वयं ने भी फरवरी, 1960 में राजस्थान के मुख्यमंत्री को लिखे गये पत्र में थीन-विद्युत परियोजना में राजस्थान की भागीदारी को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था।
सन् 1964 में पंजाब में थीन-योजना पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट में भी इस क्षेत्र के अन्य राज्यों के साथ ही राजस्थान की भागीदारी स्वीकार की गई। सन् 1966 में पंजाब का पुनर्गठन हुआ जिसके फलस्वरूप उसके हिन्दी भाषी इलाके का हरियाणा के नाम से एक नया राज्य बना। अब इस योजना में क्षेत्र के अन्य राज्यों के साथ हरियाणा का नाम भी भागीदारों की सूची में जुड़ गया। अप्रैल, 1972 में केंद्रीय सिंचाई मंत्री की अध्यक्षता में क्षेत्र के सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों की बैठक में निर्णय लिया गया कि रावी-व्यास नदी निर्मित की जाये। यहीं से पंजाब ने थीन-योजना से उत्पादित बिजली पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्न शुरू कर दिए। भारत सरकार द्वारा दिसम्बर, 1972 में बुलाये गये सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में थीन योजना से उपलब्ध पानी के हिस्सेदारी के संबंध में तो समझौता हो गया पर बिजली के बंटवारे पर पंजाब और अन्य राज्यों में मतभेद हो गये। पंजाब का कहना था कि थीन-क्षेत्र का टैरैन (प्राकृतिक-बनावट) पंजाब की प्रकृति के देन है, अतः थीन-योजना से उत्पादित बिजली के उपभोग करने का एक मात्र अधिकारी पंजाब है जबकि क्षेत्र के अन्य राज्यों का कहना था कि रावी-व्यास के पानी के हिस्सेदारी का अर्थ केवल सिंचाई तक ही सीमित नहीं है वरन उस पानी से उत्पन्न बिजली और मछली आदि पर भी उनका हक है। यह गति-अवरोध चलता रहा। इसी बीच सन् 1977 में केंद्र में जनता सरकार बन गई जिसमें अकालियों का भी साझा था। इस सरकार में पंजाब के सुरजीतसिंह बरनाला सिंचाई मंत्री नियुक्त हुए।
जनवरी, 1978 में प्रधानमंत्री देसाई ने संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाया जिसमें उन्होंने इस गति अवरोध को तोड़ने का प्रयत्न किया; पर पंजाब के हटधर्मी रवैये से यह सम्मेलन बिना किसी निर्णय लिए समाप्त हो गया। इसी बीच पंजाब ने थीन-योजना से हिमाचल प्रदेश और जम्मू एवं काश्मीर को बिजली देने का आश्वासन देकर अपनी और मिला लिया। इस प्रकार इस प्रकरण में राजस्थान प्रायः अलग-थलग पड़ गया। यही नहीं राजस्थान के कड़े विरोध के बावजूद केन्द्रीय सिंचाई मंत्री बरनाला ने उसी वर्ष (1978) में थीन-योजना को स्वीकृति दे दी। राजस्थान सरकार देखती ही रह गई। अब तो थीन-योजना प्रायः क्रियान्वित भी शुरू हो चुकी है। बिजली उत्पादन के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में राजस्थान की थीन-योजना में कितनी दिलचस्पी रह गई है। यह राजस्थान सरकार के विशेषज्ञ ही बता सकते हैं।
बहरहाल इस समय तो राजस्थान थीन योजना की बिजली योजना में अपने हक से वंचित रह गया है। विधिवेत्ताओं का मानना है कि राजस्थान को रावी-व्यास क्षेत्र में अपने हकों को सुरक्षित रखने के लिए सभी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखनी चाहिए अन्यथा हमारी भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नही करेंगी। मैने ता. 21 मार्च, 1978 को मुख्यमंत्री श्री भैरूसिंह शेखावत एवं सिंचाई मंत्री श्री ललित किशोर चतुर्वेदी को इस सम्बन्ध में पत्र लिख कर सुझाव दिया था कि राजस्थान को संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना चाहिए, सिंचाई मंत्री ने सरकार की ओर से मुझे सूचित भी किया था कि सरकार मेरे सुझावों पर विचार करेगी। पर इस सम्बन्ध में अब तक कोई ठोस कार्यवाही हुई हो, ऐसा नहीं लगता।
आदरणीय बी.एल. पानगडिया सामाजिक सरोकारों जुड़े लेखक हैं।
प्रस्तुत लेख पर मरुधरा अकादमी का कॉपीराइट है।
यद्यपि सिंधु घाटी में बारह महीनों बहने वाली नदियां विद्यमान थी, तथापि इस क्षेत्र में सिंचाई उक्त नदियों के किनारे-किनारे तंग भू-भागों तक सीमित थीं। संभववतया सिंधु घाटी सभ्यता के नगर इन नदियों के किनारों पर स्थित होने के कारण किसी प्रलयंकारी बाढ़ और तूफान के शिकार हो गये और इस प्राचीन सभ्यता का अंत हो गया। इसी कारण शायद सरस्वती भी लुप्तप्राय हो गई। 16वीं शताब्दी के मध्य नहर-विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ और उनके साथ ही देश के सिंधु घाटी क्षेत्र में सिंचाई-क्रांति हो गई। घाटी के विशालतम रेतीले क्षेत्र सश्य श्यामला भूमि में परिवर्तित हो गये।
15 अगस्त, 1947 को देश के विभाजन के साथ ही साथ सिंधु नदी प्रणाली का भी विभाजन हो गया। संयुक्त भारत में इस प्रणाली से 260 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती थी। उसमें से 210 लाख एकड़ भूमि पाकिस्तान में चली गई और केवल 50 लाख एकड़ भूमि भारत में रही। पर सिंधु नदी एवं उसकी सभी सहायक नदियां भारत से निकलती थीं। पाकिस्तान की दो प्रमुख नहरों के हैंड वर्कस भी भारत में ही स्थित थे। अतः पाकिस्तान को चिन्ता हो गई कि भारत कभी भी उसकी नहरों को सुखा सकता है। उसने अपनी सीमा में फिरोजपुर के ऊपर सतलज को एक नहर निकालने का प्रयत्न शुरू कर दिया। बस यही से भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु घाटी के नदियों के पानी का विवाद शुरू हो गया। मार्च, 1952 में भारत और पाकिस्तान ने विश्व बैंक के तत्वाधान मे इस विवाद के हल के लिए वार्ता करना स्वीकार कर लिया।
एक ओर विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच विचार विनिमय चलता रहा औऱ दूसरी ओर भारत और पाकिस्तान सिंधु घाटी की नदियों के पानी के उपयोग के सम्बन्ध में योजना बनाते रहे। बीकानेर राज्य ने अक्टूबर, 1944 में बीकानेर और जैसलमेर राज्यों की भूमि को रावी-व्यास नदियों से सिंचाई करने का एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा था। यह प्रस्ताव बीकानेर राज्य के तत्कालीन मुख्य अभियन्ता कंवर सेन ने तैयार किया था। यहीं कंवर सेन बाद में राजस्थान नहर परियोजना-मंडल के प्रथम अध्यक्ष बने थे। स्मरण रहे बीकानेर राज्य का यह दावा ब्रिटिश सन् 1918 में स्वीकार कर लिया की बीकानेर को सिंधु नदी प्रणाली लाभान्वित होने का उसी तरह अधिकार है जैसे पंजाब व पटियाला भागलपुर आदि रियासतों को इसी आधार पर बीकानेर ने गंगा-नहर का निर्माण कराया। सन् 1952 में हरिके बांध बन कर तैयार है गया। इस बांध पर 15000 क्यूसैक्स पानी की क्षमता वाला एक हेड रैगुलेटर प्रस्तावित राजस्थान नहर को पानी देने के लिए लगा दिया गया। सन् 1953 में राजस्थान नहर क्षेत्र का प्राथमिक सर्वेक्षण पूरा हो गया।
तारीख 26 जनवरी, 1955 को भारत के सिंचाई और विद्युत मंत्री श्री गुलजारीलाल नन्दा की अध्यक्षता में पंजाब, पैप्सू, जम्मू एवं कश्मीर तथा राजस्थान के मुख्य मंत्रियों की एक बैठक हुई जिससे सर्वानुमति से 1929-45 की फलो-सिरिज के आधार पर रावी-व्यास नदी के 158.50 लाख एकड़ फीट पानी का बंटवारा इस प्रकार किया गयाः-
राज्य | लाख एकड़ फीट |
पंजाब | 59.00 |
पैप्सू | 13.00 |
जम्मू कश्मीर | 6.50 |
राजस्थान | 80.00 |
योग | 158.50 |
रावी, व्यास के पानी के अन्तर्राज्यीय बंटवारे के साथ ही राजस्थान सरकार ने राजस्थान नहर परियोजना का विस्तृत सर्वेक्षण करवाया। उसने 1957 में परियोजना का प्रारूप योजना आयोग के समक्ष प्रस्तुत किया जो तुरन्त स्वीकार कर लिया गया। सन् 1958 के शुरू में भारत के गृहमंत्री श्री गोविन्द बल्लभपन्त ने इस योजना का उद्घाटन किया।
सितम्बर, 1960 में विश्व बैंक के तत्वावधान में भारत और पाकिस्तान के बीच “ईन्डस वाटर संधि” पर हस्ताक्षर हो गये। इसके फलस्वरूप भारत को सिंधु घाटी की पूर्वी नदियों- सतलज रावी और व्यास- के सारे पानी के उपयोग का अधिकार मिल गया। वस्तुतः विश्व बैंक के सामने भारत के दावे का सारा दारोमदार ही राजस्थान नहर परियोजना थी।
पैप्सू का पंजाब में विलय हो जाने से रावी-व्यास के पानी में पंजाब का हिस्सा 72 लाख एकड़ फीट हो गया। सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के फलस्वरूप हरियाणा राज्य की स्थापना हुई। अतः पंजाब और हरियाणा के बीच रावी-व्यास नदी के पानी के बंटवारे का प्रश्न पैदा हो गया। सन् 1976 में भारत सरकार ने दोनों राज्यों को 35-35 लाख एकड़ फीट पानी आवंटित किया। शेष 2 लाख एकड़ फीट पानी दिल्ली की पेयजल समस्या हल करने के लिए के दे दिया। पंजाब को यह निर्णय मान्य नहीं हुआ। उसने केन्द्रीय सरकार के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया। हरियाणा भी फैसले की क्रियान्वित के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गया। अन्त में भारत सरकार ने पंजाब हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के बीच 1981 में एक समझौता करवा दिया। इस समझौते के आधार पर रावी-व्यास से 1921-60 की फ्लो-सीरिज (Flow-series) के आधार पर विभिन्न राज्यों को निम्न पानी मिलाः-
पंजाब | 42.20 | लाख एकड़ फीट |
हरियाणा | 35.00 | लाख एकड़ फीट |
राजस्थान | 86.00 | लाख एकड़ फीट |
काश्मीर | 6.50 | लाख एकड़ फीट |
दिल्ली | 2.00 | लाख एकड़ फीट |
योग | 171.70 | लाख एकड़ फीट |
पंजाब और हरियाणा ने सर्वोच्च न्यायालय से अपने अपने दावे उठा लिए। सन 1980 में अकाली दल पंजाब में आम चुनावों में हार गया था। वहां कांग्रेस सरकार बन गई थी। अतः अगले ही वर्ष अर्थात् 1981 में अकाली दल ने आनन्द-साहब प्रस्ताव में निहित मांगों के आधार पर हिंसात्मक आन्दोलन छेड़ दिया जिसमें हजारों निरापराध स्त्री, पुरूष और बच्चे मारे गये। प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी स्वयं आतंकवादियों की बलिवेदी पर चढ़ गई। अन्त में 24 जुलाई, 1985 को नये प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी और अकाली दल नेता लोगोंवाल के बीच एक समझौता हुआ।
इस समझौते के अनुसार भारत सरकार ने ता. 2 अप्रैल, 1985 को अन्तर्राज्यी जल विवाद विधेयक, 1956 की धारा 14 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस वी. बालकृष्ण इराडी की अध्यक्षता में एक-तीन सदस्यीय अधिकरण की नियुक्ति की। इस अधिकरण ने ता. 30 जनवरी, 1987 को अपना प्रतिवेदन भारत सरकार को प्रस्तुत किया। भारत सरकार ने ता. 20 मई, 1987 को सरकारी गजट द्वारा अधिकरण के निर्णयों की घोषणा की। उक्त विधेयक की धारा 6 के अन्तर्गत अधिकरण के निर्णय अन्तिम और सम्बन्धित पक्ष उन निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं।
सन् 1981 के समझौते के अनुसार पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फीट और हरियाणा को 35.00 लाख एकड़ फीट पानी आवंटित किया गया था। इराडी अधिकरण ने पाया कि सतलज, व्यास और रावी के रिम स्टेशनों के नीचे लगभग 46.13 लाख एकड़ फीट अतिरिक्त पानी उपलब्ध है और उक्त पानी का 40 प्रतिशत अर्थात् 18.5 लाख एकड़ फीट पानी उपयोग में लाया जा सकता है। अतः उसने पंजाब-समझौते के पैरा 6(2) के अन्तर्गत उक्त पानी में से 7.80 लाख एकड़ फीट पानी पंजाब को और 3.3 लाख एकड़ फीट हरियाणा को आवंटित कर दिया। पर पैरा 6(2) में राजस्थान को पक्षकार नहीं बनाया था और न वह स्वयं भी पक्षकार बनाना चाहता था। अतः अधिकरण ने उक्त पैराग्राफ के अन्तर्गत राजस्थान को कोई पानी आवंटित नहीं किया। पर उसने 7.8 लाख एकड़ फीट पानी सुरक्षित छोड़ दिया। राजस्थान चाहे तो इस पानी में उचित हिस्से के लिए अपना दावा भारत-सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। पर विशेषज्ञों की राय में इस पानी का उपयोग आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महंगा होगा।
इराडी ट्रिब्यूनल के निर्णय के बाद रावी-व्यास के पानी में विभिन्न राज्यों का हिस्सा निम्न प्रकार हो जायेगा।
पंजाब | 50.00 | लाख एकड़ फीट |
हरियाणा | 38.30 | लाख एकड़ फीट |
राजस्थान | 86.00 | लाख एकड़ फीट |
जम्मू एवं काश्मीर | 6.50 | लाख एकड़ फीट |
दिल्ली | 2.00 | लाख एकड़ फीट |
अधिकरण ने निर्णय दिया है कि पंजाब की तरह हरियाणा और राजस्थान भी सिंधु घाटी (इन्डसबैसिन) के भाग हैं। अधिकरण ने सन् 1955 और 1981 के अन्तर्राज्यीय समझौतों को सभी सम्बन्धित पक्षों के लिए मान्य ठहराते हुए स्पष्ट घोषणा की है कि उक्त समझौतों के अन्तर्गत राजस्थान को आवंटित पानी की मात्रा में वह किसी प्रकार रद्दोबदल नहीं कर सकता
रावी-व्यास के पानी को लेकर पहला विवाद सन् 1966 में हुआ, जब पंजाब के विभाजन के फलस्वरूप हरियाणा राज्य का प्रादुर्भाव हुआ। संयुक्त पंजाब के 72 लाख एकड़ फीट पानी के हरियाणा और पुनर्गठित पंजाब के बंटवारे को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ, उसे निपटाने के लिए वह प्रयत्न हुए। इराड़ी अधिकरण इन प्रयत्नों की एक कड़ी है। पर यह नहीं कहा जा सकता कि विवाद का अन्त हो गया है। पंजाब अब तक इराडी अधिकरण के फैसले को स्वीकार करने में टाल-मटोल करता रहा है।
रावी-नदी पर थीन नामक स्थान पर 420 मेगावाट की क्षमता वाले बिजली घर की स्थापना को लेकर जनता के शासन के दौरान पंजाब और राजस्थान में एक भीषण विवाद उठ खड़ा ङुआ था जिसका समाधान आज तक भी नहीं हुआ है। सिंधु नदी क्षेत्र में निर्मित विभिन्न बहुउद्देश्यीय योजनाओं से उपलब्ध सिंचाई और विद्युत उत्पादन में संबंधित राज्य हकदार रहते आये हैं। अन्य राज्यों की तरह राजस्थान भी भाखड़ा और व्यास परियोजना से उपलब्ध पानी के साथ बिजली में भी भागीदार रहा है। अतः यह स्वाभाविक है की थीन परियोजना से उपलब्ध होने वाली बिजली में राजस्थान भागीदार होता। पंजाब के मुख्यमंत्री ने स्वयं ने भी फरवरी, 1960 में राजस्थान के मुख्यमंत्री को लिखे गये पत्र में थीन-विद्युत परियोजना में राजस्थान की भागीदारी को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था।
सन् 1964 में पंजाब में थीन-योजना पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट में भी इस क्षेत्र के अन्य राज्यों के साथ ही राजस्थान की भागीदारी स्वीकार की गई। सन् 1966 में पंजाब का पुनर्गठन हुआ जिसके फलस्वरूप उसके हिन्दी भाषी इलाके का हरियाणा के नाम से एक नया राज्य बना। अब इस योजना में क्षेत्र के अन्य राज्यों के साथ हरियाणा का नाम भी भागीदारों की सूची में जुड़ गया। अप्रैल, 1972 में केंद्रीय सिंचाई मंत्री की अध्यक्षता में क्षेत्र के सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों की बैठक में निर्णय लिया गया कि रावी-व्यास नदी निर्मित की जाये। यहीं से पंजाब ने थीन-योजना से उत्पादित बिजली पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के प्रयत्न शुरू कर दिए। भारत सरकार द्वारा दिसम्बर, 1972 में बुलाये गये सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में थीन योजना से उपलब्ध पानी के हिस्सेदारी के संबंध में तो समझौता हो गया पर बिजली के बंटवारे पर पंजाब और अन्य राज्यों में मतभेद हो गये। पंजाब का कहना था कि थीन-क्षेत्र का टैरैन (प्राकृतिक-बनावट) पंजाब की प्रकृति के देन है, अतः थीन-योजना से उत्पादित बिजली के उपभोग करने का एक मात्र अधिकारी पंजाब है जबकि क्षेत्र के अन्य राज्यों का कहना था कि रावी-व्यास के पानी के हिस्सेदारी का अर्थ केवल सिंचाई तक ही सीमित नहीं है वरन उस पानी से उत्पन्न बिजली और मछली आदि पर भी उनका हक है। यह गति-अवरोध चलता रहा। इसी बीच सन् 1977 में केंद्र में जनता सरकार बन गई जिसमें अकालियों का भी साझा था। इस सरकार में पंजाब के सुरजीतसिंह बरनाला सिंचाई मंत्री नियुक्त हुए।
जनवरी, 1978 में प्रधानमंत्री देसाई ने संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाया जिसमें उन्होंने इस गति अवरोध को तोड़ने का प्रयत्न किया; पर पंजाब के हटधर्मी रवैये से यह सम्मेलन बिना किसी निर्णय लिए समाप्त हो गया। इसी बीच पंजाब ने थीन-योजना से हिमाचल प्रदेश और जम्मू एवं काश्मीर को बिजली देने का आश्वासन देकर अपनी और मिला लिया। इस प्रकार इस प्रकरण में राजस्थान प्रायः अलग-थलग पड़ गया। यही नहीं राजस्थान के कड़े विरोध के बावजूद केन्द्रीय सिंचाई मंत्री बरनाला ने उसी वर्ष (1978) में थीन-योजना को स्वीकृति दे दी। राजस्थान सरकार देखती ही रह गई। अब तो थीन-योजना प्रायः क्रियान्वित भी शुरू हो चुकी है। बिजली उत्पादन के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में राजस्थान की थीन-योजना में कितनी दिलचस्पी रह गई है। यह राजस्थान सरकार के विशेषज्ञ ही बता सकते हैं।
बहरहाल इस समय तो राजस्थान थीन योजना की बिजली योजना में अपने हक से वंचित रह गया है। विधिवेत्ताओं का मानना है कि राजस्थान को रावी-व्यास क्षेत्र में अपने हकों को सुरक्षित रखने के लिए सभी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखनी चाहिए अन्यथा हमारी भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नही करेंगी। मैने ता. 21 मार्च, 1978 को मुख्यमंत्री श्री भैरूसिंह शेखावत एवं सिंचाई मंत्री श्री ललित किशोर चतुर्वेदी को इस सम्बन्ध में पत्र लिख कर सुझाव दिया था कि राजस्थान को संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना चाहिए, सिंचाई मंत्री ने सरकार की ओर से मुझे सूचित भी किया था कि सरकार मेरे सुझावों पर विचार करेगी। पर इस सम्बन्ध में अब तक कोई ठोस कार्यवाही हुई हो, ऐसा नहीं लगता।
आदरणीय बी.एल. पानगडिया सामाजिक सरोकारों जुड़े लेखक हैं।
प्रस्तुत लेख पर मरुधरा अकादमी का कॉपीराइट है।
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