मैं सिंधु नदी हूँ, इतनी लम्बी-चौड़ी की लोगों को मेरे समुद्र होने का धोखा हो जाता है। बहुत पुराने काल में जब आर्य लोग इस प्रदेश में आए, तब उन्होंने ही मुझे समुद्र समझकर यह ‘सिंधु’ नाम दिया, और इसी नाम से मैं आज हज़ारों साल से पुकारी जाती रही हूँ। मानसरोवर के उत्तर में तिब्बती हिमालय से मेरा निकास है। ज़ोरकुल झील से-जहाँ से पूर्व में ब्रह्मपुत्र, उत्तर में यारकन्द (सीता) और पश्चिम में आमू नदी वक्षु निकलती है और संसार की सबसे ऊँची चोटियों से निकलकर मध्य एशिया और कश्मीर के बीच सरदह बनाती है-निकलकर पहाड़ों से पंजाब से नीचे उतर आती हूँ। फिर पंजाब और अफगानिस्तान की धाराओं को पीती, सिंधु के रेगिस्तान में प्रवेश कर जाती हूँ। आगे अरब सागर में मेरा मुहाना है, जहाँ देश-देशान्तर का लाया हुआ सारा जल लिए मैं आसमान चूमती लहरों में विलीन हो जाती हूँ।
मेरी कहानी वास्तव में इतिहास की कहानी है। उठते और गिरते हुए आदमी की कहानी, आज़ादी के लिए जूझते और ज़ुल्म का कहर ढहाते इन्सान की कहानी। और वह कहानी अधिकतर मेरी लहरों पर लिखी गई, मेरी ही घाटी में घटी। उसे घटते मैंने अपनी नीर आँखों से देखा और नीर लुढ़काती मैं आगे बढ़ गई। रुकना मुझे पसन्द नहीं। बयार जैसे, चाहे मन्द-मन्द ही क्यों न हो, बराबर बहती रहती है; सूरज, चाँद और सितारे जैसे अपनी राह सदा चलते रहे हैं; मैं भी बगैर कहीं रुके समुद्र की ओर बढ़ जाती हूँ।बर्फीली चोटियों से निकलकर पिघली बर्फ की राह जब मैं पामीरों से कावा काट-काट पश्चिम की ओर बढ़ती हूँ, तब अपनी लहराती आँखों से उस महान देश को देखती हूँ जहाँ पहली बार आदमी ने बराबरी का रस जाना, उस रूस की जिसकी सरहदल में मेरी सहायक नदी गिलगित बनाती है। गिलगित हिमालय का वह ऊँचा पठार हैं, जहाँ से अफगानिस्तान और पठानों का देश, अखरोटों और बादामों के पेड़ों की छाया में अपनी ताकतवर इन्सानी नस्ल के साथ साफ दिखता है और उस उँचाई से मैं वह बलख और बदख्शां देखती हूँ, जिनसे होकर आमू दरिया बहता है, अपने आँचल में केसर के खेत फैलाए, और उस फरगना को जिसके शहर समरकन्द में तैमूरी मकबरे का गुम्बद संसार में सबसे बड़ा है, जहाँ बाबर ने बार-बार तख्त पाया और खोया था, और जहाँ बाबर से औरंगजेब तक लगातार हिन्दुस्तानी तलवारें चमकती रहीं।
केसर की क्यारियाँ उन पामीरों की छाया में ही नहीं हैं, इधर मेरी ढलान पर भी हैं, झेलम के तीर पर भी, श्रीनगर के खेतों में भी जो कभी कालिदास और रानी दिद्दा की भूमि थी। और कालिदास की याद आते ही उस महाकवि के उस रघु की भी याद आ जाती है, जो मेरे सात मुखों को लाँघ-कोजक अरमान पहाड़ों को पारकर बदख्शाँ की घाटी में जा पहुँचा था, जहाँ हूणों को उसने धूल चटा दी थी और केसर की क्यारियों में लोटने से उसकी सेना के घोड़ों की नालों में केसर के लाल फूल भर गए थे।
कैलाश की पवित्र भूमि से चलकर जब कश्मीर की ढलानों से उतरती हूँ, तब सप्तसिंधु से लगे-फैले पावन महादेश भारत के चरणों में लोट जाती हूँ। उसकी फैली भूमि पर मेरी पतली धारा उमड़ पड़ती है और उसका विस्तार शीघ्र ही समुद्र-सा दीखने लगता है। अटक मेरे तट पर ही बसा है।
अटक की याद मेरे लिए गौरव और शर्म दोनों की बात है। कभी मेरे ही तीर पर संसार की सभी सभ्यताओं को जीतने वाले आर्यों ने डारा डेरा डाला था, अपने गांवों के बल्ले गाड़े थे। कभी सिकन्दर ने मेरी धारा लाँघने की कठिनाइयों से घबराकर आँसू बहाए थे, और नावों के पुलों से मुझे पार किया था। तब तक्षशिला के कायर आम्भीक ने भारत का सिंहद्वार खोल दिया था, तब मेरी ही सहायक नदी झेलम के तट पर रात के अँधियारे में, मूसलाधार बरसते मेघों के मध्य जो घटना घटी वह आज भी मुझे नहीं भूली। झेलम चढ़ी हुई थी।
सामने नदी-पार, बाँका लड़का पोरस अपनी कुमक लिए खड़ा था और जब दिन के उजाले में नदी पार करने की हिम्मत सिकन्दर को न हुई तब उसने रात के अँधियारे में राह चुराई। मैं कहती हूँ राह चुराई, क्योंकि इस राह चुराने की अपनी एक कहानी है। अरबेला के मैदान में दारा की दूर तक फैली हुई सेना के सामने जब साँझा के झुरपुटे में सिकन्दर अपनी फौजें लिए पहुँचा, तब उसके दोस्त सरदार ने कहा कि अभी अँधेर-ही-अँधेरे में हमला कर दें तो अच्छा, नहीं तो सुबह के उजाले में दारा की समुद्र- सी सेना देख अपने लड़ाकों के पैर उखड़ जाएँगे। तब सिकन्दर ने कहा था कि ‘ना, सिकन्दर रात के अन्धेरे में नहीं, दिन के उजाले में दुश्मन को जीतेगा, क्योंकि सिकन्दर जीत चुराता नहीं है।’ पर उसी संसार जीतने वाले सिकन्दर ने झेलम के किनारे राह चुराकर जीत चुराई, जो मुझे वैसे ही याद है जैसे झेलम के तेवर भरे पानी का संस्पर्श ताज़ा है। पार की लड़ाई जिस जवाँमर्दी से लड़ी गई, उसकी बात मैं इतिहास के पन्नों के लिए छोड़ती हूँ।
मगर ऐसा भी नहीं कि जो मेरे तीर पर आए, उन्होंने सदा चार आँसू ही डाले। चँगेज़ ने जब मध्य एशिया के ख्वारिज़्म में शाह को उसके देश से उखाड़ फेंका तब शाह काबुल के यिज्दिज़ से जा टकराया।आगे यिल्दिज़, पीछे ख्वारिज़्म का शाह और उसके भी पीछे से अपने खुदाई कोड़े के लिए चँगेज़ मेरे तीर पर आ खड़े हुए। यिल्दिज़ मेरी लहरों में खो गया पर शाह उनसे टकराता उन्हें लाँघ सिन्ध जा पहुँचा। और चँगेज़ लौट गया, हिन्दुस्तान की किस्मत पर तिलक लगाकर-वरना उस पर क्या बीतती, यह कहा नहीं जा सकता। ख्वारिज़्म की शाह फिर लौटा और उसने वह कर दिखाया जो दुनिया के इतिहास में अपनी उपमा नहीं रखता।
मेरी लहरों से वह फिर जूझा और काबुल लेता, तलवार से राह बनाता वह फिर ख्वारिज़्म के तख्त पर जा बैठा। पर वह बाद की बात है, उससे पहले की सुनिए।
उसी सिकन्दर की बात जिसका बयान अभी-अभी कर चुकी हूँ। सिकन्दर पंजाब की मेरी सहायक नदियों को लाँघता हुआ व्यास तक जा पहुँचा। झेलम, चिनाब, रावी, व्यास-दूर का सफ़र था, और सफ़र कुछ ऐसा आसान नहीं जो आदमी पौ फटते तै कर ले। उस राह चलना लोहे की जमीन की छाती को तलवार से फाड़ना था, क्योंकि उस ज़मीन पर आज़ादी के लिए जूझ जाने वाली वे वीर जातियाँ बसती थीं जिनके पंचायती राज थे और जिनकी बहादुरी के गीत गाए जाते थे। कदम-कदम पर उन्होंने सिकन्दर की राह रोकी और अन्त में व्यास के किनारे इस दुनिया को जीतने वाले सिकन्दर की सेना ने हथियार डाल दिए, आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया, क्योंकि व्यास की धारा के उस पार पूर्व का वह देश था जिसकी धाक ग्रीक के दिलों पर बुरी तरह जम चुकी थी। और सिकंदर को उल्टे पाँव वापस लौटना पड़ा।
पर लौटना भी आसान न था, क्योंकि मेरी रावी के तीर पर तो मालव और क्षुद्रक बसते थे। वे हथियारबन्द किसान थे, गजब के लड़ाके, जो एक हाथ में हँसिया, दूसरे में तलवार धारण करते थे।
साभार - भारत की नदियों की कहानी,
लेखक - भगवतशरण उपाध्याय,
प्रकाशक, राजपाल एंड सन्ज
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