सिंधु-मिलन की चाह नहीं, बस

सिंधु-मिलन की चाह नहीं, बस
मुझको तो बहते जाना है!
दो पुलिनों से बँधकर भी
कितनी स्वतंत्र है जीवन-धारा!
रोक रखेगी मुझको कब तक
पत्थर चट्टानों की कारा?
अपनी तुंग-तरंगों का ही
रहता इतना बड़ा भरोसा;
लौट-लौटकर नहीं देखता,
मुझको तो बहते जाना है!

राह बनाकर चलना पड़ता,
इसीलिए रुक-रुक चलता हूं,
झुकना शील-स्वभाव; शिलाओं को
पथ को चंचल, खलता हूँ!
‘आसपास में औरों के,
मेरी भी एक धार लहराए’-
यह विचारने की कब फुरसत?
मुझको तो बहते जाना है!

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