आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
गागर भरने की वेला
Posted on 09 Sep, 2013 01:25 PMगागर भरने की वेला हौले बीती जाती है।क्यों भूल-चूक हो जाती चिर-परिचित व्यापारों में,
दिन-दिन भर उलझी रहती सब दिन इन घर-द्वारों में,
वैसे से तो दुपहर ही से उत्सुकता उकसाती है।
लगता गागर भरने की वेला बीती जाती है।
औरों की देखा देखी जब तक रहती धुलसाती,
सौरभ-भीनी स्मृतियों की धारा में बहती जाती,
सहसा रागिनी रँगीली थमती, झटका खाती है!
सिंधु-मिलन की चाह नहीं, बस
Posted on 09 Sep, 2013 01:23 PMसिंधु-मिलन की चाह नहीं, बसमुझको तो बहते जाना है!
दो पुलिनों से बँधकर भी
कितनी स्वतंत्र है जीवन-धारा!
रोक रखेगी मुझको कब तक
पत्थर चट्टानों की कारा?
अपनी तुंग-तरंगों का ही
रहता इतना बड़ा भरोसा;
लौट-लौटकर नहीं देखता,
मुझको तो बहते जाना है!
राह बनाकर चलना पड़ता,
इसीलिए रुक-रुक चलता हूं,
झुकना शील-स्वभाव; शिलाओं को