सिंधु के बाद गंगा

फरवरी की 15 या 16 तारीख को ठेठ पश्चिम की ओर रोहरी-सक्कर के बीच सिंधु के विशाल पट पर जल-विहार करने के बाद और 28 फरवरी को कोटरी के समीप उसी सिंधु के अंतिम दर्शन करने के बाद, बारह-पंद्रह दिन के भीतर ही पूर्व की ओर पाटलिपुत्र के निकट गंगा का पावन प्रवाह देखने को मिला। यह कितने सौभाग्य की बात हैं! आर्यों की वैदिक माता सिंधु और उन्हीं भारतीयों की सनातन माता गंगा के दर्शन इस प्रकार एक के बाद एक होते रहें तो उस सौभाग्य का स्वागत कौन-सा नदी-पुत्र नहीं करेगा? गंगा को जिस प्रकार उसके पानी का उपयोग करने वाला भगीरथ मिला उसी प्रकार यदि सिंधु को भी मिल जाता, तो राजस्थान और सिंध का इतिहास दूसरे ही ढंग से लिखा जाता। सिंधु बिना किसी के कहे, अनेक दिशाओं में बहती है और अपना पात्र बदलने में संकोच नहीं करती। तब यदि भगीरथ और जह्नु जैसे उपासक इंजीनियर उसे मिल जाते, तो वह सिंध तथा सौवीर देशों के लिए क्या-क्या न करती? क्या आज भी रोहरी और सक्कर के बीच अपना पानी एकत्र करके नहरों के सात प्रवाहों द्वारा यह स्वछंद-विहारिणी सिन्धु अपना स्तन्य सिंधु देश को पिलाने नहीं लगी है?

सिंधु नदी पंजाब के सात प्रवाहों का पानी एकत्र करके मिट्टनकोट और कश्मीर तक युक्तवेणी रहती है; वहीं सिंधु सक्कर-रोहरी के बाद पहले-पहल मुक्तवेणी हो जाती है और कोटरी के बाद केटी बंदर तक तो न मालूम कितने मुखों से समुद्र में जा मिलती है।

गंगा नदी गोआलंदो तक युक्तवेणी रहती है। गोआलंदों में गंगा और ब्रह्मपुत्रा के मिलने से उनके अमर्याद प्रवाहों की ऐसी अराजकता मच जाती है कि मुक्तवेणी और युक्तवेणी का भेद ही नहीं किया जा सकता। कलकत्ता के बाद सुंदरवन का पंखा देखने को जरूर मिलता है। किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि गंगा का विस्तार इतना ही है।

गांधी-सेवा-संघ की अंतिम बैठक के लिए हम मालीकांदा गये थे। तब असम प्रांत से शिलांग के रास्ते सुरमा घाटी होकर वापस लौटे थे। जाते और आते समय भगवती गंगा के विविध दर्शन किए थे। किन्तु सम्राट अशोक के पाटलिपुत्र (आज कल के पटना) के समीप गंगा की शोभा अनोखी है। पटना के पास मैने भिन्न-भिन्न समय पर कम से कम तीन-चार बार गंगा पार की होगी। फिर भी वहां गंगा के दर्शन के नवीनता कम होती ही नहीं। मेरा ख्याल है कि नेपाल की यात्रा समाप्त करके मैं मुजफ्फरपुर से कलकत्ता गया तब पहले पहल पटना गया था फाल्गुन मास के दिन थे। जहां जायें वहां आम के बोर से हवा महक रही थी। और अजनबी मैं पटना के छोटे-बड़े रास्तों पर मतवाले की तरह अपने अंतःकरण में बसंतोत्सव मना रहा था। वहां जो पहली छाप मन पर पड़ी, वह आज भी मौजूद है। फिर भी उसके बाद जब-जब मैं पटना गया हूं, तब-तब कुछ-न-कुछ नवीनता मैंने वहां अवश्य पायी है।

श्री राजेन्द्र बाबू जहां रहते हैं और जहां बिहार विद्यापीठ चल रहा है, वह सदाकत आश्रम गंगा के ठिक किनारे पर ही है। आश्रम के सामने का रास्ता लांघ कर तीन फुट के बांध पर चढ़ते ही गंगा का विस्तीर्ण जलराशि पश्चिम से आकर पूर्व की ओर बहती हुई नजर आती है। उस पार का किनारा देखने की यदि कोशिश करें, तो जमीन की एक पतली-सी रेखा के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं देता। चकित होकर आप साथ में आये हुए किसी आदमी से कहें कि ‘गंगा का पाट कितना चौड़ा है!’ तो वह तुरंत हंसकर कहेगा, ‘वह जो सामने दीख पड़ता है वह केवल एक टापू है। उसके आगे भी गंगा का प्रवाह है। उस पार का किनारा यहां से दिखाई नहीं पड़ता है।’

सामने जो पतली-सी लकीर दिखाई देती है वह एक चौड़ा टापू है, यह सुनने पर भी यकीन नही होता कि पानी के इतने बड़े विस्तार के बाद लकीर के उस पार और भी विस्तार हो सकता है। एक बार मन में संदेह पैदा हुआ कि वह कुतूहल का रूप अवश्य धारण कर लेता है। कुतूहल परिपक्व होने पर उसमें से संकल्प उठता है। और संकल्प के जैसी बेचैन बनाने वाली दूसरी कोई वस्तु भला हो सकती है?

सदाकत आश्रम में रहे तब तक रोज गंगा के किनारे टहलना हमारा काम था। क्योंकि गंगा की संस्कृति-पुनीत मोहिनी न होती, तो भी किनारे पर खड़े पुराण पुरुष जैसे वृक्षों की पंक्ति हमें खींचे बिना न रहती। सह्याद्रि या हिमालय के उत्तुंग वृक्ष जिसने देखे हैं, उसका जी ललचाने की शक्ति मामूली वृक्षों में कहां से आवे? किन्तु गंगा के तट पर, पटना के आसपास, योजनों तक चलते रहिये- चारों ओर ऊंचे-ऊचे वृक्ष अपनी पुष्ट शाखाएं चारों दिशाओं में ऊपर और नीचे दूर-दूर तक फैलाये हुए नजर आते हैं। किसी समय, पटना सम्राट् अशोक के साम्राज्य की राजधानी था। आज वही पटना वृक्षों के एक विशाल साम्राज्य का पोषण करता है।

ऐसे स्थान पर खड़े रहकर, जो न तो बहुत दूर हो और न बहुत पास, इन बड़े वृक्षों के अंग-प्रत्यंगों की शोभा को यदि ध्यान से निहारें, तो उनका स्वभाव, उनकी चित्तवृत्ति और उनकी कुलीनता का ख्याल आये बिना नहीं रहता। सभी वृक्ष तपस्वी नहीं होते। कुछ मौनी ध्यानी जैसे दिखाई देते हैं, कुछ क्रिड़ा प्रिय होते हैं; कुछ वियोगी विरही जैसे, तो कुछ अत्युत्कट प्रेमी जैसे। परन्तु किसी भी स्थिति में वे अपना आर्यत्व नहीं छोड़ते। कुछ वृक्षों की शाखाएं ऊपर इतनी फैली हुई होती हैं, मानों टूटते हुए आसमान को बचाने का काम उन्हीं के जिम्मे आया हो।

चार बूढ़े सज्जन शांति से गंभीर बातें कर रहे हैं और तुतलाते हुए बच्चे उनकी गोद में उछल-कूद मचा रहे हैं-क्या ऐसा दृश्य आपने कभी देखा है? बूढ़े बच्चों को डांटते नहीं; कोमलता के साथ उन्हें पुचकारते हैं फिर भी उनका गंभीर बातचीत में खलल नहीं पड़ती। गंगा के किनारे सनातन मंत्रणा चलाने वाले इन पेड़ों के बीच जब छोटे-बड़े पक्षी मीठा कलरव करते हैं, तब ठीक वहीं वृद्ध अर्भक-दृश्य नये ढंग से आंखों के सामने आता है।

फाल्गुन पूर्णिमा के आसपास के दिन थे। शाम को अगर घूमने निकलते तो ‘चंदामामा’ पेड़ों की ओट में से दर्शन देते ही थे हमने यहां एक नये आनंद की खोज की। जिस प्रकार अलग-अलग प्रकार की अंगूठियों में जड़ने पर हीरा नयी-नयी शोभा दिखाता है, उसी प्रकार अलग-अलग पेड़ों की ओट में चांद नयी-नयी छवि धारण करता था एक बार सींग जैसी दो शाखाओं के बीच में उसे खड़ा करके हमने देखा। दूसरी बार गोल-कीपर (gole keeper) या लक्ष्य पाल जैसे एक बड़े पेंड़ को उसी चंद्र को हवा-गेंद (फुटबॉल) की तरह उछालते हुए देखा। दीघाघाट के बंदरगाह के पास एक जगह तो दो पेड़ों के बीच चन्द्रमा इस तरह जमकर बैठा था कि मालूम होता था मानों “यह चांद तेरा नहीं है, मेरा है” कहकर पेड़ आपस में लड़ रहे हों। और अंत में इन दोनों का झगड़ा निपटाने के लिए चांद ने मुंह बनाकर कहा, “तुम दोनों में से मैं किसी का भी नहीं हूं, जाओं।” इतना कहकर वह रुका नहीं। वह तो सीधा ऊंचा ही चढ़ता गया। चंद्र की इस तटस्था की कद्र करके हम थोड़े आगे बढ़े ही थे, इतने में वह अपना न्यायाधीशपन भूलकर एक पेड़ से जाकर चिपक गया! और अंत में भुजाओं में जकड़े जाने के कारण हंसने लगा।

मन में संकल्प उठाः ऐसे चांदनी के दिनों में कुछ समय सामने के उस निर्जन टापू में बिता सकें तो कितना अच्छा हो! होली और धुलेंडी के दिन तो छोड़ ही देने पड़े, क्योंकि लोग होली पीकर उन्मत्त हो गये थे, और उन्होंने दो दिन तक गंगा-किनारे के कीचड़ और पेड़ों के रंगों का अनुकरण करने का निश्चय किया था। जब वे इससे निवृत्त हुए, तब हम एक नाव की व्यवस्था करके चल पड़े।

चंद्र निकले उसके पहले रवाना होने में भला मजा कैसे आवे? किन्तु चंद्र को जल्दी थी ही नहीं। निकला भी तो प्रकाश नहीं देता था। किसी को पता चले बिना जिस प्रकार कोई नया धर्म स्थापित होता है, उसी प्रकार चंद्रमा निकला। उसका प्रकाश इतना मंद था कि स्वाति को भी उस पर तरस आ रहा था। जब चंद्र ही इतना मंद था, तब वफादार चित्रा अदृश्य रहे, इसमें आश्चर्य क्या? शनि और गुरू मंत्र पढ़ते हुए पश्चिम की ओर अस्त हो रहे थे। तारकांकित झोंपड़ी के स्वामी अगस्त दक्षिण पर आरोहण कर रहे थे हमारी नाव चलने लगी। पानी में चंद्र का एक लम्बा स्तंभ दिखाई देने लगा। प्रथम स्थिर, बाद में तरल। हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गये त्यों-त्यों पानी का पृष्ठभाग अधिकाधिक चंचल होता गया, और भांति-भांति की आकृतियों का प्रदर्शन करने लगा।

मेरे मन में विचार आया कि पानी के जत्थे और रफ्तार के साथ ये आकृतियाँ भी बदलती हैं। तो इनका अध्ययन करके हरेक को अलग-अलग नाम देकर ऐसी योजना क्यों न बनायी जाय कि नदी कि रफ्तार दिखाने के लिए उन आकृतियों का नाम ही बता दिया जाय? ऊंची और नीची ध्वनि को हम यदि ‘सा, रे, ग, म, प, ध, नी’ जैसे नाम दे सकते हैं, अत्यंत उग्र ताप को (white heat) सूर्यकांति उष्णता कह सकते हैं, तो नदी की रफ्तार को गौमूत्री का-वेग वलय-वेग आवर्त-वेग, विवर्त-वेग आदि नाम क्यों नहीं दे सकते?

इस कल्पना के साथ ही मैं विचारों के आवर्त में उतर गया और चित्रा कब प्रकट हुई, इसका पता ही न चला। हम मंझधार में पहुंच और मुझे प्रार्थना सूझी। ऐसे स्थान पर आंखे मूंदकर कहीं अंधेरी प्रार्थना की जा सकती है? हमारा प्रार्थना स्वामी जब हमारे सामने विविध रूप से प्रत्यक्ष विराजमान हो, तब आंखे मूंदकर हम गुहा-प्रवेश किसलिए करें? ‘रसो वै सः’ कहकर जिसे हम पहचानते हैं, वह जब रसपूर्ण भूमि, पवित्र जल, सौम्य तेज, आह्लादकारी पवन और पितृ-वात्सल्य से हमारी ओर देखने वाले आकाश के विस्तार आदि के विविध रूपों में प्रकट हो और ‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः, रसवर्ज रसोप्यास्य परं दृष्टवा निवर्तते।’ श्लोक हम गाते हों, तब सारा जीवन-दर्शन नये सिरे से सोचा जाता है। गहरा विचार लम्बा होता ही है, ऐसी कोई बात ही नहीं है। रस का निवर्तन कब होता है। और परिवर्तन किस तरह होता है, इसकी सारी मीमांसा मैंने तीन-चार क्षणों में ही मन में कर ली और देखते-ही-देखते प्रार्थना में ताजगी आ गयी। ‘रघुपति राघव राजाराम’ की धुन शुरू हुई, और चंचल मन जीवन-रस की गंभीर मीमांसा छोड़ कर तुरन्त पूछने लगा, ‘श्री राम चंद्र जी ने गुहक की सहायता से गंगा किस स्थान पर पार की होगी? गुहक की नाव हमारी नाव के जितनी चौड़ी होगी या किसी पेड़ के तने से बनाई हुई नन्हीं सी डोंगी जैसी होगी?’

बात की बात में हम उस टापू पर पहुंच गये और सलिल-विहार छोड़कर हमने सिकता-विहार शुरू किया। चमकीली बालू चमकीले पानी से कम आनंददायक नहीं थी। टापू के किनारे थोड़ी दूब उगी हुई थी। एक क्षण का विचार करके हमने निश्चय कर लिया कि यहां सांप, बिच्छू, कांटा कुछ भी नहीं हो सकता। यहां तो अक्षुण्ण बालू ही बिछी हुई है। यदि कोई निशानी है तो वह अस्थिर-मति पवन की लहरों की ही। गंगा की लहरों के कारण रेत में बनी हुई आकृतियों को मिटाने की क्रीड़ा मनमौजी पवन किस प्रकार करता है, इसका आलेख यहां देखने को मिलता था। रेत पर बनी हुई आकृतियां ऐसी दिखाई देती थीं, मानो पाठशाला के बच्चे थककर सो गयें हों और उनकी कापियां तथा स्लेटें किताबों के साथ इधर-उधर बिखरी पड़ी हों। कहीं मनचले, लहरी पवन की लिखावट दिखाई देती, तो कहीं लहरों की स्वर लिपि रेत में अंकित दिखाई देती थी। इनमें अपने पदचिह्न अंकित करने का मेरा जी नहीं होता था। किन्तु बालू के झट टूट जाने वाले पपड़े जब पैरों तल टूट जाते, तब पापड़ खाने जैसा मजा आता था। पैरों के आनंद को सारे शरीर ने अनुभव किया और उसे लगा कि दरअसल मूसल की तरह खड़े-खड़े चलने में पूरा मजा नहीं है। All rights reserved का दावा करने वाला कोई गधा वहां नहीं था। इसलिए हमने निःशंक होकर रेत में लोटने की सोची। किन्तु दुर्भाग्यवश इस बात में हमारे साथियों का एकमत नहीं हो सका। किसी की प्रतिष्ठा इसमें बाधक हुई, तो किसी का कैंकर्य आड़े आया। हमारे खलासी तो हमें वहीं छोड़कर किसी से मिलने टापू के दूसरे छोर पर चले गये। शराबखाने के नौकर पियक्कड़ों की ओर जिस दृष्टि से देखते हैं, उसी दृष्टि से उन्होंने हम सौदर्य-पिपासु लोगों की ओर देखा होगा।

गया कांग्रेस के बाद हम चंपारन की ओर गये थे, तब इसी स्थान से हमने गंगा पार की थी। उस समय आश्रम के दो विद्यार्थियों ने एक मीठा भजन गाया थाः ‘मंगल करहु दयाSSS करी देवी’। इस स्थान पर आते ही वह सब याद आया और मैं भीमसेन का अनुकरण करके मुक्त कंठ से गाने लगा। साथियों ने उदारता के साथ उसे सह लिया। इससे मैं और भी चढ़ गया और मथुरा बाबू से कहने लगा, “मुझे छपरा से मुंगेर तक नाव में जाना है। कितना समय लगेगा?” ऐसी यात्रा मेरे नसीब में है या नहीं, ईश्वर जाने! किन्तु कल्पना में तो मैंने वह पूरी भी कर ली।

आकाश में ब्रह्महृदय अस्त होने की तैयारी कर रहा था। महाश्वान अपनी मृगया में मशगूल था। अगस्ति की झोंपड़ी अब अपनी जगह पर आ गयी थी। और कृत्ति का तटस्थता से स्मित कर रही थी। पुनर्वसुकी नाव ने अग्रभाग जरा ऊंचा करके दक्षिण की यात्रा शुरू की और हमें इस बात की याद दिलाई कि हम इस टापू के निवासी नहीं है; यहां से हमें वापस लौटना है और परियों की सृष्टि को छोड़कर मानवी सृष्टि में उतरना है। हम तुरंत टापू के किनारे पर आ गये और पुनर्वसु की तरह अपनी नाव हमने दक्षिण की ओर बढ़ाई।

‘फिर यहां कब आयेंगे?’ ऐसा विषाद मन में नहीं उठा। गंगोत्री से लेकर हीरा बंदर तक गंगा के अनेक बार दर्शन करके मैं पावन हुआ हूं और मैया की कृपा से आगे भी अनेक बार दर्शन होंगे। अब तक पूर्णानन्दन में घट-बढ़ होने की संभावना नहीं है। इसीलिए वापस लौटते समय मुंह से शांतिपाठ निकल पड़ाः

ऊँ पूर्णम् अदः, पूर्णम् इदं; पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् एवावशिष्यते।।


अप्रैल, 1941

 

 

 

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