वर्तमान में सिंचाई सुविधाओं के संचालन, अनुरक्षण, विस्तार व आधुनिकीकरण की दिशा में प्रभावी कदम उठाकर सिंचाई व्यवस्था की कुशलता में संवृद्धि करने का प्रयास किया जा रहा है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी भागीदारी सिंचाई प्रबंधन (पीआईएम) के आधार पर क्षमता की उपयोगिता में वृद्धि करने का लक्ष्य रखा गया है। हर्ष का विषय है कि वर्तमान में कृषि विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान विभागों के माध्यम से जल संसाधन मंत्रालय ने कृषक भागीदारी कार्यवाही अनुसंधान कार्यक्रम प्रारंभ किया है, जिससे किसान लाभान्वित हो रहे हैं और नवीन प्रौद्योगिकी के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। इसी प्रकार, सिंचाई प्रबंधन में किसानों की सहभागिता एवं योगदान प्राप्त करने हेतु जल-उपभोक्ता संघ गठित करने को प्राथमिकता दी जा रही है। इस योजना में 14 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष के स्थान पर 25 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष सिंचाई के विस्तार का लक्ष्य रखा गया है ताकि कृषि क्षेत्र की वर्षा जल पर निर्भरता कम की जा सके।
ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि देश में 12 करोड़ किसान हैं तथा परिवार सहित उनकी जनसंख्या 60 करोड़ आंकलित की गई है। इस प्रकार से देश की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कृषि व कृषि से संबंधित क्षेत्रों से ही रोजगार प्राप्त कर रही है। ऐसी स्थिति में देश की अर्थव्यवस्था में कृषि हेतु सिंचाई साधनों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
वैश्विक स्तर पर जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि में किया जाता है। वर्तमान में विश्व में कुल जल का 59 प्रतिशत कृषि में, 23 प्रतिशत उद्योगों में और शेष 8 प्रतिशत का उपयोग घरेलू कार्यों हेतु किया जाता है। विश्व में लगभग 1.5 हेक्टेयर क्षेत्र में कृषि कार्यों हेतु प्रतिवर्ष 2000 से 2555 घन किलोमीटर जल का उपयोग किया जाता है। ऐसा अनुमान भी प्रस्तुत किया गया है कि वर्ष 2030 तक 71 प्रतिशत वैश्विक जल का उपयोग कृषि कार्यों में किया जाएगा।
गौरतलब है कि कृषिजन्य वस्तुओं के उत्पादन हेतु जल की अत्यधिक आवश्यकता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक टन अनाज उत्पादित करने के लिए लगभग 1000 टन जल की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो धान उत्पादित करने हेतु 3 घनमीटर जल जरूरी है।
हमारे देश में भी उपलब्ध जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि में किया जा रहा है। समन्वित जल संसाधन विकास के राष्ट्रीय आयोग ने अनुमान प्रस्तुत किया है कि वर्तमान में देश के 83 प्रतिशत जल का उपयोग सिंचाई हेतु तथा शेष जल का उपयोग घरेलू, औद्योगिक व अन्य उपयोगों के लिए किया जाता है।
देश में जल की मांग (बिलियन क्यूबिक मीटर) |
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(वर्ष (अनुमानित) |
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क्षेत्र |
2000 |
2025 |
2050 |
घरेलू उपयोग |
42 |
73 |
102 |
सिंचाई |
541 |
910 |
1072 |
उद्योग |
08 |
22 |
63 |
ऊर्जा |
02 |
15 |
130 |
अन्य |
41 |
72 |
80 |
कुल |
634 |
1092 |
1447 |
तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 2050 तक जल की मांग में अत्यधिक बढ़ोत्तरी होगी। सिंचाई हेतु भी जल की मांग 541 बिलियन मीटर से बढ़कर वर्ष 2050 तक लगभग दुगुनी अर्थात 1072 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि वर्ष 2025 में सिंचाई हेतु प्रयुक्त जल की उपलब्धता वर्तमान 83 प्रतिशत से घटकर 73 प्रतिशत ही रह जाएगी। जबकि हकीकत यह है कि सिंचित कृषि क्षेत्र में विस्तार के साथ कृषि हेतु प्रयुक्त जल की मात्रा बढ़ने के कारण कृषि में जल की आवश्यकता तीव्र गति से बढ़ रही है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व की लगभग 16 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है जबकि जल मात्र 4 प्रतिशत ही उपलब्ध है।
स्वतंत्रता के पश्चात कृषि कार्यों में सिंचाई के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए सिंचाई के विकास व विस्तार को प्राथमिकता प्रदान की गई, जिसके परिणामस्वरूप देश में कुल सिंचित क्षेत्र में अभिवृद्धि दर्ज की गई। वर्ष 1950 में कुल सिंचित क्षेत्र 2.26 मिलियन हेक्टेयर था, जो बढ़कर 2006-07 में 102.8 मिलियन हेक्टेयर हो गया।
इसी भांति, देश में प्रथम राष्ट्रीय जलनीति वर्ष 1987 में स्वीकृत की गई, जिसका उद्देश्य - जल-स्रोतों का संरक्षण, बाढ़-प्रबंधन व नियंत्रण व जल के उचित दोहन को सुनिश्चित करके कृषि विकास को सुनिश्चित करना है। नौवीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई की स्थापित क्षमता और इसके प्रयोग के अन्तराल को कम करने हेतु कमांड क्षेत्र कार्यक्रम, संस्थनात्मक सुधार तथा सिंचाई प्रबंधन में किसानों की भागीदारी को प्राथमिकता दी गई।
वर्ष 2005-6 से वर्ष 2008-09 के दौरान क्रियान्वित “भारत निर्माण कार्यक्रम” के दौरान भी सिंचाई को मुख्य घटक के रूप में समावेशित करते हुए वर्ष 2009 तक एक करोड़ हेक्टेयर सिंचाई क्षमता का निर्माण करने का लक्ष्य तय किया गया।
जल के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए वर्ष 2007 को ‘जल वर्ष’ घोषित करते हुए भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में जल की समय पर, सही मात्रा में उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सिंचाई परियोजनाओं को समय पर पूर्ण करना तथा क्षतिग्रस्त सिंचाई परियोजनाओं की मरम्मत व सुधार व्यवस्था को प्राथमिकता प्रदान की। इसके अतिरिक्त, भागीदारी सिंचाई-प्रबंधन व्यवस्था से संबंधित कानूनों के बारे में किसानों को जानकारी प्रदान करने का संकल्प रखा गया तथा लोगों को जल संरक्षण हेतु प्रोत्साहित किया गया। सरकार ने सिंचाई सुविधाओं के विकास व विस्तार हेतु वाटरशेड विकास परियोजना को अपनाकर ग्रामीण विकास की परिकल्पना को साकार किया है। वाटरशेड कार्यक्रम के अन्तर्गत चेक-डैम निर्माण व जल-संरक्षण कार्यों को अपनाए जाने से कुछ सीमा तक खेतों में जलसंकट की मार कम हुई है तथा महिलाओं के सिर पर पेयजल को बोझ हल्का हुआ है।
वर्ष 2007-08 में सिंचाई पर परिव्यय 11,000 करोड़ था जिसको बढ़ाकर वर्ष 2008-09 में 20,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। इसी भांति, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम के अन्तर्गत 24 बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं तथा 763 छोटी परियोजनाओं को पूर्ण करके पांच लाख हेक्टेयर अतिरिक्त सिंचाई क्षमता का विकास करने का लक्ष्य रखा गया। वर्ष 2009-10 में 14 नई परियोजनाओं को प्रारंभ करने हेतु 100 करोड़ रुपये का प्रावधान इक्विटी के रूप में करने का लक्ष्य रखा गया। निसंदेह रूप से, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार एवं इनके संचालन व अनुरक्षण में सुधार से किसानों की स्थिति में सुधार करना संभव होगा तथा कृषि-उत्पादन में वृद्धि करने का लक्ष्य पूर्ण होगा। यही नहीं, कृषि विकास हेतु सिंचाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने स्वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्त, 2009 को अपने उद्गार व्यक्त किए कि “कृषि के क्षेत्र में सफलता के लिए हमें आधुनिक उपायों का सहारा लेना होगा। सीमित मात्रा में उपलब्ध जमीन और जल संसाधनों का उपयोग हमें अधिक कुशलता से करना होगा हमें उन किसानों की जरूरतों पर विशेष ध्यान देना होगा जिनके पास सिंचाई के साधन नहीं है।”
सिंचाई सुविधाओं के इष्टतम उपयोग हेतु संचालन एवं अनुरक्षण व्यवस्थाओं के लिए वर्ष 2011-12 से 2014-15 तक 5000 करोड़ रुपये का अनुदान विशेष जल-प्रबंधन हेतु स्वीकृत किया गया है। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि सिंचाई परियोजनाओं के जल प्रयोग की 10 प्रतिशत कुशलता बढ़ाने से 140 हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि सिंचित क्षेत्र के रूप में परिवर्तित की जा सकती है।
इन सब नीतियों को क्रियान्वित करने के बावजूद भी देश की सिंचाई व्यवस्था के संदर्भ में यह तथ्य भी विचारणीय है कि वर्तमान में सिंचाई व्यवस्था की कुशलता पर सवालिया निशान लग रहा है। समन्वित जल संसाधन विकास में राष्ट्रीय आयोग के मुताबिक देश में सतही जल की सिंचाई कुशलता 35 से 40 प्रतिशत के मध्य है जबकि भूजल की सिंचाई कुशलता 65 प्रतिशत के लगभग है। गौरतलब है कि देश के किसानों को सिंचाई के अनुकूलतम प्रयोग हेतु आवश्यक पर्याप्त जानकारी का अभाव है।
इसी भांति, सिंचाई के इष्टतम हेतु आवश्यक सुविधाओं यथा भू-समतलीकरण चकबन्दी, भू-सुधार आदि की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होने के कारण सिंचाई की क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है। सिंचाई-परियोजनाओं की समुचित अनुरक्षण की व्यवस्था विद्यमान नहीं होने के कारण भी सिंचाई सुविधाओं का अल्पप्रयोग हो रहा है। यही नहीं, उचित एवं पर्याप्त जल-निकास सुविधाओं के अभाव के कारण न केवल सिंचाई व्यवस्थाओं के पूर्ण प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह लग गया है, अपितु जलमग्नता, लवणता एवं क्षारयुक्तता जैसी समस्याएं भी विकराल होती जा रही हैं।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जल-प्रयोग की कुशलता को बढ़ाने के लिए पानी के माप के रूप में या अत्यधिक सिंचाई करने या रिसने को न्यूनतम करने की दिशा में सार्थक प्रयासों की आवश्यकता है। इसी प्रकार, सिंचाई संबंधी विनियोग से अधिकाधिक लाभान्वित होने के लिए यह आवश्यक है कि बहुफसल पद्धति तथा फसलों के उचित विकल्प शस्यचक्र को वृहद् स्तर पर क्रियान्वित किया जाए। देश में अभी भी अधिकांश सिंचित भूमि एक-फसली क्षेत्र के अंतर्गत समावेशित है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि किसानों को जल-प्रयोग के बारे में आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराई जाए तथा सहयोगी सिंचाई प्रबंध कार्यक्रम में क्रियान्वयन को अधिक प्रभावी बनाया जाए।
यही नहीं, देश में सतही जल की अपर्याप्तता के कारण कृषि सिंचाई के लिए भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल का 90 प्रतिशत तथा सिंचाई का 40 प्रतिशत भाग भूजल से ही प्राप्त हो रहा है। देश में साठ के दशक से सिंचाई के लिए भूमिगत जल का उपयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। ज्ञातव्य है कि हमारे देश में भूमिगत जल के रूप में 433.86 घन किलोमीटर अर्थात 433.86 लाख हेक्टेयर मीटर जल प्रतिवर्ष उपलब्ध होने का अनुमान है जिसमें से 71.3 लाख हेक्टेयर मीटर जल का उपयोग घरेलू एवं औद्योगिक आवश्यकताओं तथा शेष 362.6 लाख हेक्टेयर मीटर का इस्तेमाल सिंचाई हेतु उपलब्ध है। इस प्रकार से, कृषिप्रधान देश होने के कारण भूमिगत जल की सर्वाधिक खपत सिंचाई कार्यों में होती है। इसके साथ ही बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए खेती में जल की मांग में निरंतर बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है।
किंतु विडम्बना यह है ग्रामीण क्षेत्रों में भी पेयजल एवं सिंचाई व्यवस्था हेतु भूमिगत जल पर अत्यधिक निर्भरता होने के कारण भूजल का दोहन अंधाधुंध रूप से किया जा रहा है। भूमिगत जल के उपयोग में अनियंत्रित वृद्धि होने की वजह से भूमिगत जल का स्तर खतरनाक सीमा तक नीचे चला गया है, जिसके दुष्परिणाम सम्पूर्ण देश को झेलने पड़ रहे हैं। देश में नलकूपों, हैण्डपम्पों व बोरिंगों को बढ़ती संख्या भूजल के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रही है। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए तीसरी लघु सिंचाई जलगणना के आंकड़ों में स्पष्ट किया गया है कि वर्तमान में देश में लगभग एक करोड़ नब्बे लाख कुएं तथा गहरे ट्यूबवेल हैं।
ऐसा अनुमान है कि वर्ष 1970 से प्रतिवर्ष पौने दो लाख ट्यूबवेल लगाकर कृषि, उद्योग व घरेलू उपयोग हेतु भूजल का दोहन किया जा रहा है। देश में लगभग कृषि के के 60 प्रतिशत भाग की सिंचाई भूमिगत जल से होती है। शोधपरक अध्ययनों से यह सच्चाई भी उभरकर सामने आई है कि जिन क्षेत्रों में बिजली सस्ती एवं सुलभ है वहां प्रत्येक फसल के लिए भूमिगत जल का अधिक इस्तेमाल किया गया है।
भूजल का उपयोग निरन्तर बढ़ने से भूजल का स्तर देश के 206 जिलों में खतरनाक व चिन्ताजनक स्थिति में पहुंच गया है। यह तथ्य भी उभरकर सामने आया है कि किसान वैज्ञानिक जानकारी के अभाव में कृषि कार्यों के लिए आवश्यकता से 15 प्रतिशत अधिक जल का उपयोग करके भूमिगत जल के संकट को बढ़ा रहे हैं। यही नहीं, देश में सिंचाई परियोजना के रखरखाव व संरक्षण में कमी के कारण सिंचाई के लिए निष्कासित जल का 45 प्रतिशत भाग खेत तक पहुंचते हुए नालियों में रिस जाता है एवं शेष 55 प्रतिशत का ही उपयोग हो पाता है। इसके साथ, नकदी फसलों व जेनेटीकली मोडीफाइड (जी-एम) फसलों को, जिन्हें अधिक जल की आवश्यकता हाती है, प्राथमिकता व प्रोत्साहित करने के फलस्वरूप भूजल पर संकट गहराता जा रहा है।
देश के प्रमुख राज्यों तथा पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु व राजस्थान में भूजल में गिरावट के कारण इन राज्यों की कृषि व्यवस्था खतरे में पड़ गई है। गुजरात, तमिलनाडु, सौराष्ट्र व राजस्थान के सूखते हुए जल-स्रोत जल-प्रबंधन व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। विचारणीय बिन्दु है कि देश के हैण्डपम्प व नलकूपों में पानी की मात्रा निरन्तर घटती जा रही है। इसी कारण उत्तरप्रदेश व राजस्थान के कई जिलों में पंपिंग सेटों से जल प्राप्ति संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में यहां के किसानों ने सबमर्सिबल पंपों के माध्यम से भूमि के निचले स्तर से जल का दोहन प्रारंभ कर दिया है। यही चिन्ताजनक हालत बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों की है।
देश का उर्वरा क्षेत्र सूखे एवं जलाभाव के कारण रेगिस्तान में परिवर्तित होता जा रहा है, जिसके विस्तार को रोकना एक अहम व विकट चुनौती है। जल संसाधन मंत्रालय ने भूजल पर मंडराते संकट के बादलों की ओर संकेत करते हुए बताया कि देश के 5723 ब्लाॅकों में से 1065 ब्लॉकों में भूजल का अत्यधिक दोहन किया गया है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण यह भयावह भविष्यवाणी भी की गई है कि यदि इस दिशा में ठोस व प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो देश के ट्यूबवैल व हैण्डपम्प दस वर्षों में बेकार हो जाएंगे।
हमें इस तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से भूजल में हानिकारक व विषैले तत्वों यथा फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक व लौह जैसे तत्वों की मात्रा स्वीकार्य सीमा से अधिक होने पर इस जल से सिंचाई की उपादेयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। एक सर्वेक्षण में यह तथ्य उजागर किया गया है कि पश्चिमी बंगाल के भूजल में आर्सेनिक, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान के जल में फ्लोराइड तथा देश के पूर्वी भागों में लौह तत्व की अधिकता होने के कारण इन राज्यों के निवासी अनेक गंभीर रोगों के शिकार बनते जा रहे हैं।
भूजल के अतिदोहन के लिए मुख्य रूप से ऋणों की सहज व निम्न ब्याज दर पर उपलब्धता, बिजली से चलने वाले पपों का प्रसार, सरकारी नीतियां व विद्युत अनुदान जैसे तत्व उत्तरदायी हैं। अधिकांश क्षेत्रों में भूजल निष्कासन हेतु पंपों के प्रयोग हेतु बिजली बहुत कम दर पर या निःशुल्क प्रदान की जाती है। ऐसी स्थिति में भूजल निष्कासन की लागत शून्य या नगण्य हो जाती है। अधिकांश किसान जल के सदुपयोग एवं जल-संरक्षण की उपेक्षा करते हुए अधिकाधिक मात्रा में भूमिगत जल का निष्कासन करते है जिससे भूजल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। यही नहीं, किसानों में अतिरिक्त जल को विक्रय करके मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति भी देखने को मिल रही है। गुजरात के अनेक किसान अलग-अलग मौसमों के आधार पर विभिन्न दरों पर जल का विक्रय करते हैं जिससे भूमिगत जल पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
इसके साथ, देश में भूजल का संकट वर्षा जल के पूर्ण संरक्षण एवं समुचित उपयोग नहीं होने की वजह से बढ़ता जा रहा है। ज्ञातव्य है कि वर्षा जल का 85 प्रतिशत भाग बरसाती नदियों व नालों के माध्यम से समुद्र में मिल जाता है। देश को वर्षा से लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल प्राप्त होता है, जिसमें से केवल 3.8 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल का ही उपयोग किया जाता है। समुचित जल-प्रबंधन व संचालन व्यवस्था नहीं होने के कारण शेष बरसाती जल बाढ़ के रूप में जान-माल को गहरी क्षति पहुंचाता है। गांव के गांव, शहर के शहर जलमग्न होकर तबाही के कगार पर पहुंच जाते हैं। यही नहीं, बरसाती जल के साथ कृषि भूमि की उर्वर परत बह जाने से देश खाद्य संकट की स्थिति से गुजर रहा है।
यदि इसी बरसाती जल के संचयन एवं प्रबंधन हेतु भूगर्भ टंकियों, टांकों एवं सोख्ता-गड्ढों के साथ पारम्परिक जल-स्रोतों के निर्माण व पुनर्निर्माण की व्यवस्था की जाए तो दो तरफा लाभ होगा। एक तरफ बाढ़ की भीषण त्रासदी, खाद्य संकट, गांवों व शहरों के पेयजल एवं सिंचाई-जल पर मंडराते संकट के बादलों से मुक्ति मिलेगी तो दूसरी तरफ भूमिगत जलस्तर में बढ़ोत्तरी होने से जल संबंधित अनेक समस्याओं के समाधान में मदद मिलेगी। भूतपूर्व राष्ट्रपति डाॅ. अब्दुल कलाम ने भी कहा है कि ‘बाढ़ के 1500 अरब घन मीटर पानी को इस प्रकार से नियंत्रित किया जाए कि इसका उपयोग सूखाग्रस्त क्षेत्रों तथा देश के अन्य इलाकों को पर्याप्त जल उपलब्ध कराने में हो सके। इसके लिए हमें नदियों को जोड़ने एवं पानी के समुचित भंडारण की व्यवस्था करनी होगी। इस महत्वपूर्ण पक्ष की तरफ तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।’
केंद्रीय भूजल बोर्ड ने भी जन-जागृति कार्यक्रमों, जल-प्रबंधन प्रशिक्षण और भूजल अध्ययन व वर्षा जल संरक्षण के प्रदर्शन और भूजल पुस्तिकाओं के वितरण जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को क्रियान्वित करके भूजल के गिरते स्तर को रोकने की दिशा में प्रभावी प्रयास किए हैं। यही नहीं, केंद्रीय भूजल बोर्ड ने भूजल पर मंडराते संकट को दृष्टिगत रखते हुए एक जल निर्देशिका भी तैयार की है जिसमें भूजल के घटते स्तर को नियंत्रित करने हेतु राज्य सरकारों के सहयोग की आवश्यकता को रेखांकित किया है। केन्द्र सरकार ने भूजल के गिरते स्तर को नियंत्रित करने हेतु “आपात योजना” भी बनाई है।
इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों से एक माॅडल विधेयक तैयार करने की अपील की है, जिसके आधार पर भूजल संरक्षण, वर्षा-जल संचयन व भूजल स्तर में वृद्धि किया जाना संभव हो ताकि जल की बढ़ती मांग को पूरा किया जा सके। ‘पानी दृष्टि 2025 दस्तावेज’ में यह स्पष्ट किया गया है कि देश को वर्ष 2025 में 1027 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता होगी ताकि खाद्यान्न सुरक्षा, लोगों को पानी की आवश्यकता तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी व पर्यावरण संरक्षण संबंधी पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। वर्ष 2025 में 730 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता सिंचाई हेतु, 70 अरब घनमीटर घरों में जल-आपुर्ति हेतु, 77 अरब घनमीटर की पर्यावरण-संरक्षण संबंधी जरूरतों के लिए, 12 अरब घनमीटर औद्योगिक क्षेत्रों तथा शेष अन्य क्षेत्रों के लिए होगी।
ज्ञातव्य है कि देश में भूमिगत जल के 80 प्रतिशत भाग का उपयोग कृषि क्षेत्र में किया जाता है। अतः इस क्षेत्र में जल की बचत व जल के सदुपयोग को सुनिश्चित करके गिरते भूजल स्तर को नियंत्रित करना संभव है। इस क्षेत्र में जल के दक्ष व अनुकूलतम उपयोग हेतु निम्न कदम उठाये जा सकते हैं-
1. कृषक कृषि विभाग के विशेषज्ञों के परामर्श के अनुसार प्रत्येक फसल के लिए सिंचाई जल की उचित मात्रा का ही उपयोग करें, अनावश्यक रूप से अधिक सिंचाई करके जल का दुरुपयोग नहीं किया जाए।
2. खेतों में सिंचाई से पूर्व खेत को समतल करके क्यारियों व नालियों का निर्माण किया जाए ताकि सिंचाई समस्त खेत में समान रूप से हो सके तथा पानी व्यर्थ नालियों में प्रवाहित नहीं हो।
3. ‘फव्वारा’ व ‘ड्रिप’ सिंचाई विधियों का उपयोग करके जल की बचत सम्भव है।
4. कम जल पर आधारित फसलों को प्राथमिकता प्रदान की जाए ताकि भूजल पर निर्भरता कम हो सके।
5. नहरों को पक्का करते समय जनसहयोग व सहभागिता आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, नहरों के संरक्षण व सुरक्षा के लिए जल उपभोक्ता समितियों का गठन किया जाए।
6. नहरों के किनारों को काटकर अवैध रूप से जल प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की जाए। ऐसा करने पर दोषी व्यक्ति के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाए।
7. विभिन्न फसलों की जल की आवश्यकता अलग-अलग होती है। अतः फसल के अनुसार सिंचाई व्यवस्था की जानी चाहिए।
8. परिष्कृत जल-प्रबंध क्षेत्र योजना को पूरे देश में क्रियान्वित करके काफी मात्रा में जल की बचत सम्भव है।
9. मृदा की प्रकृति, जलवायु व फसल-प्रतिरूप के अनुसार उचित मात्रा में सिंचाई व्यवस्था की जाए।
10. खरपतवार को नियंत्रित किया जाए ताकि नमी को संरक्षित करके फसल को सुरक्षित किया जा सके।
11. ‘शुष्क खेती’ को प्रोत्साहित करके भूजल स्तर में गिरावट को रोका जा सकता है।
12. क्षतिग्रस्त नालियों व सिंचाई प्रबंधन प्रणालियों की अपर्याप्तता के कारण 20 से 30 प्रतिशत जल का अपव्यय होता है। कुशल प्रबंधन व्यवस्था से इस अपव्यय को रोका जा सकता है।
13. भूजल भंडार की समृद्धि हेतु प्रत्येक किसान अपना सक्रिय योगदान दें।
इस प्रकार से कृषि क्षेत्र में जल की बचत करके भूजल पर मंडराते संकट को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। जल की बढ़ती मांग को दृष्टिगत रखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि किसानों को मुफ्त या निम्न दरों पर बिजली सुविधा उपलब्ध कराए जाने की अपेक्षा विद्युत शुल्कों की दर में किसानों की आर्थिक स्थिति के अनुरूप समायोजन किया जाना चाहिए।
जल संकट से प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी फसलों व पौधों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जिनको कम जल की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, भूमिगत जल के सन्दर्भ में बनाए गए विभिन्न नियमों व कानूनों का प्रभावी व सख्ती से पालन किया जाए, ऐसी व्यवस्था की जानी आवश्यक है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना के अन्तर्गत जल-संरक्षण एवं जल-संचयन कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए जल-संकट के समाधान हेतु सतत प्रयास किए जाने चाहिए।
हमें इस तथ्य को समझना होगा कि यदि जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तो यह केवल मानव जाति के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवों व वनस्पतियों के लिए भी खतरा है। जल के समान वितरण, कुशल व दक्ष प्रयोग व जल की बचत हेतु-जन-अभियानों के माध्यम से जन जागरुकता एवं सामाजिक सहभागिता उत्पन्न करके ही इस विकट समस्या का समाधान सम्भव है। हमें इस तथ्य को समझना होगा कि भूमिगत जल विशिष्ट प्रकार के ‘बैंक’ हैं। हमें केवल ‘ब्याज’ का ही उपभोग करना है, ‘मूलधन’ को सुरक्षित रखने के लिए यथासंभव प्रयास करने होंगे।
“जल ही जीवन है” इस वास्तविकता को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल का उपयोग एक कीमती वस्तु की भांति मितव्ययितापूर्वक किया जाए। यदि मानव ने जल को मुफ्त की वस्तु मानकर अनियंत्रित रूप से इसका दोहन किया तो बढ़ते जल संकट एंव सूखते भूमिगत जलस्रोत की मार सम्पूर्ण समुदाय को सहनी पड़ेगी।
(लेखिका अर्थशास्त्र विभाग, जीएसएस गर्ल्स (पीजी) कॉलेज, चिड़ावा (राजस्थान) में विभागाध्यक्ष हैं।)
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