अपने सीमित जल-संसाधनों को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि सिंचाई जल-प्रबन्ध की तकनीकों के साथ-साथ इनके प्रयोग में निरन्तर सुधार लाया जाये। केन्द्रीय जल-आयोग ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये कई कदम उठाए हैं।
इस परियोजना के विभिन्न क्रियाकलापों में समन्वयन, निगरानी और संवर्धन के लिये 1984 में केन्द्रीय जल आयोग में सिंचाई अनुसन्धान एवं प्रबन्ध संगठन स्थापित किया गया। इस परियोजना के लिये यू.एस.ए.आई.डी. से तकनीकी वित्तीय सहायता के रूप में आंशिक सहायता प्राप्त हुई। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य सिंचाई प्रणालियों की कुशलता और अनुरक्षण के लिये संस्थागत क्षमताओं को मजबूत बनाना था। भारतीय अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि आधारित है तथा यहाँ के लगभग 80 प्रतिशत लोग आजीविका के लिये कृषि व इसके सहायक कामधंधों पर निभर करते हैं। कृषि के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण घटक जल है और देश में जल संसाधन सीमित मात्रा में हैं।
तेजी से बढ़ती हुई अपनी जनसंख्या की खाद्य आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये देश के सामने अनाज की पैदावार बढ़ाने के अलावा और कोई चारा नहीं है, जिसे 1988-89 में 16 से 17 करोड़ टन से बढ़ाकर सन 2000 तक में 24 करोड़ टन तक पहुँचाना होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सिंचाई जल प्रबन्ध की उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल जरूरी है।
हालांकि सिंचाई योजनाओं पर भारी मात्रा में निवेश के कारण सिंचाई की क्षमता 1950-51 के 226 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1991-92 में 810 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गई फिर भी 1991-92 की स्थिति के अनुसार 80 लाख हेक्टेयर क्षमता का उपयोग नहीं हो रहा था। इसके लिये सिंचाई जल प्रबन्ध तकनीकों और उपयोगों में निरन्तर सुधार करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
सिंचाई प्रबन्ध नीति
सिंचित कृषि के क्षेत्र में आधुनिक तकनीकों के आने से सिंचाई विकास की समूची प्रक्रिया एक प्रौद्योगिक जटिलता के दौर से गुजर रही है। अब तक अमल में लाई गई परियोजनाओं में, केवल जल संसाधनों और जल वितरण तंत्र के विकास पर ही जोर दिया गया है, जिसके कारण अनुपयुक्त ही नहीं, बल्कि जल का अधूरा उपयोग हो रहा है।
जल प्रबन्धन से जल आपूर्ति में अवधारणात्मक बदलाव के साथ-साथ जनशक्ति का व्यवस्थित नियोजन और विकास आवश्यक है ताकि पानी का ठीक इस्तेमाल हो सके। साथ ही सदियों पुराने नियमों व पद्धतियों को भी बदलना जरूरी है ताकि वे आज की प्रौद्योगिकी व सामाजिक आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।
अतः एक ऐसी प्रभावशाली प्रबन्ध नीति जरूरी है, जिससे उपरोक्त आधारों पर क्रियान्वयन सम्बन्धी कार्यों में मदद मिल सके ताकि उपलब्ध जल संसाधनों से खेती की पैदावार बढ़ाई जा सके।
मापदण्ड
एक अच्छी सिंचाई प्रबन्ध नीति के मोटे तौर पर निम्नलिखित परिणाम होने चाहिए:-
1. जहाँ जल की सुलभता सीमित हो, वहाँ प्रति जल इकाई से अधिकतम खेतीहर पैदावार।
2. जहाँ भूमि की सुलभता सीमित हो, वहाँ प्रति भूमि इकाई की अधिकतम उर्वरता।
3. बड़े और छोटे किसानों के बीच अग्रणी व निम्नस्तरीय उपयोगकर्ताओं के बीच जल का समतापूर्ण बँटवारा।
4. उत्पादकता के नुकसान के बगैर स्थायी सिंचाई। सामान्यतया इसका अर्थ भूजल पट्टिका (खेत) को स्थायी रूप में बनाए रखने से होता है।
5. सिंचाई करने वालों को लाभ, जिनमें सही समय पर उचित मात्रा में व उचित अवधि के लिये पानी का उपलब्ध होना शामिल है।
6. आर्थिक रूप से व्यावहारिक तथा पर्यावरण अनुकूल परियोजनाएँ।
7. सूखा सम्भावित क्षेत्रों में आपूर्ति क्षेत्र का अधिकतम विस्तार।
उपर्युक्त मोटे-मोटे प्रावधान सितम्बर, 1987 की राष्ट्रीय जल नीति पर आधारित हैं। इन्हें पूरा करने के लिये निम्नलिखित पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित करना होगा।
1. इस क्षेत्र में प्रशिक्षण और अनुसन्धान।
2. प्रमुख प्रणाली का बेहतर संचालन, प्रबन्ध और अनुरक्षण। बुनियादी तौर पर इसके लिये संचालन व अनुरक्षण की पूर्व निर्धारित योजना के जरिए प्रमुख प्रणाली का उचित अनुरक्षण और कुशल संचालन जरूरी होगा, ताकि फसल उगाने के नाजुक चरणों में कम-से-कम फसल की माँगों को पूरा किया जा सके।
3. स्व-प्रबन्धित प्रणाली के चरणबद्ध विकास की नीति, जो तीसरे स्तर से नीचे होगी तथा जिसके लिये जल-उपयोगकर्ताओं की संस्था स्थापित की जाएगी और प्रणाली का भार ऐसे संगठनों को सौंप दिया जाएगा। इसके लिये सरकार के हस्तक्षेप में स्पष्ट रूप से कमी करनी होगी। सरकार की भूमिका केवल तकनीकी सहायता प्रदान करने और कुछ महत्त्वपूर्ण ढाँचों के अनुरक्षण तक ही सीमित रह जाएगी।
4. सिंचाई के क्षेत्र में वांछित संगठनात्मक और कार्यपद्धति विषयक परिवर्तन जो अन्तर-क्षेत्रीय सम्पर्क व समन्वय, सिंचाई विभागों के पुनर्गठन, वैधानिक सहायता, कार्मिक प्रबन्ध आदि को स्पष्ट रूप से परिभाषित करेंगे।
5. सरकारी एजेंसियों की प्रमुख प्रणाली और अर्द्ध-तृतीय प्रणाली की जल उपयोगकर्ता संस्था दोनों ही के द्वारा प्रबन्ध की ऐसी व्यवस्था करना जिसमें वित्तपोषण की व्यवस्था निहित हो।
उठाए गए कदम
कमान क्षेत्र विकास प्राधिकरण : प्रमुख व मझौली परियोजनाओं के कमान में सिंचाई क्षमता के उपयोग में गति लाने और जल की उपयोग व उत्पादकता सम्बन्धी कुशलता बढ़ाने के लिये 1974-75 में एक केन्द्र-प्रायोजित योजना के रूप में कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम शुरू किया गया था।
इस कार्यक्रम में खेतों में नालियाँ बनाने, भूमि समतल करने, भू तथा सतह जल के संयुक्त उपयोग, प्रत्येक जोत को समान व समय पर जलापूर्ति के लिये वाराबन्दी या, जल वितरण की चक्रीय प्रणाली की शुरुआत, प्रत्येक कमान क्षेत्र के लिये उपयुक्त फसल प्रतिरूप और जल प्रबन्ध तरीके तैयार करने और उन्हें प्रचारित करने जैसे खेत में किये जाने वाले विकास कार्यों का प्रस्ताव किया गया था। मार्च, 1990 के अन्त तक लगभग 49.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की वाराबन्दी की जा चुकी थी, 19.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर खेतों में नालियाँ बनाई जा चुकी थीं।
कुल मिलाकर भू-सुधार और नालियों की सुविधाओं के विकास की दिशा में प्रगति मामूली रही है और यही स्थिति प्रत्येक सिंचाई कमान में मौजूदा स्थितियों के अन्तर्गत जल के अधिकतम उपयोग से फसल के प्रतिरूप और कृषि पद्धतियाँ तैयार करने और उन्हें प्रचारित करने के बारे में किये जाने वाले प्रयासों और अनुसन्धान की है।
इस जागरुकता के माहौल में 1980 में आयोजित राज्यों के मंत्रियों के सम्मेलन की सिफारिश पर जून, 1981 में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गई जिसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि शामिल किये गए। अपनी रिपोर्ट में (सितम्बर, 1982) समिति ने ये सिफारिशें कीं:-
1. नहरों के संचलन व अनुरक्षण के लिये सिंचाई विभागों में जल प्रबन्ध एवं भूमि विकास स्कंध बनाए जाएँ ताकि बहु-शासकीय तकनीकी ज्ञान उपलब्ध हो सके।
2. सभी स्तरों के कार्मिकों को जल व भूमि-प्रबन्ध में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए और इस उद्देश्य से राष्ट्रीय व राज्य स्तरों पर संस्थान स्थापित किये जाने चाहिए
जल संसाधन प्रबन्ध एवं प्रशिक्षण परियोजना
इस परियोजना के विभिन्न क्रियाकलापों में समन्वयन, निगरानी और संवर्धन के लिये 1984 में केन्द्रीय जल आयोग में सिंचाई अनुसन्धान एवं प्रबन्ध संगठन स्थापित किया गया। इस परियोजना के लिये यू.एस.ए.आई.डी. से तकनीकी वित्तीय सहायता के रूप में आंशिक सहायता प्राप्त हुई।
इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य सिंचाई प्रणालियों की कुशलता और अनुरक्षण के लिये संस्थागत क्षमताओं को मजबूत बनाना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सिंचाई प्रणालियों के सभी चरणों में व्यावसायिक दक्षता को उन्नत बनाने और किसानों की आवश्यकताएँ पूरा करने तथा अन्ततः खेती की पैदावार बढ़ाने की दृष्टि से बेहतर प्रबन्ध के लिये संगठनात्मक और पद्धतिमूलक परिवर्तन सुझाने का सहारा लिया गया।
इस परियोजना में गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के मौजूदा जल एवं भूमि प्रबन्ध संस्थानों को मजबूत करनेे तथा आन्ध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में ऐसे 8 नए संस्थान स्थापित करने का कार्यक्रम बनाया गया। इसके अतिरिक्त, दो कृषि विश्वविद्यालयों- महात्मा फुले कृषि विश्वविद्यालय, राहुड़ी (महाराष्ट्र) और राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, उदयपुर तथा 3 इंजीनियरी विश्वविद्यालय एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा; अन्ना विश्वविद्यालय, मद्रास तथा बिहार कॉलेज आफ इंजीनियरिंग, बिहार को भी इस परियोजना में शामिल किया गया और मजबूत बनाया गया।
इस परियोजना के अन्तर्गत आरम्भ किये गए क्रिया-कलापों को निम्नलिखित श्रेणियों में रखा गया।
प्रशिक्षण और व्यावसायिक विकास; कार्य अनुसन्धान अध्ययन; प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण के लिये प्रणाली; संगठनात्मक एवं कार्यपद्धतिमूलक परिवर्तन।
सिंचाई अनुसन्धान एवं प्रबन्ध सुधार संगठन की भूमिका
केन्द्र जल आयोग में स्थापित सिंचाई अनुसन्धान एवं प्रबन्ध सुधार संगठन प्रकोष्ठ ने निम्नलिखित कार्य किये:-
1. यू.एस.आई.डी. की सलाह से परियोजना क्रियान्वयन योजना तैयार करना।
2. राष्ट्रीय/अन्तरराष्ट्रीय सिंचाई प्रबन्ध संगठनों के साथ सम्पर्क विकसित करना और उनकी सेवाएँ प्राप्त करना।
3. जल एवं भूमि प्रबन्ध संस्थानों और सिंचाई प्रबन्ध प्रशिक्षण संस्थानों (आई.एम.टी.आई.) में वास्तविकता पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित करना।
4. प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था।
5. सिंचाई प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं पर अल्पावधि प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करना और ऐसे पाठ्यक्रमों की समीक्षा करना।
6. व्यावसायिकों और किसानों को प्रौद्योगिकी के हस्तान्तरण के लिये राष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार/कार्यशालाएँ आयोजित करना।
7. जल-संसाधन प्रबन्ध एवं प्रशिक्षण परियोजना की प्रगति की समय-समय पर समीक्षा करना।
8. तकनीकी सलाहकार समिति, केन्द्रीय संचालन समिति की सहायता प्रदान करना तथा राज्यों की तकनीकी परिषदों की नीतिगत मामलों और बीच में परियोजना के क्रियान्वयन में सुधार करने के बारे में केन्द्रीय जल आयोग के प्रतिनिधि के रूप में मदद करना।
कार्य अनुसन्धान
विभिन्न राज्यों में कुछ चुनी हुई परियोजनाओं पर कार्य अनुसन्धान क्रियाकलाप किये गए हैं, जिनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नवत हैं:-
1. अध्ययन में शामिल व्यक्तियों द्वारा वास्तविक जीवन में महसूस की जा रही सिंचाई समस्याओं को भली-भाँति और व्यापक स्तर पर समझना।
2. अध्ययन क्षेत्र के आस-पास के किसानों को प्रत्यक्ष रूप से कुछ सुधारों से तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए नई-नई प्रौद्योगिकियों की जानकारी से लाभान्वित करना।
3. ऐसे सफल हस्तक्षेपों का पता लगाना, जिन्हें देश में अन्य प्रणालियों में भी अपनाया जा सके।
4. अध्ययन स्थलों को व्यवसायिकों, व किसानों को प्रशिक्षण देने तथा स्थल पर प्रदर्शन कार्यशालाओं आदि के आयोजन के लिये उपयोग करना ताकि प्रौद्योगिकी ऐसे लोगों तक पहुँचाई जा सके।
5. जिन विभिन्न हस्तक्षेपों पर अमल किया गया, उनमें जल उपयोगकर्ता संस्था की स्थापना उल्लेखनीय है। किसानों के प्रशिक्षण के उत्साहवर्द्धक परिणाम निकले हैं। जल निचले स्तर पर लोगों तक पहुँच रहा है तथा किसानों की जानकारी का दायरा बढ़ा है। संस्था बनाने के प्रति वे अब उत्सुक हो चले हैं तथा अब वे स्वेच्छा से अनुरक्षण कार्यों में श्रमदान के लिये आगे आ रहे हैं।
प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण
केन्द्रीय जल आयोग ने विभिन्न राज्यों से भाग लेने आये व्यक्तियों को प्रौद्योगिकी के प्रभावशाली रूप से हस्तान्तरण के लिये कई कार्यशालाएँ/सेमिनार/श्रम इंजीनियर आदान-प्रदान कार्यक्रम, सलाहकारों और जल एवं भूमि प्रबन्ध संस्थानों के जरिए आयोजित किये या करवाए हैं।
जल अनुसन्धान प्रबन्ध एवं प्रशिक्षण परियोजना के अन्तर्गत सलाहकारों और केन्द्रीय जल आयोग के बीच परस्पर विचार-विनिमय के जरिए सिंचाई, प्रबन्ध पहलुओं से सम्बन्धित प्रकाशन और प्रशिक्षण शेड्यूल/मार्गदर्शी सिद्धान्त/नियमावलियाँ/पुस्तिकाएँ प्रकाशित की गई हैं। सिंचित कृषि के क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न संगठनों और जल एवं भूमि प्रबन्ध संस्थानों द्वारा इन दस्तावेजों का लाभप्रद उपयोग किया जा रहा है।
संगठनात्मक तथा कार्यपद्धति मूलक परितर्वन
जिन परिवर्तनों को सिंचाई विभागों के मौजूदा ढाँचे और मौजूदा नियम/कार्य-पद्धतियों में आवश्यक समझा गया था, उनका गहराई से अध्ययन किया गया, ताकि विभागों को आधुनिक प्रौद्योगिकी और सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाया जा सके। केन्द्रीय जल आयोग ने विशेषज्ञों के परामर्श से यह व्यापक अध्ययन शुरू किया। इन प्रयासों की परिणति ‘सिंचाई क्षेत्र में संगठनात्मक एवं कार्यपद्धति मूलक परिवर्तनों के प्रति दृष्टिकोण’ शीर्षक से एक रिपोर्ट में हुई। जिन बुनियादी पहलुओं पर विचार किया गया वे थे:-
1. सिंचाई प्रणाली की विश्वसनीयता
2. अन्तर-क्षेत्रीय सम्पर्क
3. सिंचाई प्रबन्धशैली व परम्परा
4. सूक्ष्म ढाँचागत विकेन्द्रीकरण और उत्पादन
5. जल उपयोगकर्ता संस्थाओं को सिंचाई विभाग और कमान क्षेत्र विकास प्राधिकरण की सहायता
6. वैधानिक सहायता
7. सिंचाई विभाग का पुनर्गठन
8. कार्मिक प्रबन्ध तथा मानव संसाधन विकास
9. सिंचाई विभाग के कार्यकारी व्यय तथा राजस्व और जल प्रभार
इस रिपोर्ट पर राष्ट्रीय जल बोर्ड की बैठक में विचार किया गया है, जिसमें विभिन्न राज्यों के सचिवों ने भाग लिया था। बैठक में इस रिपोर्ट के निष्कर्षों के क्रियान्वयन पर आम सहमति थी।
राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना
वर्ष 1986 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना शुरू की। विश्व बैंक की सहायता से चलाई जाने वाली इस परियोजना का उद्देश्य खेती की पैदावार और खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाना है। इस परियोजना की विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत जल-वितरण के सिद्धान्त को पारिभाषित करने और क्रियान्वयन के लिये जिम्मेदारी तय करने के उद्देश्य से प्रत्येक योजना के लिये ‘संचलन योजना’ बनाई गई है। बेहतर प्रबन्ध की दृष्टि से प्रणाली को उन्नत बनाने के लिये सीमित धनराशि प्रदान की गई।
वर्तमान में लगभग 35 लाख हेक्टेयर कृषि-योग्य कमान क्षेत्र के लिये 98 योजनाएँ चल रही हैं। जिन दस राज्यों में ये योजनाएँ चल रही हैं उनके नाम हैं:- आन्ध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, केरल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश। इक्कीस योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं तथा शेष क्रियान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं। पूरी योजनाओं के कारण अतिरिक्त सिंचित क्षेत्र और बेहतर जल कुशलता से खेती की पैदावार में 15 से 57 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है तथा परिणामस्वरूप किसानों की आमदनी भी बढ़ी है।
भावी कार्यक्रम
राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना-द्वितीय चरण: जल संसाधन मंत्रालय ने 31 मार्च, 1995 को समाप्त होने वाली परियोजना ‘राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना’ के वर्तमान चरण के क्रम में दूसरा चरण जारी रखने का फैसला किया है। परियोजना के दूसरे चरण में देश भर में लगभग 380 सिंचाई योजनाएँ चलाने का प्रस्ताव है। इसके अलावा प्रथम चरण के बाकी बचे कामों को भी इस चरण में पूरा किया जाएगा। इन सब कामों पर लगभग 20 अरब रुपए की लागत आने का अनुमान है।
विश्वसनीय, स्पष्ट और समतामूलक सिंचाई सेवा के अतिरिक्त, भागीदारी प्रबन्ध के जरिए प्रणाली बनाए रखने पर भी ध्यान दिया जाएगा।
अन्तरराष्ट्रीय सिंचाई एवं जलनिकासी सम्बन्धी प्रौद्योगिकी अनुसन्धान कार्यक्रम (आई.पी.टी.आर.आई.डी.)
सितम्बर 1987 की राष्ट्रीय जल नीति में विभिन्न क्षेत्रों में अनुसन्धान प्रयासों में तेजी लाने पर काफी बल दिया गया है। इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 1992 के दौरान विश्व बैंक के अन्तरराष्ट्रीय सिंचाई एवं जल निकासी सम्बन्धी प्रौद्योगिकी अनुसन्धान कार्यक्रम मिशन को भारत में दौरे की अनुमति दी।
यह मिशन बुनियादी तौर पर सिंचाई और जल निकासी प्रौद्योगिकी के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों की अनुसन्धान एवं विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं पर रिपोर्ट तैयार करने आया था। ये महत्त्वपूर्ण क्षेत्र पानी के ठहराव और लवणता के लिये क्षेत्रीय परीक्षण, नहरों के लिये किफायती लाइनिंग जिसमें कच्चा माल और तकनीकें भी शामिल हैं, खेतों में जल के उपयोग के बेहतर तरीकों सहित किफायती जल प्रबन्ध और नहरतंत्र के गतिशील नियमन से सम्बन्धित थे। इस मिशन ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। पहचाने गए कुछ अनुसन्धान प्रस्तावों के लिये कुछ देशों ने सहायता व सहयोग देने की पेशकश भी की है।
निष्कर्ष
आने वाले वर्षों में, जल एक छीजता हुआ संसाधन बन जाएगा। भावी सीमित भण्डारण योजनाओं और बेहतर जल प्रबन्ध तकनीकों को भी अपनाने की बाध्यता को देखते हुए सिंचाई की आधुनिक अवधारणाओं पर अमल करने की आवश्यकता को रेखांकित करना शायद जरूरी हो। इस दृष्टि से देखने पर 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने में इन प्रयासों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई पड़ती है।
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Post By: RuralWater