सिंचाई जल का कुशल उपयोग – समस्यायें एवं अनुसंधान

भारत विश्व का उन अग्रणी देशों में से है जहां गत 40 वर्षों में सिंचाई विकास में भारी प्रगति हुई है। जहां वर्ष 1950-51 में देश की कुल क्षमता मात्र 22.60 मिलियन हेक्टेयर थी, वह वर्ष 1991-92 में बढ़कर 81.28 मिलियन हेक्टेयर हो गयी है जिसमें से 30.98 मिलियन हेक्टेयर वृहद एवं मध्यम सिंचाई योजनाओं से 11.57 मिलियन हेक्टेयर लघु सतही योजनाओं से एवं 38.73 मिलियन हेक्टेयर भू-जल लघु योजनाओं से हुई। सिंचाई विकास पर वर्ष 1991-93 तक लगभग 48.892 करोड़ रुपया व्यय हुआ जो एक भारी धनराशि है। परंतु यह देखा गया है कि हमारे यहां सिंचाई जल का कुशल उपयोग नहीं होता है और सिंचाई जल की भारी मात्रा रिसकर उड़कर या बहकर नष्ट हो जाती है। यह हानि 60 प्रतिशत की आंकी गयी है। इतना ही नहीं कुछ नहरी क्षेत्रों में भारी रिसाव एवं सिंचाई के समुचित तरीके न अपनाने के कारण भूमि के रेतीले या ऊसर होने एवं जल स्तर ऊंचा उठाने की समस्याएं विकराल रूप धारण कर ली है। इसके कारण फसलों में जल प्रबंध के विभिन्न पहलुओं पर कृषकों को पर्याप्त जानकारी न होना है अथवा उन पर समुचित ध्यान न दिया जाना है। नहरों, गूलों एवं नालियों से होने वाले रिसाव की रोकथाम, ओसराबंदी एवं सही मात्रा में सिंचाई, नहर एवं भू-जल के मिले जुले उपयोग, सिंचाई के सुधरे तरीके जैसे रिसाव एवं बौछार सिंचाई, अनुपयोगी वाष्पन की रोकथाम एवं फसलों की उन्नत कृषि सस्य विधियां अपनाकर जल उपयोग कुशलता काफी हद तक बढ़ाई जा सकती है। प्रति इकाई जल से किसी फसल से कितनी उपज प्राप्त होती है यह उस फसल की जल उपयोग कुशलता कहलाती है।

जल उपयोग कुशलता = फसल की उपज/फसल द्वारा जल उपयोग

उक्त सस्य विधियां अपनाकर एवं फसलों की उन्नतशील प्रजातियों को बोकर अच्छी उपज प्राप्त करके तथा सिंचाई के उन्नतशील तरीके एवं वाष्पन वाष्पोत्सर्जन रोधी विधियां अपनाकर जल उपयोग कम करके फसलों की जल उपयोग कुशलता बढ़ाई जा सकती है। पिछले 25 वर्ष में कानपुर एवं देश के अन्य स्थानों पर हुए अनुसंधान के परिणाम इस दिशा में पर्याप्त मार्गदर्शन करते हैं। कानपुर में हुए अनुसंधान से प्राप्त परिणामों के आधार पर कुछ उपयोगी सुझाव इस लेख में प्रस्तुत हैं।

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