सिखों का कैलाश मानसरोवर, हेमकुण्ड साहिब

hemkund lake
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हेमकुंड झील की रंगत ही निराली है। यह पल-पल अपना रंग बदलती है। सूरज की पहली किरण से, बादलों से, हौले से उठते कुहरे व सरसराती ठंडी हवा से झील का रूप बदलता रहता है। यहाँ का मौसम भी काफी अस्थिर रहता है। आसमान तो पूरे दिन शायद ही कभी नीला रह पाता हो। सुबह जरूर आसमान साफ रहता है पर धीरे-धीरे बादल छाने लगते हैं और दोपहर ढलते हल्की बारिश हो जाती है। झील के एक कोने से पतली धारा नीचे की ओर बहती है। यह लक्ष्मण गंगा है जो आगे जाकर पुष्पावती नदी में मिल जाती है।

प्रकृति ने उत्तराखण्ड में जी खोलकर अपना हुस्न बिखेरा है। यहाँ की हिमाच्छादित गगनचुम्बी चोटियाँ, गहरी घाटियाँ, सर्पिल सड़कें, मनोरम झरने, विशाल झीले, रंग-बिरंगे उद्यान, विपुल आखेट स्थल और साहसिक पर्यटन स्थल हर किसी को अपने ओर आकर्षित करते हैं।

प्रकृति के मंत्रमुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य के मध्य यदि तीर्थ यात्रा भी कर ली जाये तो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाती है। उत्तराखण्ड की अलकनन्दा घाटी में ऐसे संयोग ही अक्सर बन जाते हैं। मशहूर फूलों की घाटी में प्रवेश करते ही घांघरिया पड़ाव से दो रास्ते अलग-अलग दिशाओं को फूटते हैं। एक रास्ता फूलों की घाटी को जाता है और दूसरा हेमकुण्ड साहिब को। अधिकांश लोग जोशीमठ बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित इन दोनों ही स्थानों की सैर करते हैं। समुद्रतल से 4329 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह सिखों का अकेला तीर्थ है।

बद्रीनाथ जाने वाले हिन्दू यात्रियों के लिये सिखों के धार्मिक स्थल हेमकुण्ड का उतना ही महत्त्व है जितना कि बद्रीनाथ। वैसे हेमकुण्ड मात्र धार्मिक आस्था का केन्द्र ही नहीं, प्रकृति की गोद में एक सुरम्य पर्यटक स्थल भी है। यहाँ पर बर्फ से झिलमिलाते हिमशिखरों के बीच डेढ़ किमी घेरे की स्वच्छ पारदर्शी विशेष दर्शनीय है। झील के किनारे एक ओर विशाल गुरूद्वारा स्थापित है तो दूसरी ओर लक्ष्मण मन्दिर। सिख मतावलम्बी हेमकुण्ड को अपना मानसरोवर मानते हैं।

जिस प्रकार हिन्दुओं में और तीर्थ बार-बार, गंगासागर एक बार वाली कहावत प्रचलित है, उसी प्रकार की मान्यता सिखों में इस तीर्थ के बारे में है। देश-विदेश से सिख बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष इस तीर्थ की यात्रा करते हैं। मध्य जून से यहाँ की यात्रा शुरू होती है, जो निर्बाध रूप से अक्टूबर माह तक चलती है। हेमकुंड के बारे में कहा जाता है कि सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह ने पूर्व जन्म में यहाँ लम्बी तपस्या की थी। पवित्र सिख ग्रंथ विचित्र नाटक में गुरू गोविंद सिंह ने इस स्थान के बारे में लिखा है-

हेमकुंड पर्वत है जहाँ, सप्तश्रृंग सोहत है वहाँ।
तहंहम अधिक तपस्या साधी, महाकाल कालका अराधी।


यह वर्णन पढ़ते ही सिख इस भव्य व मनोरम स्थल को ढूँढ निकालने के लिये बैचेन हो उठे। कई साहसी युवक हेमकुंड की खोज में निकल पड़े। तब पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा आज की तरह सुगम नहीं थी। इस कार्य में उन्हें निराशा ही हाथ लगी।

1930 में संत सोहन सिंह हेमकुंड की खोज में निकल पड़े। वे बद्रीनाथ धाम भी पहुँचे। तब बद्रीनाथ की यात्रा पैदल ही की जाती थी। लौटते समय पांडूकेसर नामक कस्बे में प्रवास के दौरान उन्हें स्थानीय लोगों से एक भव्य हिमानी सरोवर के बारे में मिली अस्पष्ट जानकारी में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। वह गाँव वालों के साथ हो लिये। बेहद विकट चढ़ाई, हिमनदों, शिलाओं को पार कर वह आखिर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर्वतों की गोद में विशाल झील अपने नैसर्गिक सौन्दर्य से वातावरण को आलोकित कर रही थी। झील के पार्श्व में सात शिखरों का पुंज था। यही था हेमकुंड।

1936 में संत सोहन सिंह अपने भाई वीर सिंह के साथ पुनः यहाँ आये और एक गुरूद्वारे की स्थापना की। धीरे-धीरे साहसी सिख श्रद्धालु और अन्य धर्मों के लोग भी यहाँ पहुँचने लगे। अब तो धांधरिया से यहाँ तक मोटर सड़क भी बन रही है। स्थानीय लोगो ने यहाँ लक्ष्मण का एक छोटा मन्दिर भी निर्मित किया है। मान्यता है कि मेघनाद वध के पाप-शमन के लिये लक्ष्मण ने यहाँ तपस्या की थी। विशेष अवसरों पर स्थानीय पुरूष लोग यहाँ स्नान, पूजन करने आते हैं।

हेमकुंड झील की रंगत ही निराली है। यह पल-पल अपना रंग बदलती है। सूरज की पहली किरण से, बादलों से, हौले से उठते कुहरे व सरसराती ठंडी हवा से झील का रूप बदलता रहता है। यहाँ का मौसम भी काफी अस्थिर रहता है। आसमान तो पूरे दिन शायद ही कभी नीला रह पाता हो। सुबह जरूर आसमान साफ रहता है पर धीरे-धीरे बादल छाने लगते हैं और दोपहर ढलते हल्की बारिश हो जाती है। झील के एक कोने से पतली धारा नीचे की ओर बहती है। यह लक्ष्मण गंगा है जो आगे जाकर पुष्पावती नदी में मिल जाती है। पुष्पावती नदी फूलों की घाटी से होकर आती है और एक लम्बा रास्ता तय कर अन्त में अलकनंदा में समा जाती है।

हेमकुंड के लिये 20 किमी. की पैदल यात्रा गोविंदघाट नामक कस्बे से शुरू होती है। गोविन्दघाट कस्बा जोशीमठ-बद्रीनाथ मार्ग पर बद्रीनाथ धाम से 28 किमी पहले है। हेमकुण्ड का रास्ता ही फूलों की घाटी का भी रास्ता है, इसलिये यहाँ पर्यटकों की आवाजाही काफी रहती है। दोनों स्थलों के लिये घोड़े-खच्चरों व डंडी-कण्डी की व्यवस्था भी उपलब्ध है।

दो किमी आगे पुलका गाँव आता है। पूरा मार्ग मनमोहक प्राकृतिक छटाओं से भरा है। हरे-भरे सीढ़ीदार खेत, कच्चे मकान, आसमान छूते पहाड़, सीधे सरल ग्रामीण और रास्ते पर कतारबद्ध छोटी दुकानें आकर्षित करती हैं। पुलना से 07 किमी की सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए यात्री भ्यूंडार गाँव पहुँचते हैं। गाँव के चारों ओर असीम सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। दूर कहीं हिम शिखर नजर आते हैं। ठंडी हवा के झोंके रास्ते की थकान को हर लेते है। भ्यूंडार से ऊपर लक्ष्मण गंगा के साथ-साथ 05 किमी बाद आता है धांधरिया। एक दिन में यात्री यहीं तक पहुँच सकता है।

धांधरिया अत्यन्त इंडा क्षेत्र है। किसी खूबसूरत एलबम के प्रथम पृष्ठ सरीखा लगता यह क्षेत्र यात्रा के दिनों में चहक उठता है। दूर-दूर तक बिखरे मखमली घास के चरागाह मन मोह लेते हैं। ये सुन्दर दृश्य जिस तरह आँखों के सामने आते हैं, आनन्द उसी में है। एक कदम पहले तक कुछ भी सामने नहीं होता, दूसरे ही कदम पर प्रकृति का सौन्दर्य ऐसे सामने आ जाता है मानो किसी नववधू ने अपना घूंघट पलट दिया हो और देखने वाला उसके खूब सूरत मुखड़े को एक टक देखता ही रह जाये।

धांधरिया में ठहरने के लिये पर्याप्त व्यवस्था है। गढ़वाल मण्डल विकास निगम के आवास गृह सहित यहाँ विशाल गुरूद्वारा और कई रैनबसेरे हैं। इसके अलावा कुछ सरकारी रेस्ट हाऊस भी है। यहीं से एक रास्ता विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी को जाता है। उत्तर दिशा की ओर जाने वाला रास्ता हेमकुण्ड का है। 06 किमी के इस रास्ते की निरन्तर चढ़ाई पर मखमली घास, असंख्य फूलों की बहार और रंग-बिरंगे पक्षियों की चहक मुग्ध कर देती हैं। हिमालय का दुर्लभ मोर मुनाल यहीं दिखाई देता है। अगस्त-सितम्बर में दुर्लभ ब्रह्मकमल खूब खिले हुए मिलते हैं।

सीधी चढ़ाई चढ़कर ऊपर बादलों के पास हेमकुण्ड है। निर्मल पारदर्शी झील और उसके पृष्ठ में झील की सुरक्षा के लिये प्रहरी की भाँती खड़े सात विशाल हिम शिखर। झील में गोता लगाइए और सारी थकान दूर। यही है हेमकुण्ड का जादू। जिसे देखने व महसूस करने प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक देश-विदेश से आते हैं।

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Post By: RuralWater
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