सहस्रधारा

सहस्रधारा
सहस्रधारा


पुराना ऋण शायद मिट भी सकता है; किन्तु पुराने संकल्प नहीं मिट सकते। पचीस वर्ष पहले मैं देहरादून में था, तब सहस्त्रधारा देखने का संकल्प किया था। उत्कंठा बहुत थी, फिर भी उस समय जा नहीं सका था। कुछ दिनों तक इसका दुःख मन में रहा, किन्तु बाद में वह मिट गया। सहस्त्रधारा नामक कोई स्थान संसार में कहीं है, इसकी स्मृति भी लुप्त हो गयी। मगर संकल्प कहीं मिट सकता है?

यहां का दृश्य! यहां रहने के लिए मनुष्य का जन्म काम का नहीं। यहां तो वेदमंत्रों का चातुर्मास्य में रटन करने वाले मेंढकों का अवतार लेकर रहना चाहिए। जो हृदय कुछ समय पहले शक्तिशाली प्रपात के साथ एक रूप हो गया था, वहीं यहां एक क्षण में इस रिमझिम-रिमझिम सहस्त्रधारा के बालनृत्य के साथ तन्मय हो गया। मैंने रणबीर को जी भरकर धन्यवाद दिया और कहा, “इतना हिस्सा देखना यदि बाकी रह जाता, तो सचमुच मैं बहुत पछताता।”आचार्य रामदेव जी ने बहुत आग्रह किया कि मुझे उनका कन्या गुरुकुल एक बार देख लेना चाहिये। मुझे भी यह विकसित हो रही संस्था देखनी थी। पिछले साल नहीं जा सका था। अतः इस साल वचनबद्ध होकर मैं वहां गया। अब प्रकृति के पीछे पागल नहीं बनना है, अब तो मनुष्यों से मिलना है, संस्थाएं देखनी हैं, राष्ट्रीय सवालों की चर्चा करनी है, अच्छे-अच्छे आदमी ढूंढ़कर उन्हें काम में लगाना है, सेवकों के साथ विचारों का और अनुभवों का आदान-प्रदान करना है- आदि विविध धाराएं मन में चल रही थीं। तब सहस्त्रधारा का स्मरण भला कहां से होता? मैं तो हिन्दी-हिन्दुस्तान की चर्चा में मशगूल था। इतने में युवक रणबीर मुझसे मिलने आए। किसी ने उनकी पहचान करायी। उन्होंने अपने आप कहा, देहरादून में देखने लायक स्थानों में फारेस्ट कॉलेज है, फौजी पाठशाला है, और प्राकृतिक दृश्यों में गुच्छुपानी और सहस्त्रधारा है। आखिर का नाम सुनना था कि पचीस वर्ष की विस्मृति के पत्थरों की कब्र को तोड़कर पुरानी स्मृति और पुराना संकल्प भूत की तरह आंखों के सामने खड़े हो गये। अब इस संकल्प को गति दिये बिना कोई चारा ही न था।

तैल-वाहन (मोटर) का प्रबंध हुआ और उत्तर की ओर पांच-सात मील का रास्ता तय करके हम राजपुर पहुंचे। यहां से ऊपर मसूरी जाने का रास्ता है। हम राजपुर से करीब ढाई मील पूर्व की ओर जंगल में पैदल चले। ठीक पैंसठ मिनट चलकर हम सहस्त्रधारा पहुंचे। शाम का समय था। पीछे की ओर सूर्य अस्त होने की तैयारी कर रहा था और उसकी लंबी होती किरणें हमारे सामने के मार्ग को अधिकाधिक लंबा बना रही थी। पांच-दस मिनट में हमने मानव-संस्कृति को छोड़कर जंगल में प्रवेश किया। पानी के बहाव के कारण जमीन में गहरे खड्डे पड़ गये थे। उनमें होकर हमें जाना था। हम चार आदमी थे। बातें करते जाते, आसपास का सौंदर्य निहारते जाते और समय का हिसाब लगाते जाते। अमरनाथ, तुंगनाथ, बदरीनाथ विशाल जैसे स्थान जिसने देखे हैं, उसके सामने मसूरी के पहाड़ क्या चीज है? फिर भी काफी वर्षों के पश्चात् फिर से हिमालय की तलहटी में जाना हुआ, जिससे यह दृश्य भी आंखों को भव्य मालूम हुआ।

मसूरी के पहाड़ों में कई बार टेकरियां गिर पड़ती हैं, जिसे अंग्रेजी में ‘लैंडस्लिप’ या ‘लैण्ड-स्लाइड’ कहते हैं। यह दृश्य ऐसा दिखाई देता है। मानों किसी सूरमा योद्धा को जबरदस्त चोट लगी हो। बड़े-बड़े पर्वत छोटे-बड़े वृक्षों से ढके हों और बीच में ही उनका एक बड़ा हिस्सा टूट जाने से खुला पड़ गया हो, तो वह दृश्य देखकर हृदय में कुछ अजीब भाव पैदा होते हैं। ऐसे असाधारण प्राकृतिक दृश्य बहुत बड़े होते हैं। और इस दुर्घटना का कोई इलाज नहीं होता। अतः ऐसे घाव विषम नहीं मालूम होते; बल्कि पर्वत का आदरपात्र वैभव ही दिखाते हैं।

हम नीचे उतरे, फिर चढ़े। फिर उतरे। खूब चढ़े। जहां से चक्कर आयें ऐसा उतार आया।

हम स्वेच्छा से चतुष्पाद बनकर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतरे। रास्ते में हर जगह जहां भी उतरे वहां पत्थरों की एक फैली हुई सूखी नदी थी ही। वर्षा ऋतु में ये दृशद्वती नदियां इतना कोलाहल करती हैं कि सारी घाटी सहस्त्र-निनाद से गरज उठती हैं; मगर आज तो चारों ओर भीषण शांति थी। छोटे-छोटे पक्षी एक-दूसरे-को दूर-दूर से यदि इशारा न करते, तो यहां खड़े रहने में भी दिल में डर घुस जाता आखिर उतार आया और चारों ओर स्लेटवाले पत्थर नजर आये। जान बचाने के लिए जब एकाध तख्ती को पकड़ने जाते तो उसका चूरा ही हाथ में आ जाता था।

ज्यों-त्यों करके हम नीचे उतरे। करीब एक घंटे तक हम चलते रहे। जिनकी मोटर में आये थे वे भाई कहने लगे, ‘मैं तो यही बैठता हूं; आप आगे हो आइये।’ मैं ने कहा, ‘आप से हमने वादा किया था कि एक घंटे में वापस लौट आयेंगे। मगर सहस्त्रधारा पहुंचने के लिए के लिए एक घंटे से अधिक समय लगेगा। अतः आप वापस जाइये और मोटर के साथ समय पर देहरादून पहुंच जाइये। हम किराये की बस में आ जायेंगे।’ रणबीर कहने लगे, ‘अब तो दस मिनट में हम पहुंच जायेंगे। सामने की टेकरी पर वह जो सफेद कुटिया दिखाई देती है उसके पास ही सहस्त्रधारा है।’

इतनी दूर आये हैं, तो दस मिनट और सही, ऐसा विचार करके हम आगे बढ़े। पीछे मुड़कर देखने की इच्छा हुई तो सूरज आकाश में लटक रहा था और तलहटी की घाटी के पहाड़ अपने दो हाथ ऊंचे करके उसका स्वागत कर रहे थे, मानों गेंद पकड़ने की तैयारी कर रहे हों। ऊपर उछाला हुआ बच्चा मां के हाथों में पड़ते ही हंसने लगता है और मां प्रसन्न होती है, ऐसा ही वह दृश्य था ऐसे समय पर मां के प्रेम के उभार का मन में सेवन करें, या बच्चे का विश्वासपूर्ण हास्य विकसित करें। दो में से किस आनंद के साथ तादात्म्य अनुभव करें, इसका निश्चय न होने से मन परेशान होता है। इतना ही एक दृश्य देखने के लिए यहां तक आया जा सकता है! मगर संकल्प तो किया था सहस्त्रधारा का अतः लंबी सूर्य-किरणों की ओर से हमने मुंह फेरा और आगे बढ़े।

इतने में यकायक एक बड़ा प्रपात धबधबाता हुआ नजर आया ऊंचाई से स्वच्छ पानी मजबूत मिट्टी की प्राकृतिक दीवार से लुढ़कता है, आवाज करता है और अनोखी मस्ती भरी एकतानता से नीचे उतरता है। पास में कोई है या नहीं, यह देखने की उसे फुरसत कहां है? क्या होता है इसकी उसे कोई परवाह नहीं है। वह तो धब-धब, धब-धब आवाज करता ही रहता है। पत्थर के ऊपर से जब पानी गिरता है तब उतना आश्चर्य नहीं होता। मगर यहां तो अपनी जिद न छोड़ने वाली मिट्टी पर से पानी गिरता है। मैं तो देखता ही रहा। पानी के भव्य दृश्य में इतना नशा होता है, यह शराबियों को यदि मालूम हो जाय, तो वे शराब का नशा छोड़कर अहर्निश यहीं आकर बैठे रहें। एक क्षण के लिए तो मैं भूल ही गया था कि हमें वापस लौटना है। भले एक क्षण के लिए, मगर जब हम प्रकृति के साथ एकरूप हो जाते हैं तब वह सचमुच अद्वैतानंद होता है। अपना होश भूल जाने के बाद आनंद के सिवा और कुछ रह ही नहीं सकता।

तब क्या जिसे हम जड़ सृष्टि कहते हैं वह जड़ नहीं है, बल्कि अद्वैतानंद की समाधि में एकतान होकर पड़ी है? इसका जवाब भला कौन दे सकता है? और कौन सुन भी सकता है।

रणबीर कहने लगे, ‘अब हम जरा आगे चलेंगे।’ अब देरी करने की मेरी इच्छा न थी। मगर थोड़ा बाकी रह गया ऐसा विषाद मन में न रहे इसलिए मैं आगे बढ़ा। नीचे पानी बह रहा था। धीरे-धीरे हम नीचे उतरे ही थे कि सुराखार की महक आने लगी। नीचे उतरकर थोड़ा सा पानी पिया। कहते हैं कि तमाम चर्म-रोगों के लिए यह पानी बहुत मुफीद है। इस पानी और उसके अदभुत गुणों के बारे में मैं सोच रहा था; किन्तु दिल तो अभी देखे हुए प्रपात की धब-धब आवाज के साथ ही ताल साध रहा था। इतने में दाहिनी ओर ऊपर एक झुकी हुई खोह की छत से पानी की बूंदे गिरती देखीं। उनकी आवाज ऐसी हो रही थी। मानों अत्यंत सौम्य और मूक-प्राय जलतरंग या वृन्द गायन हो।

यही है सच्ची सहस्त्रधारा। हजारों बूंदें इस गुफा के ऊपर से और अंदर से टपटप गिरती हैं। मगर उनकी आवाज नहीं होती। शांति के साथ ये बूंदे सतत गिरती रहती हैं। एक ओर से हम ऊपर चढ़े। वहां एक गहरी गुफा थी। बीच में स्तंभ के समान पत्थर का भाग था। हम उसके इर्द-गिर्द घूमे। चारों ओर सहस्त्रधारा की बरसात हो रही थी। मालूम होता था मानों सारा पहाड़ पिघल रहा है। हम काफी भीग गये। एक घंटा तेजी से चलकर आने से शरीर में गर्मी खूब थी इसलिए भीगते समय विशेष आनंद महसूस हुआ। कितना ठंडा है यहां का दृश्य! यहां रहने के लिए मनुष्य का जन्म काम का नहीं। यहां तो वेदमंत्रों का चातुर्मास्य में रटन करने वाले मेंढकों का अवतार लेकर रहना चाहिए। जो हृदय कुछ समय पहले शक्तिशाली प्रपात के साथ एक रूप हो गया था, वहीं यहां एक क्षण में इस रिमझिम-रिमझिम सहस्त्रधारा के बालनृत्य के साथ तन्मय हो गया। मैंने रणबीर को जी भरकर धन्यवाद दिया और कहा, “इतना हिस्सा देखना यदि बाकी रह जाता, तो सचमुच मैं बहुत पछताता।” बारिश से रक्षा करने वाली असंख्य गुफाएं मैंने देखी हैं। मगर ग्रीष्मकाल में भी अपने पेट में बारिश का संग्रह रखने वाली गुफा तो पहले-पहल यहीं देखी। सीलोन के मध्य भाग में एक स्थान पर चित्रोंवाली एक गुफा है; उसमें से एक नन्हा सा झरना झरता है। मगर इस प्रकार की अखंड बारिश तो यहीं पहले-पहल देखी। हमें वापस लौटने की जल्दी थी। मगर इस बारिश को जल्दी नहीं थी। उसको अपना जीवन-कार्य मिल चुका था। पत्थरों पर जमी हुई काई के कारण पांव फिसलते थे; और यहां के सौंदर्य, पावित्र्य और शांति के कारण पांव यहां चिपकते थे। जी में आता था कि जितना अधिक समय इस स्थिति में बीते उतना ही लाभ है।

आखिर वहां से लौटना ही पड़ा। अब तो दुगुनी रफ्तार से जाना था। रास्ते पर चंद मजदूर और ग्वाले जल्दी-जल्दी चलते हुए नजर आये। बेचारे गरीब लोग! वे बड़ी कठिनाई से ऐसे स्थान पर जीवन बीताते हैं। मगर हमें तो इसी बात की ईर्ष्या हुई कि इन्हें सहस्त्रधारा की अमृतमयी दृष्टि के नीचे रहने को मिलता है।

उतरते समय तो उतर गये थे, मगर अब अंधरे में चढ़ेगे कैसे, यह सवाल था। मन में आया, एकाध लाठी मिल जाय तो अच्छा हो। वहां एक देहाती दुकान थी। दुकानदार से हमने पूछा, ‘भैया, एक अच्छी सी लकड़ी दे दोगे?’ मैं एक कान से नहीं सुनता तो दुकान दार दोनों कानों से बहरा था! मेरी बात उसकी समझ में नहीं आती थी। मैं अधीर बन गया था। आखिर एक साथी ने इशारे से उसको समझाया। उसने तुरन्त अंदर से अपनी बांस की लकडी ला दी। पैसे दिये तो उसने लेने से इनकार कर दिया। और लकड़ी लेकर मानों मैने ही उस पर अहसान किया हो, ऐसी धन्यता अपनी आंखों में दिखाकर वह कहने लगा, ‘ले जाइए, आप ले जाइए।’ रणबीर ने उसके कानों में जोर से कहा, ‘ये मेहमान तो महात्मा गांधी के आश्रम से आते हैं।’ तब उसकी धन्यता और मेरे संकोच का कोई पार न रहा । लकड़ी लेकर मैं तो भागा।

अब हमारा बोलना बंद हो गया। पैर दौड़ते जा रहे थे और मैं मन में प्रार्थना करता जा रहा था। आकाश में गुरु और शुक्र चंद्र की कुछ टीका कर रहे थे।

मोटर वाले भाई पहाड़ के शिखर पर बैठकर हमारी राह देख रहे थे। जब हम मिले तब वे कहने लगे। ‘आप दौड़ते गये और दौड़ते आये; और मैं उतने समय शांति से इस घाटी के भव्य विस्तार का, डूबते हुए प्रकाश का और पलटते हुए रंगों का आनंद लूटता रहा। अब आप बताइये, अधिक आनंद किसने लूटा?’

मैंने प्रतिध्वनि की तरह पूछाः ‘सचमुच, किसने लूटा?’

दिसंबर, 1936
 

 

Path Alias

/articles/sahasaradhaaraa

Post By: Hindi
×