शहरी विकास को सही रास्ते पर लाने के लिए अमीरों और गरीबों के बीच जो टकराव की स्थिति है, उसकी जगह सहयोग को प्रतिस्थापित करना होगा। संपन्न वर्ग अनेक स्थानों पर झुग्गी-झोपड़ियों और गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों के प्रति सहानुभूति और संवेदना से हीन हो जाते हैं। जबकि वस्तु स्थिति यह है कि नगरों का अधिकांश निर्माण कार्य इन्हीं वर्गों के परिश्रम एवं त्याग से हुआ है। निर्धन वर्ग के इस योगदान को संपन्न वर्ग के लोगों को स्वीकार करना चाहिए। उनके लिए भी कुछ नियोजित योजनाबद्ध कार्य होना चाहिए। अन्यथा यह विकास वीभत्स रूप ले लेगा.. ग्रामीण क्षेत्रों के बरक्स भारत में शहरी क्षेत्रों में आवास की समस्या चिंताजनक है। इसका एक बड़ा कारण अत्यधिक आर्थिक विषमता है। योजना आयोग के अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या का पांचवां भाग झुग्गी-झोपड़ी में रहता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार बंगलुरु में 10 प्रतिशत, कानपुर में 17 प्रतिशत, मुंबई में 38 प्रतिशत तथा कोलकाता में 42 प्रतिशत लोगों के सामने आवास की कठिन समस्या है। यहां विडंबना यह भी है कि एक तरफ तो आलीशान मकान हैं, जबकि दूसरी तरफ टूटा-फूटा मकान है। एक अनुमान के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत मकान ऐसे हैं, जिनमें खिड़कियां नहीं है और 80 प्रतिशत मकानों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। वैसे भी शहरी आबादी वाले देश में हर साल लगभग 27 लाख लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर रोजगार की तलाश में आते हैं। महानगरों की स्थिति तो और भी दयनीय होती जा रही है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में भारत में संक्रामक रोग पहले से कहीं ज्यादा तेजी से फैल रहे हैं और उनका इलाज करना ज्यादा मुश्किल हो गया है।
अस्पतालों की स्थिति तो बहुत विचित्र है। महंगे अस्पताल लगातार बढ़ते जा रहे हैं और सामान्य अस्पताल दम तोड़ रहे हैं। हाइजीनिक स्थितियां भयावह हैं। अपनी वार्षिक विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट 2008 में एजेंसी ने बताया था कि 1970 के दशक से हर साल एक या ज्यादा नए रोगों का पता चल रहा है, जो अभूतपूर्व है। एजेंसी ने बताया कि तपेदिक जैसी जानी-मानी बीमारियों को नियंत्रित करने के प्रयास भी सीमित हो रहे हैं, क्योंकि वे ज्यादा ताकतवर और दवाइयों की प्रतिरोधी किस्मों में विकसित होती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने 193 सदस्यों को बीमारियों के फैलने के बारे में जानकारी देने और टीके विकसित करने में मदद देने के लिए विषाणुओं के नमूनों का आदान-प्रदान करने मे एक-दूसरे के साथ ज्यादा सहयोग करने का अनुरोध किया।
आवास समस्या का एक परिणाम यह हुआ है कि कार्य करने की जगह और निवास स्थान की दूरी बढ़ती ही जा रही है। दिल्ली में औसतन 45 किमी की दूरी के लिए 50-60 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। इस प्रकार कुछ लोगों को 4-6 घंटे सफर में व्यतीत करने पड़ते है। अपना घर बनाने का सपना आम लोगों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकारी तौर पर मान्य आंकड़ों के अनुसार एक औसत आवास की कीमत मुंबई में एक व्यक्ति की 13 वर्ष की आय के बराबर है। दिल्ली में 12 वर्ष की आय के बराबर, बंगलुरु में 11 वर्ष की आय के बराबर और चेन्नई में 7 वर्ष की आय के बराबर है। छोटे शहरों में भी लागत 3-4 वर्ष की आय के बराबर है। यदि किराए पर मकान लेना हो तो वह भी कोई कम आर्थिक बोझ नहीं डालता है। सबसे बड़े शहर में 30-35 प्रतिशत तक आय का हिस्सा इस पर खर्च हो रहा है तथा छोटे शहरों में 20-25 प्रतिशत तक होता है। इसके अलावा पीने के पानी की समस्या तथा गंदगी निष्कासन की समस्या भी नगरीकरण के परिणामस्वरूप विकराल रूप ले चुकी है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन भी पैदा हुआ है।
जिस गति से भारत की जनसंख्या बढ़ रही है सन् 2020 तक इसके डेढ़ अरब हो जाने की संभावना है। ऐसी स्थिति में 50 लाख से अधिक लोग बेघर हो जाएंगें। दावा यह किया जाता है कि भारत में कमजोर वर्ग के लोगों के हितों को ध्यान में रखकर सस्ती तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लोग, मुक्त कराए गए बंधुओं मजदूर, गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। आठवीं योजना में आवास समस्या के समाधान हेतु कुछ सोचा गया था। इसमें शहरी आवास के लिए 3,581.87 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इस योजनावधि में 78 लाख नए घरों को बनाने की योजना थी। नौंवीं योजना में सभी वर्गों के लिए आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य था, लेकिन ये लक्ष्य पूरे नहीं हुए। नौवीं योजना में भी इस तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
भारत में कुछ क्षेत्रों में पेयजल की समस्या अत्यधिक विकराल है। नौवीं योजना में शहरी जलापूर्ति तथा स्वच्छता के लिए 5,250 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। कहा गया कि इस कार्य में राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों को भागेदार बनाया जाएगा। तमिलनाडु की तर्ज पर भारत सरकार द्वारा एक विकास कोष की स्थापना की जाएगी, जिसका उपयोग शहरी क्षेत्रों में आधारभूत ढांचा उपलब्ध कराने के लिए किया जाएगा। औद्योगिक इकाइयों से निकले हुए अवशिष्ट का पुनर्शोधन और विभिन्न प्रकार के अवशिष्टों का अलग-अलग संग्रहण करने की भी एक योजना है। ठोस अवशिष्टों के निपटान का निजीकरण कर दिया जाएगा। परिणाम हमारे सामने है दावे कभी हकीकत में नहीं बदल पाते।
भारत के अलग-अलग राज्यों का यदि बढ़ते नगरीकरण की दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न राज्यों में नगरीकरण का विस्तार और गति एक जैसी नहीं है। 1981 और 1991 के बीच जहां उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े राज्यों की नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर थी, वहीं पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से नीची रही। प्रति व्यक्ति अधिक आय वाले राज्यों में महाराष्ट्र और हरियाणा ऐसे राज्य हैं, जिनमें नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक थी।
औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर ऊंची थी, लेकिन इसके बाद महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया धीमी रही।औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु में नगरीय जनसंख्या 34 प्रतिशत से अधिक है। इन राज्यों में अधिक औद्योगिकीकरण होने पर इनकी नगरीय जनसंख्या बढ़ी है, लेकिन आधार बड़ा होने के कारण नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर प्रायः इतनी अधिक नहीं दिखती जितनी कि अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में देखने को मिलती है। 1951 से 1991 की अवधि में बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर प्रायः अधिक रही, परंतु उड़ीसा और बिहार में 1981 से 1991 के बीच नगरीकरण की गति कुछ धीमी पड़ गई। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से नीचे थी, लेकिन बाद में इन राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। यह एकदम स्पष्ट है कि शहरीकरण, विकास एक सूचक होते हुए भी कई तरह की समस्याओं का जन्मदाता है। पिछले तीन दशकों में कृषि योग्य भूमि का रकबा 54 लाख हेक्टेयर कम हुआ है। कृषि भूमि पर निर्माण कार्यों में तेजी आई है।
सरकारी नीतियां भी किसानों की पक्षधर नहीं हैं। भूमि अधिग्रहण तेजी से बढ़ रहा है। कृषि मंत्रालय की 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार स्वतंत्रता से पहले के समय में अनाज की कमी के अनुभव के कारण खाद्यान्न में स्वावलंबन पिछले 60 वर्षों का केंद्र बिंदु रहा है और खाद्यान्न उत्पादन का इसमें हमारी नीतियों संबंध में अहम स्थान रहा है। हालांकि कुल अनाज उत्पादन में खाद्यान्न का हिस्सा 1990-91 में 42 प्रतिशत से घटकर 2009-10 में 34 प्रतिशत रह गया है। शहरी विकास को सही रास्ते पर लाने के लिए अमीरों और गरीबों के बीच जो टकराव की स्थिति है, उसकी जगह सहयोग को प्रतिस्थापित करना होगा। संपन्न वर्ग अनेक स्थानों पर झुग्गी-झोपड़ियों और गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों के प्रति सहानुभूति और संवेदना से हीन हो जाते हैं। जबकि वस्तु स्थिति यह है कि नगरों का अधिकांश निर्माण कार्य इन्हीं वर्गों के परिश्रम एवं त्याग से हुआ है। निर्धन वर्ग के इस योगदान को संपन्न वर्ग के लोगों को स्वीकार करना चाहिए। उनके लिए भी कुछ नियोजित योजनाबद्ध कार्य होना चाहिए। अन्यथा यह विकास वीभत्स रूप ले लेगा।
अस्पतालों की स्थिति तो बहुत विचित्र है। महंगे अस्पताल लगातार बढ़ते जा रहे हैं और सामान्य अस्पताल दम तोड़ रहे हैं। हाइजीनिक स्थितियां भयावह हैं। अपनी वार्षिक विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट 2008 में एजेंसी ने बताया था कि 1970 के दशक से हर साल एक या ज्यादा नए रोगों का पता चल रहा है, जो अभूतपूर्व है। एजेंसी ने बताया कि तपेदिक जैसी जानी-मानी बीमारियों को नियंत्रित करने के प्रयास भी सीमित हो रहे हैं, क्योंकि वे ज्यादा ताकतवर और दवाइयों की प्रतिरोधी किस्मों में विकसित होती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने 193 सदस्यों को बीमारियों के फैलने के बारे में जानकारी देने और टीके विकसित करने में मदद देने के लिए विषाणुओं के नमूनों का आदान-प्रदान करने मे एक-दूसरे के साथ ज्यादा सहयोग करने का अनुरोध किया।
आवास समस्या का एक परिणाम यह हुआ है कि कार्य करने की जगह और निवास स्थान की दूरी बढ़ती ही जा रही है। दिल्ली में औसतन 45 किमी की दूरी के लिए 50-60 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। इस प्रकार कुछ लोगों को 4-6 घंटे सफर में व्यतीत करने पड़ते है। अपना घर बनाने का सपना आम लोगों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकारी तौर पर मान्य आंकड़ों के अनुसार एक औसत आवास की कीमत मुंबई में एक व्यक्ति की 13 वर्ष की आय के बराबर है। दिल्ली में 12 वर्ष की आय के बराबर, बंगलुरु में 11 वर्ष की आय के बराबर और चेन्नई में 7 वर्ष की आय के बराबर है। छोटे शहरों में भी लागत 3-4 वर्ष की आय के बराबर है। यदि किराए पर मकान लेना हो तो वह भी कोई कम आर्थिक बोझ नहीं डालता है। सबसे बड़े शहर में 30-35 प्रतिशत तक आय का हिस्सा इस पर खर्च हो रहा है तथा छोटे शहरों में 20-25 प्रतिशत तक होता है। इसके अलावा पीने के पानी की समस्या तथा गंदगी निष्कासन की समस्या भी नगरीकरण के परिणामस्वरूप विकराल रूप ले चुकी है, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन भी पैदा हुआ है।
जिस गति से भारत की जनसंख्या बढ़ रही है सन् 2020 तक इसके डेढ़ अरब हो जाने की संभावना है। ऐसी स्थिति में 50 लाख से अधिक लोग बेघर हो जाएंगें। दावा यह किया जाता है कि भारत में कमजोर वर्ग के लोगों के हितों को ध्यान में रखकर सस्ती तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लोग, मुक्त कराए गए बंधुओं मजदूर, गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। आठवीं योजना में आवास समस्या के समाधान हेतु कुछ सोचा गया था। इसमें शहरी आवास के लिए 3,581.87 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इस योजनावधि में 78 लाख नए घरों को बनाने की योजना थी। नौंवीं योजना में सभी वर्गों के लिए आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य था, लेकिन ये लक्ष्य पूरे नहीं हुए। नौवीं योजना में भी इस तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
भारत में कुछ क्षेत्रों में पेयजल की समस्या अत्यधिक विकराल है। नौवीं योजना में शहरी जलापूर्ति तथा स्वच्छता के लिए 5,250 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। कहा गया कि इस कार्य में राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों को भागेदार बनाया जाएगा। तमिलनाडु की तर्ज पर भारत सरकार द्वारा एक विकास कोष की स्थापना की जाएगी, जिसका उपयोग शहरी क्षेत्रों में आधारभूत ढांचा उपलब्ध कराने के लिए किया जाएगा। औद्योगिक इकाइयों से निकले हुए अवशिष्ट का पुनर्शोधन और विभिन्न प्रकार के अवशिष्टों का अलग-अलग संग्रहण करने की भी एक योजना है। ठोस अवशिष्टों के निपटान का निजीकरण कर दिया जाएगा। परिणाम हमारे सामने है दावे कभी हकीकत में नहीं बदल पाते।
भारत के अलग-अलग राज्यों का यदि बढ़ते नगरीकरण की दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न राज्यों में नगरीकरण का विस्तार और गति एक जैसी नहीं है। 1981 और 1991 के बीच जहां उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े राज्यों की नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर थी, वहीं पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से नीची रही। प्रति व्यक्ति अधिक आय वाले राज्यों में महाराष्ट्र और हरियाणा ऐसे राज्य हैं, जिनमें नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक थी।
औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर ऊंची थी, लेकिन इसके बाद महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया धीमी रही।औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु में नगरीय जनसंख्या 34 प्रतिशत से अधिक है। इन राज्यों में अधिक औद्योगिकीकरण होने पर इनकी नगरीय जनसंख्या बढ़ी है, लेकिन आधार बड़ा होने के कारण नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर प्रायः इतनी अधिक नहीं दिखती जितनी कि अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में देखने को मिलती है। 1951 से 1991 की अवधि में बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर प्रायः अधिक रही, परंतु उड़ीसा और बिहार में 1981 से 1991 के बीच नगरीकरण की गति कुछ धीमी पड़ गई। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से नीचे थी, लेकिन बाद में इन राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। यह एकदम स्पष्ट है कि शहरीकरण, विकास एक सूचक होते हुए भी कई तरह की समस्याओं का जन्मदाता है। पिछले तीन दशकों में कृषि योग्य भूमि का रकबा 54 लाख हेक्टेयर कम हुआ है। कृषि भूमि पर निर्माण कार्यों में तेजी आई है।
सरकारी नीतियां भी किसानों की पक्षधर नहीं हैं। भूमि अधिग्रहण तेजी से बढ़ रहा है। कृषि मंत्रालय की 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार स्वतंत्रता से पहले के समय में अनाज की कमी के अनुभव के कारण खाद्यान्न में स्वावलंबन पिछले 60 वर्षों का केंद्र बिंदु रहा है और खाद्यान्न उत्पादन का इसमें हमारी नीतियों संबंध में अहम स्थान रहा है। हालांकि कुल अनाज उत्पादन में खाद्यान्न का हिस्सा 1990-91 में 42 प्रतिशत से घटकर 2009-10 में 34 प्रतिशत रह गया है। शहरी विकास को सही रास्ते पर लाने के लिए अमीरों और गरीबों के बीच जो टकराव की स्थिति है, उसकी जगह सहयोग को प्रतिस्थापित करना होगा। संपन्न वर्ग अनेक स्थानों पर झुग्गी-झोपड़ियों और गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों के प्रति सहानुभूति और संवेदना से हीन हो जाते हैं। जबकि वस्तु स्थिति यह है कि नगरों का अधिकांश निर्माण कार्य इन्हीं वर्गों के परिश्रम एवं त्याग से हुआ है। निर्धन वर्ग के इस योगदान को संपन्न वर्ग के लोगों को स्वीकार करना चाहिए। उनके लिए भी कुछ नियोजित योजनाबद्ध कार्य होना चाहिए। अन्यथा यह विकास वीभत्स रूप ले लेगा।
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