'लोक साहित्य में काम करते हुए महसूस हुआ कि विस्मृत होकर विलुप्त होने का खतरा सिर्फ साहित्य पर ही नहीं है, बल्कि हमारे लोक के अनाज भी इनसे अछूते नहीं है। अंचल में अनाज की परम्परागत किस्में तेजी से विलुप्त हो रही हैं। ये वे महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ हैं, जिन्हें हमारे पुरखों ने लम्बे अध्ययन और हमारी भौगोलिक स्थितियों के मुताबिक तैयार किया था। इन किस्मों की वजह से ही दुर्भिक्ष अकाल के बुरे दिनों में भी हमारे पुरखों को जीवनदान दिया। हमें बचपन में कई बीमारियों से बचाया। हमें सहारा दिया, अब वे बाजार की कुछ नई किस्मों के कारण भुला दी जा रही हैं।'
यह कहना है मध्य प्रदेश में सतना जिले के उचेहरा ब्लाक के गाँव पिथौराबाद में रहने वाले एक किसान बाबूलाल दाहिया का। उन्होंने विलुप्त होने वाले देसी अनाज की 110 किस्मों को यहाँ-वहाँ से खोजा। इसके लिये उन्होंने सतना सहित आसपास के जिलों रीवा, सीधी, शहडोल के गाँव-गाँव में जाकर इनके बीज इकट्ठा किए और सबसे पहले अपने खेत में इन्हें रोपा। इनमें धान की सौ से ज्यादा किस्में हैं।
धान की फिलहाल इलाके में दो-चार बहुप्रचलित किस्में ही किसान अपने खेतों में लगाते हैं लेकिन ज्यादातर परम्परागत देसी धान की किस्मों को इलाके के किसानों ने करीब-करीब भूला दिया है।
विंध्य इलाके में लोकोक्ति है कि धान और पान, पानी के मान। यानी पानी ज्यादा होने पर ही इनका उत्पादन होता है पर इस खेत ने इसे भी बदल दिया है।
आयातित किस्म के बहुप्रचलित धान की खेती के लिये वैसे तो 800 से 1200 मिमी बारिश की जरूरत होती है। लेकिन इस बार इलाके में देरी से हुई बारिश और सूखे के बाद भी पिथौराबाद गाँव के इस खेत पर सबकी नजरें लगी हुई हैं। यहाँ मात्र 400 मिलीमीटर बारिश होने तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद यहाँ देसी धान की सभी करीब सौ से ज्यादा प्रजातियाँ अच्छे से फली-फूली हैं। इलाके में यह खेत किसी धान तीर्थ की तरह पहचाना जाता है।
बाहर से आने वाले किसानों को बाबूलाल दाहिया से परिचित नहीं होने पर भी देसी धान की सौ किस्मों वाला खेत सुनते ही लोग उन्हें खेत तक जाने का रास्ता बता देते हैं। यहाँ किसान ही नहीं कृषि वैज्ञानिक और पर्यावरणविद भी पहुँच रहे हैं, तो मीडिया भी पता पूछते हुए यहाँ तक पहुँची है। यह छोटा-सा गाँव और यह खेत सबकी उत्सुकता और आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
इस खेत की छटा देखते ही बनती है। अब तक हमने खेतों में दूर-दूर तक एक ही तरह और रंग की फसलें लहलहाती देखी हैं लेकिन यहाँ इस खेत में धान की अलग-अलग रंगों की किस्में लुभाती है। कहीं लाल, कहीं सफेद तो कहीं काली-पीली और कहीं मटमैली रंगत लिये पौधों को एक साथ हरहराते हुए देखना एक रोमांच से भर देता है।
इसी गाँव के युवा अनुपम बताते हैं कि पानी के संकट का धान की आयातित किस्मों की फसल से गहरा रिश्ता है। पुराने समय में धान की जो किस्में इलाके के खेतों में बोई जाती थी, उनसे कभी पानी का संकट नहीं होता था। लेकिन ताजा चलन की बाहर से आने वाली किस्मों ने पहले से ही सूखे इस इलाके को और भी सूखा बना दिया है।
दरअसल अब जिन किस्मों को किसान अपने खेतों में बोते हैं, वे दिन के हिसाब से होती हैं। यानी उनमें सिंचाई के पानी के खर्च की अधिकता होती है और वे ज्यादा मात्रा में पानी लेती हैं। इनके लिये अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत होती है लेकिन परम्परागत किस्मों में कभी ऐसी जरूरत नहीं हुआ करती थी।
अनुपम बताते हैं, 'हमारे यहाँ की परिस्थितियों में बीते सैकड़ों सालों और कई पीढ़ियों से देसी अनाज और धान की किस्में लगातार उगते-उगते हमारे परिवेश के जलवायु में ऐसी रच-बस गई थी कि कम बारिश होने पर भी आसानी से पक जाया करती थी। बारिश की ऋतु से संचालित होने के कारण आगे-पीछे बोने पर भी वे साथ-साथ पक जाया करती थी। यहाँ तक कि 20 सितम्बर के बाद जब बारिश थम जाती थी तो भी ये किस्में महज ओस से ही पक सकती थी। इनमें ऐसी क्षमता थी कि ओस से भी पक सके। अब ज्यादातर आयातित किस्में निश्चित दिनों में ही पकती हैं और उन्हें बारिश के बाद हर साल अतिरिक्त पानी देने की जरूरत होती है। इससे पानी और सिंचाई संसाधनों का अपव्यय हो रहा है।'
बताया जाता है कि आजादी के बाद तक देश में देसी धान की करीब एक लाख दस हजार से ज्यादा प्रजातियाँ चलन में थीं लेकिन 1965 की हरित क्रान्ति के बाद लगातार कम होती चली गई। अब हालात यह है कि इनकी तादाद घटकर मात्र दो हजार तक ही सिमट गई है। अकेले उड़ीसा के जगन्नाथ मन्दिर में धान की 365 किस्में हैं, यहाँ हर दिन नए धान का जगन्नाथ को भोग लगाया जाता है।
बाबूलाल दाहिया हमें बताते हैं कि इन दिनों लोक अनाजों को बचाने-सहेजने की बहुत जरूरत है। देसी किस्में हमारे आसपास से तेजी से गायब होती जा रही है। हमारे किसान दो-चार किस्मों पर ही निर्भर रहने लगे हैं। जुँवार को छोड़कर बाकी सभी अनाजों की यही स्थिति है। अकेले जुँवार की दस-बारह किस्में हैं, जिन्हें मिलकर बोया जा सकता है। पर बड़ा संकट परम्परागत देसी धान की खेती के साथ है। एक दौर में देसी धान की करीब दो से ढाई सौ तक प्रजातियाँ हुआ करती थीं। अब इलाके के लोग इन्हें भूल ही गए हैं।
वे बताते हैं कि बीते कुछ सालों में विपुल मात्रा में उत्पादन देने का लालच देकर किसानों को भ्रमित किया गया है। उन्हें ऐसा झाँसा दिया गया है कि आयातित किस्म की धान बोने पर ही उन्हें फायदा होगा लेकिन ये किस्में हमारे यहाँ सूखे और पानी के संकट के कारण लाभकारी नहीं है, बल्कि किसानों को इनके लिये पानी का इन्तजाम करना महंगा पड़ रहा है। पानी हमारे पीने के लिये कम पड़ रहा है लेकिन लोग ज्यादा उत्पादन के लालच में इसका धान की सिंचाई में दुरुपयोग कर रहे हैं।
उन्होंने जब इसकी पहल की तो पहले दस-बारह, फिर खोजते हुए 30-40, फिर 60-70 का यह आँकड़ा पहुँचते-पहुँचते अब सौ से ऊपर तक जा रहा है। इनमें कुछ प्रजातियाँ महज 70 से 90 दिनों में पक जाती है तो कुछ सौ से सवा सौ दिनों में। लेकिन कुछ (30 से 40) किस्में 130 से 140 दिनों में भी पकती है। ये सभी सुगन्धित और पतले धान की किस्में हैं। श्री दाहिया हर किस्म की धान के रूप-रंग, आकार-प्रकार और उसकी प्रकृति से भली-भाँती परिचित हैं।
उन्होंने इलाके में देसी धान की किस्मों को बचाने-सहेजने के लिये बीड़ा उठाया हुआ है। वे अपने गाँव के दूसरे किसानों को भी यह सलाह दे रहे हैं। उनसे प्रेरित अन्य किसान भी अब इस बात को समझने लगे हैं। हालाँकि वे खुद बघेली बोली के अच्छे साहित्यकार हैं और देश के कुछ विश्वविद्यालयों में उनकी किताबों पर शोधार्थी पीएचडी कर रहे हैं लेकिन अब उन्होंने अपना पूरा ध्यान देसी किस्मों को पुनर्जीवित करने पर लगा दिया है। वे अब प्रदेश भर में इसका प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। बाबूलाल दाहिया को जैव विविधता के क्षेत्र में उनके इस अभूतपूर्व काम के लिये मुम्बई और भोपाल में सम्मानित भी किया जा चुका है। उनके काम की कई जगह प्रदर्शनी भी लगाई जा चुकी है।
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