दिल्ली से निकलने वाले उस समय के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार में एक दिन पहले पन्ने पर खबर छपी थी- मध्य प्रदेश के एक बहुत ही दुर्गम इलाके पातालकोट में एक शेर नरभक्षी हो गया है और उसने अब तक छह लोगों को मार डाला है। बड़ा आतंक फैल गया है वहां। अखबार तो प्रसिद्ध था ही, उसके भोपाल स्थित ये संवाददाता भी बड़े प्रसिद्ध थे। अपनी-अपनी सुंदर जगहों को लोग कुछ तो अपनेपन से, और कुछ घमंड से भी दुनिया का स्वर्ग बताते ही हैं। अक्सर इसके लिए कुछ पहाड़ की, कुछ ऊंचाई की भी जरूरत होती है पर अपनी किसी जगह को पाताल बताने के लिए एक खास तरह की गहराई चाहिए।
हमारा परिवार मध्य प्रदेश का है, पर कोई पच्चीस बरस का हो जाने तक भी मुझे पता नहीं था कि मध्य प्रदेश में एक जगह सचमुच पाताल जैसी गहरी है। इसका नाम ही है पातालकोट। छिंदवाड़ा जिले में। इसकी जानकारी और फिर इस पाताल में उतरने का संजोग भी एक विचित्र घटना से मिला था। वे दिन आपात्काल लगने के आसपास के थे। महीना वगैरह तो अब याद नहीं।
दिल्ली से निकलने वाले उस समय के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार में एक दिन पहले पन्ने पर खबर छपी थी- मध्य प्रदेश के एक बहुत ही दुर्गम इलाके पातालकोट में एक शेर नरभक्षी हो गया है और उसने अब तक छह लोगों को मार डाला है। बड़ा आतंक फैल गया है वहां। अखबार तो प्रसिद्ध था ही, उसके भोपाल स्थित ये संवाददाता भी बड़े प्रसिद्ध थे।
पहले दिन छपी वह खबर उन्होंने भोपाल स्थित अपने विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से लिखी थी। इसमें भोपाल से पातालकोट की दूरी का बड़ा भयानक वर्णन दिया गया था। भोपाल से पिपरिया,पिपरिया से तामिया नाम की एक छोटी-सी जगह और फिर तामिया से पातालकोट। उत्साही पत्रकार ने बड़े चुनौती भरे स्वर में पाठकों को बताया था कि इन पंक्तियों को लिखते हुए वे इस कठिन, खतरनाक यात्रा पर निकल पड़ने की तैयारी कर रहे हैं और अगले दिन अखबार में वे पाठकों को तामिया पहुंचकर ताजा खबर देंगे।
भोपाल से लिखी खबर दिल्ली में छपी। शायद भोपाल के किसी भी अखबार में इसका जिक्र नहीं था। पर दिल्ली में खबर छपते ही बिजली की गति से भोपाल सूचना आ गई। मध्य प्रदेश सरकार चौंक गई।
दोपहर तक प्रशासन के, वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने, प्रदेश के कुशल नेतृत्व ने बैठकें कीं। पातालकोट के लोगों को इस नरभक्षी शेर के आतंक से मुक्त करवाने की बारीक रणनीति बनी। तुरंत घोषणा की गई कि पूरे देश से जो भी शिकारी इस शेर को मारने आएगा, मध्य प्रदेश सरकार उसे सारी सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। उन शिकारियों को राज्य अतिथि का दर्जा देने की बात भी शायद कही गई थी।
उन दिनों रंग-बिरंगी मसालेदार निजी हवाई कंपनियों के पंख नहीं निकले थे। नीले आकाश में बस सिर्फ सरकारी जहाज ही उड़ा करते थे। देश के अनेक हिस्सों से भोपाल आने के लिए सीधी उड़ानें भी ज्यादा नहीं थीं। फिर भी शिकारियों को जल्दी से जल्दी आसमान के रास्ते भोपाल आने का निमंत्रण तो दे ही दिया गया था।
अभी आसमान की बात छोड़ जमीन पर उतरें। अगले दिन ये साहसिक संवाददाता तामिया तक पहुंच गए थे। अब वे उस पाताल के किनारे से अपनी दूसरी रिपोर्ट लिख रहे थे। पाठकों को उन्होंने बहुत ही रहस्य भरे ढंग से उसमें यह बताया कि छह लोगों को मार कर खा जाने वाला शेर नहीं था, बल्कि शेरनी थी। और अब तो वे पातालकोट के कगार पर खड़े हैं, अपनी कलम बंद कर रहे हैं। सैकड़ों बरसों पुराने पेड़ों की जड़ों, लताओं को पकड़-पकड़ कर अब वे पाताल में नीचे उतरने जा रहे हैं।
भोपाल से लिखी खबर दिल्ली में छपी। शायद भोपाल के किसी भी अखबार में इसका जिक्र नहीं था। पर दिल्ली में खबर छपते ही बिजली की गति से भोपाल सूचना आ गई। मध्य प्रदेश सरकार चौंक गई। दोपहर तक प्रशासन के, वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने, प्रदेश के कुशल नेतृत्व ने बैठकें कीं। पातालकोट के लोगों को इस नरभक्षी शेर के आतंक से मुक्त करवाने की बारीक रणनीति बनी।पातालकोट छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा की पर्वतमाला के बीच कोई 80 वर्गमील में धंसी एक विचित्र-सी जगह है। भूगर्भ वाले बताते हैं कि यह कुछ लाख साल पहले शायद किसी उल्का पात से बना विशाल गड्ढा है। ऊपर से देखने पर लगता है किसी ने एक बड़ा-सा कटोरा यहां पहाड़ों के बीच लाकर रख दिया है।
पहले शेर, फिर शेरनी तक पहुंचने की जल्दी में हम अपने संवाददाता का ठीक परिचय भी नहीं दे पाए थे। नाम था इनका तरुण भादुड़ी जी। इनकी बेटी बंबई में फिल्म में गईं और फिर उन्होंने पिता से भी ज्यादा प्रसिद्धि पाई- जया भादुड़ी जी। फिर उनका विवाह हुआ कवि श्री हरिवंशराय बच्चन के बेटे अमिताभ से। अमिताभ तब तक ‘बी’ नहीं कहलाते थे। ‘बिग बी’ तो बहुत ही बाद की बात है।
इतने सब परिचय के बीच दिल्ली के उस अंग्रेजी अखबार का भी नाम जान लेना चाहिए- द स्टेटस्मैन। उन दिनों कहा जाता था कि यह सरकार चलाने वालों का अखबार है। दिल्ली के इस अखबार में तीसरे दिन अपनी तीसरी कड़ी में संवाददाता ने पातालकोट उतरने का साहस भरा वर्णन तो किया ही, अचानक यह भी जानकारी दे दी कि छह लोगों को झपटकर खा जाने का किस्सा तीन दिन पुराना नहीं, वह तो 180 दिन पुरानी बात है! कोई छह महीने पहले यह सब घट चुका था।
खबर में गांव के लोगों ने अपने ऊपर आए इस संकट को कैसे हल कर लिया था, इसकी भी जानकारी बड़ी बारीकी से दी गई थी- कैसे फंदा बनाया गया, उसमें कैसे बकरा बांधा गया और फिर बकरे को खाने आई शेरनी को कैसे पकड़ा, कैसे मारा और सबसे आखिर में कैसे इस पूरे कांड के सारे सबूत मिटा दिए गए थे।
इतना सारा ज्ञान देकर हमारे संवाददाता फिर बिना कलम खोले वापस भोपाल लौट आए थे। पूरे देश से कुशल निशानेबाज वहां पहुंचे कि नहीं, पहुंचे तो उनका क्या- जैसे सवालों पर चौथे दिन कोई खबर नहीं छपी दिल्ली में। दिल्ली का अखबार शांत हुआ तो भोपाल ने भी चैन की सांस ली होगी।
इन तीनों खबरों को पढ़कर लगा कि तामिया जाना चाहिए। समझना चाहिए कि प्रदेश का एक भाग, भले ही वह कितनी भी खराब, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से जुड़ा हो, ऐसा कैसे कट सकता है राजधानी से! भोपाल से जिस जगह की भौगोलिक दूरी कोई छह घंटे हो, वहां लोगों पर आई इतनी बड़ी विपत्ति की खबर ऊपर तक आने में छह महीने का समय क्यों लग जाता है? इसका तो मतलब यह हुआ कि भौगोलिक दूरी भले ही छह घंटे की हो, मानसिक दूरी तो छह महीने की है। यह भी लगा कि शेर के साथ तो पातालकोट बरसों से मिल-जुल कर रहता ही रहा है, पर जनहित के नाम से बनी, लोगों के हाथों चुनी गई सरकार, उसका वन विभाग, उसकी पुलिस इतनी डरावनी भला कैसे बन जाती है।
दिल्ली से तामिया कैसे जाएंगे, मुझे पता नहीं था। लेकिन भोपाल से थोड़ा-सा आगे, कोई 80 किलोमीटर दूर होशंगाबाद से मेरा कुछ परिचय था। वहां नर्मदा में मिलने वाली तवा नामक नदी पर एक बड़ा बांध उन्हीं दिनों बना था और उस बांध के कारण वहां की काली मिट्टी में दलदल की परिस्थिति भी बनने लगी थी। वहां कुछ मित्र उस खर्चीली योजना की इन कमियों की ओर सरकार का ध्यान खींचने के लिए एक विनम्र अभियान भी चलाना चाहते थे। फिर पारिवारिक संबंध भी थे, उस शहर में। और इसी शहर में पिताजी के एक मित्र आदिवासी कल्याण जैसे किसी विभाग से अवकाश लेकर बस गए थे। तामिया तक जाने के लिए होशंगाबाद पहुंचना सबसे सरल रास्ता लगा था। रेल में आरक्षण जैसी सहूलियतें तब कुछ खास नहीं चली थीं। रात की गाड़ी पकड़ी, सुबह होशंगाबाद।
सगे-संबंधियों ने, मित्रों ने सुना कि पातालकोट जाना है तो वे चौंक ही पड़े थे। पातालकोट? वहां तो सुनते हैं नरभक्षी लोग रहते हैं। देखते ही तीर चला देते हैं। तुम्हें काट कर खा लेंगे! बाल कथाओं में अक्सर मोहन नाम का एक बालक जितना बहादुर होता है, उतना तो मैं था नहीं। ऐसा बताया जाता है कि पिताजी ने इसी होशंगाबाद शहर के एक खंडहर किले को देख अपनी प्रसिद्ध कविता ‘सन्नाटा’ लिखी थी। इसमें ‘डर’ का खूब वर्णन है।
समझना चाहिए कि प्रदेश का एक भाग, भले ही वह कितनी भी खराब, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से जुड़ा हो, ऐसा कैसे कट सकता है राजधानी से! भोपाल से जिस जगह की भौगोलिक दूरी कोई छह घंटे हो, वहां लोगों पर आई इतनी बड़ी विपत्ति की खबर ऊपर तक आने में छह महीने का समय क्यों लग जाता है? इसका तो मतलब यह हुआ कि भौगोलिक दूरी भले ही छह घंटे की हो, मानसिक दूरी तो छह महीने की है। यह भी लगा कि शेर के साथ तो पातालकोट बरसों से मिल-जुल कर रहता ही रहा है, पर जनहित के नाम से बनी, लोगों के हाथों चुनी गई सरकार, उसका वन विभाग, उसकी पुलिस इतनी डरावनी भला कैसे बन जाती है।एक पंक्ति है उस कविता की: ‘तुम डरो नहीं, वैसे डर कहां नहीं है, पर डर की बात कुछ खास यहां नहीं है।’ शायद उसी पंक्ति ने कुछ सहारा दिया होगा। लगा कि पहले शेर, फिर शेरनी और अब जब हमारे अपने ही लोग नरभक्षी बताए जा रहे हैं तो उनसे मिलने पातालकोट जाना ही चाहिए।
शुभचिंतकों में दिन भर बहस होती रही। इसे अकेले वहां जाने दें या नहीं। फिर तीन साथियों- सुरेश दीवान, पंकज पटेरिया और रामेश्वर भाई ने तय किया कि तामिया, पातालकोट उन्होंने भी तो नहीं देखा है, यहीं पैदा हुए हैं, इतने पास रहस्य में डूबा एक गहरा इलाका है तो चलो सब साथ-साथ चलते हैं। एक से दो नहीं, तीन तो और भी ज्यादा भले होंगे! जो होगा, देखा जाएगा वाला भाव सभी के चेहरों पर अनायास झलक आया था। होशंगाबाद से दिन में बस एक ही बस सेवा थी तामिया के लिए। वह बस शाम तामिया पहुंचती थी। रात वहीं रुक कर अगले दिन सुबह वापस होशंगाबाद आती थी।
अगले दिन हमने वही बस ली। शाम तामिया। बेहद छोटा-सा कस्बा। बस अड्डे के पास दो-चार कच्ची पक्की दुकानें, दो-चार गुमटियां, ठेले। एकाध गिरते-पड़ते से छोटे-छोटे सरकारी दफ्तर और भदरंग और जंग लग चुके उनके बोर्ड। न कोई होटल, न धर्मशाला। हमें बताया गया कि पातालकोट शाम को थोड़े कोई जाता है। कल सुबह जाना। पर रात कहां रुकेंगे हम लोग?
पता चला कि थोड़ी दूर पर बंबई की टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस जैसी किसी बड़ी संस्था का प्रशिक्षण केंद्र था। उन्हीं ने बताया कि पढ़े-लिखे तुम्हारे जैसे लोग बस से उतरते ही सीधे वहीं जाते थे। पर अब न जाने क्यों कुछ बरस से यहां कोई भी बाहरी आदमी आता नहीं।
आशा-निराशा में कदम उठाते हुए हम उसी तरफ चल पड़े। हमारा स्वागत किया वहां रह रहे एक बंगाली दंपत्ति ने। राय साहब ने हमारे आने का कारण पूछा। फिर आराम करने की जगह दी। बिस्तरे लगाए। गरम-गरम खाना परोसा और फिर देर रात तक पातालकोट का वर्णन किया। आश्वस्त किया कि डर की कोई बात नहीं है। सुबह पातालकोट के मुंह तक छोड़ आने का भरोसा भी उन्होंने दिया।
फिर थोड़ी देर अपनी तकलीफ भी बताई। कितनी चहल-पहल यहां रहती थी। बंबई से समाजशास्त्री, सामाजिक कामों में रुचि लेने वालों के कितने बड़े-बड़े दल यहां आते थे, रुकते थे। पंचायती राज में काम कर रहे अधिकारियों के यहां प्रशिक्षण शिविर लगा करते थे। फिर न जाने बंबई को क्या हुआ, लोगों का आना बंद हो गया। जो पैसा, अनुदान, उन दोनों का वेतन, राशन आदि यहां आता था, वह सब बिना बताए अचानक बंद हो गया। जैसे वे लोग भूल ही गए हों इस केंद्र को। तामिया उनकी फाइलों से, उनके मन से न जाने कैसे एकदम मिट गया था। सब धीरे-धीरे खंडहर होता गया। अंग्रेजी की सैकड़ों किताबों से भरी आलमारियां धूल चाटने लगीं। विशाल भवन भी देखरेख के अभाव में खंडहर होने लगा।
लेकिन राय दंपत्ति को इस जगह से कुछ प्यार हो गया था। वे यहीं ऐसी ही हालत में खंडहर के साथ मिलकर, खुद खंडहर-से बनकर रह रहे थे। सुबह खाने-पीने का कुछ सामान हमारे साथ बांधा और फिर श्रीमती राय कोई तीन किलोमीटर दूर बसे छिंदी गांव तक हमें छोड़ने आईं। छिंदी पातालकोट के मुंह पर बसा ऊपर की दुनिया का आखिरी गांव है।
अब सामने दिख रहा था एक विशाल गहरा गड्ढा। मीलों में फैला हुआ। अंडाकार। पत्थरों को काटकर आड़ी-तिड़छी सीढ़ियां कभी मिलतीं, तो कभी गायब हो जातीं। तब सचमुच पेड़ों की जड़ों, लताओं को पकड़कर संभल-संभल हम नपे तुले कदमों से नीचे उतर जाते।
कोई दो घंटे तक लगातार उतरते जाने के बाद पातालकोट का तल आया। अब हम पाताललोक के पहले गांव के पास पहुंच चुके थे। किसी ने हमें दूर से ही आते देख लिया था। बाकी लोगों को उन्हीं ने खबर दी होगी। हम जब तक वहां पहुंचते कुछ प्रश्नों की मालाएं लिए लोग सामने खड़े थे। ऊपर की दुनिया से पातालकोट कोई आता नहीं- शिकायत का यह भाव भी सामने खड़ा था।
सचमुच स्वागत करने वाले इन लोगों में वहां के सरपंच भी थे। सरपंच हमें अपनी साफ-सुथरी सुंदर झोपड़ी में ले गए। लिपी-पुती दीवार पर एक तस्वीर थी- दिल्ली के गणतंत्र दिवस की परेड की। उन्होंने हमें बहुत ही गर्व से बताया कि एक बार उन्हें भी शासन के लोग दिल्ली ले गए थे। तब वे पहली बार ऊपर की दुनिया में बहुत ऊपर तक, ठेठ दिल्ली तक गए थे। आत्मीयता ऐसी कि बातों-बातों में ही हमें पांच-सात गांवों में सबसे मिला लाए थे। सभी गांव बेहद साफ-सुथरे। लोग भी साफ-सुथरे और उनका मन भी एकदम साफ-सुथरा।
उन्हीं से पता चला कि पातालकोट एक तीर्थ भी था। मध्य प्रदेश के कोई एक राज्यपाल यहां पुण्य कमाने आना चाहते थे। उन्हीं को ध्यान में रखकर शासन ने यहां उतरने के लिए पत्थरों को काट कर पहली बार सीढ़ियां बनाई थीं।
नरभक्षी शेर-शेरनी के बारे में कुछ पूछने की हमारी हिम्मत ही नहीं हुई। फिर भी शायद उनकी एक्सरे आंखें ने हमारे आने का कारण ताड़ लिया था। उन्हीं ने बड़े ही सहज ढंग से बताया कि यह तो पुरानी बात हो गई। पर यहां कुछ दिन पहले कोई बड़े आदमी आए थे भोपाल से, उनके साथ पुलिस थी, वन विभाग के लोग थे। इनसे गांवों को बड़ा डर लगता है। इनके आने से बड़ी झंझट आ जाती है।
यह सब लिखते हुए कड़वी बातों पर चाशनी तो नहीं डाली थी पर शायद चलते ट्रक से जो राख उड़ रही थी, उसकी एक परत लेख पर भी चढ़ गई थी। भीतर आग तो थी, पर राख में दबी हुई। लेख छपा। भौगोलिक दूरियां, मानसिक दूरियां, शेर-शेरनी या हम। दोपहर हो चली थी। एक तो यह जगह पाताल में थी, फिर घना जंगल भी था। सूरज ऊपर की धरती के मुकाबले यहां काफी पहले ही डूबने लगता है।
दोपहर ही अंधेरा छाने लगा था। सबसे विदा ली। कुछ लोग पाताल की दीवार तक छोड़ने आए। हम लोग वापस तामिया चढ़ने लगे। सुबह ऊपर से नीचे और दोपहर को नीचे से ऊपर की इस यात्रा में सबके सब बुरी तरह से थक चुके थे। पूरी रात टाटा के उस खंडहर में ऐसे धुत्त सोए कि सुबह होशंगाबाद की ओर लौटने वाली एकमात्र बस हमारे देखते ही देखते धुआं उड़ाती हुई चलती बनी थी!
तो क्या अब अगले दिन तक वहीं रहना होगा? किसी ने सुझाया कि तामिया की कोयला खदानों से राख लेकर ट्रक लौटते हैं। उन्हीं में बैठ जाना। एक अनिश्चित यात्रा पर निकले थे। वापसी उससे भी ज्यादा अनिश्चित हो चली थी। कुछ ट्रक निकले। हमने उनको खूब दूरी से ही हाथ हिला-हिला कर रोकने का इशारा किया था। पर शायद हमारे कपड़े लत्तों से उन्हें लगा होगा कि ये राख के ट्रक पर भला क्यों बैठने वाले। जिसे ‘पिछड़ा’ इलाका बताया जाता है, ट्रकों के मामले में वह बड़ा आधुनिक था, विकसित था। कई ट्रक बिना रुके निकलते रहे। फिर एक ट्रक थोड़ा आगे जाकर रुका। हमें बिठाने राजी हो गया।
दिल्ली लौट कर यह सब लिखा। उस समय के एक प्रतिष्ठित समाचार साप्ताहिक में यह सब छपा भी। देश में ऐसे कितने पातालकोट होंगे, जहां लोगों को डर शेर का नहीं, पढ़े-लिखे लोगों का है, पुलिस का है, वन वालों का है। यह सब लिखते हुए कड़वी बातों पर चाशनी तो नहीं डाली थी पर शायद चलते ट्रक से जो राख उड़ रही थी, उसकी एक परत लेख पर भी चढ़ गई थी।
भीतर आग तो थी, पर राख में दबी हुई। लेख छपा। भौगोलिक दूरियां, मानसिक दूरियां, शेर-शेरनी या हम। और हमारा पढ़ा लिखा दंभी समाज। हमारे विचारों में, आचरण में परत-दर-परत चढ़ती जा रही यह राख कब हटेगी? हम दंभ के पहाड़ से कब उतरेंगे? पातालकोटों की गहराइयों को कब समझेंगे? कौन-सा पंद्रह अगस्त इन लोगों के लिए सचमुच आजादी लेकर आएगा?
हमारा परिवार मध्य प्रदेश का है, पर कोई पच्चीस बरस का हो जाने तक भी मुझे पता नहीं था कि मध्य प्रदेश में एक जगह सचमुच पाताल जैसी गहरी है। इसका नाम ही है पातालकोट। छिंदवाड़ा जिले में। इसकी जानकारी और फिर इस पाताल में उतरने का संजोग भी एक विचित्र घटना से मिला था। वे दिन आपात्काल लगने के आसपास के थे। महीना वगैरह तो अब याद नहीं।
दिल्ली से निकलने वाले उस समय के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार में एक दिन पहले पन्ने पर खबर छपी थी- मध्य प्रदेश के एक बहुत ही दुर्गम इलाके पातालकोट में एक शेर नरभक्षी हो गया है और उसने अब तक छह लोगों को मार डाला है। बड़ा आतंक फैल गया है वहां। अखबार तो प्रसिद्ध था ही, उसके भोपाल स्थित ये संवाददाता भी बड़े प्रसिद्ध थे।
पहले दिन छपी वह खबर उन्होंने भोपाल स्थित अपने विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से लिखी थी। इसमें भोपाल से पातालकोट की दूरी का बड़ा भयानक वर्णन दिया गया था। भोपाल से पिपरिया,पिपरिया से तामिया नाम की एक छोटी-सी जगह और फिर तामिया से पातालकोट। उत्साही पत्रकार ने बड़े चुनौती भरे स्वर में पाठकों को बताया था कि इन पंक्तियों को लिखते हुए वे इस कठिन, खतरनाक यात्रा पर निकल पड़ने की तैयारी कर रहे हैं और अगले दिन अखबार में वे पाठकों को तामिया पहुंचकर ताजा खबर देंगे।
भोपाल से लिखी खबर दिल्ली में छपी। शायद भोपाल के किसी भी अखबार में इसका जिक्र नहीं था। पर दिल्ली में खबर छपते ही बिजली की गति से भोपाल सूचना आ गई। मध्य प्रदेश सरकार चौंक गई।
दोपहर तक प्रशासन के, वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने, प्रदेश के कुशल नेतृत्व ने बैठकें कीं। पातालकोट के लोगों को इस नरभक्षी शेर के आतंक से मुक्त करवाने की बारीक रणनीति बनी। तुरंत घोषणा की गई कि पूरे देश से जो भी शिकारी इस शेर को मारने आएगा, मध्य प्रदेश सरकार उसे सारी सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। उन शिकारियों को राज्य अतिथि का दर्जा देने की बात भी शायद कही गई थी।
उन दिनों रंग-बिरंगी मसालेदार निजी हवाई कंपनियों के पंख नहीं निकले थे। नीले आकाश में बस सिर्फ सरकारी जहाज ही उड़ा करते थे। देश के अनेक हिस्सों से भोपाल आने के लिए सीधी उड़ानें भी ज्यादा नहीं थीं। फिर भी शिकारियों को जल्दी से जल्दी आसमान के रास्ते भोपाल आने का निमंत्रण तो दे ही दिया गया था।
अभी आसमान की बात छोड़ जमीन पर उतरें। अगले दिन ये साहसिक संवाददाता तामिया तक पहुंच गए थे। अब वे उस पाताल के किनारे से अपनी दूसरी रिपोर्ट लिख रहे थे। पाठकों को उन्होंने बहुत ही रहस्य भरे ढंग से उसमें यह बताया कि छह लोगों को मार कर खा जाने वाला शेर नहीं था, बल्कि शेरनी थी। और अब तो वे पातालकोट के कगार पर खड़े हैं, अपनी कलम बंद कर रहे हैं। सैकड़ों बरसों पुराने पेड़ों की जड़ों, लताओं को पकड़-पकड़ कर अब वे पाताल में नीचे उतरने जा रहे हैं।
भोपाल से लिखी खबर दिल्ली में छपी। शायद भोपाल के किसी भी अखबार में इसका जिक्र नहीं था। पर दिल्ली में खबर छपते ही बिजली की गति से भोपाल सूचना आ गई। मध्य प्रदेश सरकार चौंक गई। दोपहर तक प्रशासन के, वन विभाग के बड़े अधिकारियों ने, प्रदेश के कुशल नेतृत्व ने बैठकें कीं। पातालकोट के लोगों को इस नरभक्षी शेर के आतंक से मुक्त करवाने की बारीक रणनीति बनी।पातालकोट छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा की पर्वतमाला के बीच कोई 80 वर्गमील में धंसी एक विचित्र-सी जगह है। भूगर्भ वाले बताते हैं कि यह कुछ लाख साल पहले शायद किसी उल्का पात से बना विशाल गड्ढा है। ऊपर से देखने पर लगता है किसी ने एक बड़ा-सा कटोरा यहां पहाड़ों के बीच लाकर रख दिया है।
पहले शेर, फिर शेरनी तक पहुंचने की जल्दी में हम अपने संवाददाता का ठीक परिचय भी नहीं दे पाए थे। नाम था इनका तरुण भादुड़ी जी। इनकी बेटी बंबई में फिल्म में गईं और फिर उन्होंने पिता से भी ज्यादा प्रसिद्धि पाई- जया भादुड़ी जी। फिर उनका विवाह हुआ कवि श्री हरिवंशराय बच्चन के बेटे अमिताभ से। अमिताभ तब तक ‘बी’ नहीं कहलाते थे। ‘बिग बी’ तो बहुत ही बाद की बात है।
इतने सब परिचय के बीच दिल्ली के उस अंग्रेजी अखबार का भी नाम जान लेना चाहिए- द स्टेटस्मैन। उन दिनों कहा जाता था कि यह सरकार चलाने वालों का अखबार है। दिल्ली के इस अखबार में तीसरे दिन अपनी तीसरी कड़ी में संवाददाता ने पातालकोट उतरने का साहस भरा वर्णन तो किया ही, अचानक यह भी जानकारी दे दी कि छह लोगों को झपटकर खा जाने का किस्सा तीन दिन पुराना नहीं, वह तो 180 दिन पुरानी बात है! कोई छह महीने पहले यह सब घट चुका था।
खबर में गांव के लोगों ने अपने ऊपर आए इस संकट को कैसे हल कर लिया था, इसकी भी जानकारी बड़ी बारीकी से दी गई थी- कैसे फंदा बनाया गया, उसमें कैसे बकरा बांधा गया और फिर बकरे को खाने आई शेरनी को कैसे पकड़ा, कैसे मारा और सबसे आखिर में कैसे इस पूरे कांड के सारे सबूत मिटा दिए गए थे।
इतना सारा ज्ञान देकर हमारे संवाददाता फिर बिना कलम खोले वापस भोपाल लौट आए थे। पूरे देश से कुशल निशानेबाज वहां पहुंचे कि नहीं, पहुंचे तो उनका क्या- जैसे सवालों पर चौथे दिन कोई खबर नहीं छपी दिल्ली में। दिल्ली का अखबार शांत हुआ तो भोपाल ने भी चैन की सांस ली होगी।
इन तीनों खबरों को पढ़कर लगा कि तामिया जाना चाहिए। समझना चाहिए कि प्रदेश का एक भाग, भले ही वह कितनी भी खराब, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से जुड़ा हो, ऐसा कैसे कट सकता है राजधानी से! भोपाल से जिस जगह की भौगोलिक दूरी कोई छह घंटे हो, वहां लोगों पर आई इतनी बड़ी विपत्ति की खबर ऊपर तक आने में छह महीने का समय क्यों लग जाता है? इसका तो मतलब यह हुआ कि भौगोलिक दूरी भले ही छह घंटे की हो, मानसिक दूरी तो छह महीने की है। यह भी लगा कि शेर के साथ तो पातालकोट बरसों से मिल-जुल कर रहता ही रहा है, पर जनहित के नाम से बनी, लोगों के हाथों चुनी गई सरकार, उसका वन विभाग, उसकी पुलिस इतनी डरावनी भला कैसे बन जाती है।
दिल्ली से तामिया कैसे जाएंगे, मुझे पता नहीं था। लेकिन भोपाल से थोड़ा-सा आगे, कोई 80 किलोमीटर दूर होशंगाबाद से मेरा कुछ परिचय था। वहां नर्मदा में मिलने वाली तवा नामक नदी पर एक बड़ा बांध उन्हीं दिनों बना था और उस बांध के कारण वहां की काली मिट्टी में दलदल की परिस्थिति भी बनने लगी थी। वहां कुछ मित्र उस खर्चीली योजना की इन कमियों की ओर सरकार का ध्यान खींचने के लिए एक विनम्र अभियान भी चलाना चाहते थे। फिर पारिवारिक संबंध भी थे, उस शहर में। और इसी शहर में पिताजी के एक मित्र आदिवासी कल्याण जैसे किसी विभाग से अवकाश लेकर बस गए थे। तामिया तक जाने के लिए होशंगाबाद पहुंचना सबसे सरल रास्ता लगा था। रेल में आरक्षण जैसी सहूलियतें तब कुछ खास नहीं चली थीं। रात की गाड़ी पकड़ी, सुबह होशंगाबाद।
सगे-संबंधियों ने, मित्रों ने सुना कि पातालकोट जाना है तो वे चौंक ही पड़े थे। पातालकोट? वहां तो सुनते हैं नरभक्षी लोग रहते हैं। देखते ही तीर चला देते हैं। तुम्हें काट कर खा लेंगे! बाल कथाओं में अक्सर मोहन नाम का एक बालक जितना बहादुर होता है, उतना तो मैं था नहीं। ऐसा बताया जाता है कि पिताजी ने इसी होशंगाबाद शहर के एक खंडहर किले को देख अपनी प्रसिद्ध कविता ‘सन्नाटा’ लिखी थी। इसमें ‘डर’ का खूब वर्णन है।
समझना चाहिए कि प्रदेश का एक भाग, भले ही वह कितनी भी खराब, ऊबड़-खाबड़ सड़कों से जुड़ा हो, ऐसा कैसे कट सकता है राजधानी से! भोपाल से जिस जगह की भौगोलिक दूरी कोई छह घंटे हो, वहां लोगों पर आई इतनी बड़ी विपत्ति की खबर ऊपर तक आने में छह महीने का समय क्यों लग जाता है? इसका तो मतलब यह हुआ कि भौगोलिक दूरी भले ही छह घंटे की हो, मानसिक दूरी तो छह महीने की है। यह भी लगा कि शेर के साथ तो पातालकोट बरसों से मिल-जुल कर रहता ही रहा है, पर जनहित के नाम से बनी, लोगों के हाथों चुनी गई सरकार, उसका वन विभाग, उसकी पुलिस इतनी डरावनी भला कैसे बन जाती है।एक पंक्ति है उस कविता की: ‘तुम डरो नहीं, वैसे डर कहां नहीं है, पर डर की बात कुछ खास यहां नहीं है।’ शायद उसी पंक्ति ने कुछ सहारा दिया होगा। लगा कि पहले शेर, फिर शेरनी और अब जब हमारे अपने ही लोग नरभक्षी बताए जा रहे हैं तो उनसे मिलने पातालकोट जाना ही चाहिए।
शुभचिंतकों में दिन भर बहस होती रही। इसे अकेले वहां जाने दें या नहीं। फिर तीन साथियों- सुरेश दीवान, पंकज पटेरिया और रामेश्वर भाई ने तय किया कि तामिया, पातालकोट उन्होंने भी तो नहीं देखा है, यहीं पैदा हुए हैं, इतने पास रहस्य में डूबा एक गहरा इलाका है तो चलो सब साथ-साथ चलते हैं। एक से दो नहीं, तीन तो और भी ज्यादा भले होंगे! जो होगा, देखा जाएगा वाला भाव सभी के चेहरों पर अनायास झलक आया था। होशंगाबाद से दिन में बस एक ही बस सेवा थी तामिया के लिए। वह बस शाम तामिया पहुंचती थी। रात वहीं रुक कर अगले दिन सुबह वापस होशंगाबाद आती थी।
अगले दिन हमने वही बस ली। शाम तामिया। बेहद छोटा-सा कस्बा। बस अड्डे के पास दो-चार कच्ची पक्की दुकानें, दो-चार गुमटियां, ठेले। एकाध गिरते-पड़ते से छोटे-छोटे सरकारी दफ्तर और भदरंग और जंग लग चुके उनके बोर्ड। न कोई होटल, न धर्मशाला। हमें बताया गया कि पातालकोट शाम को थोड़े कोई जाता है। कल सुबह जाना। पर रात कहां रुकेंगे हम लोग?
पता चला कि थोड़ी दूर पर बंबई की टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस जैसी किसी बड़ी संस्था का प्रशिक्षण केंद्र था। उन्हीं ने बताया कि पढ़े-लिखे तुम्हारे जैसे लोग बस से उतरते ही सीधे वहीं जाते थे। पर अब न जाने क्यों कुछ बरस से यहां कोई भी बाहरी आदमी आता नहीं।
आशा-निराशा में कदम उठाते हुए हम उसी तरफ चल पड़े। हमारा स्वागत किया वहां रह रहे एक बंगाली दंपत्ति ने। राय साहब ने हमारे आने का कारण पूछा। फिर आराम करने की जगह दी। बिस्तरे लगाए। गरम-गरम खाना परोसा और फिर देर रात तक पातालकोट का वर्णन किया। आश्वस्त किया कि डर की कोई बात नहीं है। सुबह पातालकोट के मुंह तक छोड़ आने का भरोसा भी उन्होंने दिया।
फिर थोड़ी देर अपनी तकलीफ भी बताई। कितनी चहल-पहल यहां रहती थी। बंबई से समाजशास्त्री, सामाजिक कामों में रुचि लेने वालों के कितने बड़े-बड़े दल यहां आते थे, रुकते थे। पंचायती राज में काम कर रहे अधिकारियों के यहां प्रशिक्षण शिविर लगा करते थे। फिर न जाने बंबई को क्या हुआ, लोगों का आना बंद हो गया। जो पैसा, अनुदान, उन दोनों का वेतन, राशन आदि यहां आता था, वह सब बिना बताए अचानक बंद हो गया। जैसे वे लोग भूल ही गए हों इस केंद्र को। तामिया उनकी फाइलों से, उनके मन से न जाने कैसे एकदम मिट गया था। सब धीरे-धीरे खंडहर होता गया। अंग्रेजी की सैकड़ों किताबों से भरी आलमारियां धूल चाटने लगीं। विशाल भवन भी देखरेख के अभाव में खंडहर होने लगा।
लेकिन राय दंपत्ति को इस जगह से कुछ प्यार हो गया था। वे यहीं ऐसी ही हालत में खंडहर के साथ मिलकर, खुद खंडहर-से बनकर रह रहे थे। सुबह खाने-पीने का कुछ सामान हमारे साथ बांधा और फिर श्रीमती राय कोई तीन किलोमीटर दूर बसे छिंदी गांव तक हमें छोड़ने आईं। छिंदी पातालकोट के मुंह पर बसा ऊपर की दुनिया का आखिरी गांव है।
अब सामने दिख रहा था एक विशाल गहरा गड्ढा। मीलों में फैला हुआ। अंडाकार। पत्थरों को काटकर आड़ी-तिड़छी सीढ़ियां कभी मिलतीं, तो कभी गायब हो जातीं। तब सचमुच पेड़ों की जड़ों, लताओं को पकड़कर संभल-संभल हम नपे तुले कदमों से नीचे उतर जाते।
कोई दो घंटे तक लगातार उतरते जाने के बाद पातालकोट का तल आया। अब हम पाताललोक के पहले गांव के पास पहुंच चुके थे। किसी ने हमें दूर से ही आते देख लिया था। बाकी लोगों को उन्हीं ने खबर दी होगी। हम जब तक वहां पहुंचते कुछ प्रश्नों की मालाएं लिए लोग सामने खड़े थे। ऊपर की दुनिया से पातालकोट कोई आता नहीं- शिकायत का यह भाव भी सामने खड़ा था।
सचमुच स्वागत करने वाले इन लोगों में वहां के सरपंच भी थे। सरपंच हमें अपनी साफ-सुथरी सुंदर झोपड़ी में ले गए। लिपी-पुती दीवार पर एक तस्वीर थी- दिल्ली के गणतंत्र दिवस की परेड की। उन्होंने हमें बहुत ही गर्व से बताया कि एक बार उन्हें भी शासन के लोग दिल्ली ले गए थे। तब वे पहली बार ऊपर की दुनिया में बहुत ऊपर तक, ठेठ दिल्ली तक गए थे। आत्मीयता ऐसी कि बातों-बातों में ही हमें पांच-सात गांवों में सबसे मिला लाए थे। सभी गांव बेहद साफ-सुथरे। लोग भी साफ-सुथरे और उनका मन भी एकदम साफ-सुथरा।
उन्हीं से पता चला कि पातालकोट एक तीर्थ भी था। मध्य प्रदेश के कोई एक राज्यपाल यहां पुण्य कमाने आना चाहते थे। उन्हीं को ध्यान में रखकर शासन ने यहां उतरने के लिए पत्थरों को काट कर पहली बार सीढ़ियां बनाई थीं।
नरभक्षी शेर-शेरनी के बारे में कुछ पूछने की हमारी हिम्मत ही नहीं हुई। फिर भी शायद उनकी एक्सरे आंखें ने हमारे आने का कारण ताड़ लिया था। उन्हीं ने बड़े ही सहज ढंग से बताया कि यह तो पुरानी बात हो गई। पर यहां कुछ दिन पहले कोई बड़े आदमी आए थे भोपाल से, उनके साथ पुलिस थी, वन विभाग के लोग थे। इनसे गांवों को बड़ा डर लगता है। इनके आने से बड़ी झंझट आ जाती है।
यह सब लिखते हुए कड़वी बातों पर चाशनी तो नहीं डाली थी पर शायद चलते ट्रक से जो राख उड़ रही थी, उसकी एक परत लेख पर भी चढ़ गई थी। भीतर आग तो थी, पर राख में दबी हुई। लेख छपा। भौगोलिक दूरियां, मानसिक दूरियां, शेर-शेरनी या हम। दोपहर हो चली थी। एक तो यह जगह पाताल में थी, फिर घना जंगल भी था। सूरज ऊपर की धरती के मुकाबले यहां काफी पहले ही डूबने लगता है।
दोपहर ही अंधेरा छाने लगा था। सबसे विदा ली। कुछ लोग पाताल की दीवार तक छोड़ने आए। हम लोग वापस तामिया चढ़ने लगे। सुबह ऊपर से नीचे और दोपहर को नीचे से ऊपर की इस यात्रा में सबके सब बुरी तरह से थक चुके थे। पूरी रात टाटा के उस खंडहर में ऐसे धुत्त सोए कि सुबह होशंगाबाद की ओर लौटने वाली एकमात्र बस हमारे देखते ही देखते धुआं उड़ाती हुई चलती बनी थी!
तो क्या अब अगले दिन तक वहीं रहना होगा? किसी ने सुझाया कि तामिया की कोयला खदानों से राख लेकर ट्रक लौटते हैं। उन्हीं में बैठ जाना। एक अनिश्चित यात्रा पर निकले थे। वापसी उससे भी ज्यादा अनिश्चित हो चली थी। कुछ ट्रक निकले। हमने उनको खूब दूरी से ही हाथ हिला-हिला कर रोकने का इशारा किया था। पर शायद हमारे कपड़े लत्तों से उन्हें लगा होगा कि ये राख के ट्रक पर भला क्यों बैठने वाले। जिसे ‘पिछड़ा’ इलाका बताया जाता है, ट्रकों के मामले में वह बड़ा आधुनिक था, विकसित था। कई ट्रक बिना रुके निकलते रहे। फिर एक ट्रक थोड़ा आगे जाकर रुका। हमें बिठाने राजी हो गया।
दिल्ली लौट कर यह सब लिखा। उस समय के एक प्रतिष्ठित समाचार साप्ताहिक में यह सब छपा भी। देश में ऐसे कितने पातालकोट होंगे, जहां लोगों को डर शेर का नहीं, पढ़े-लिखे लोगों का है, पुलिस का है, वन वालों का है। यह सब लिखते हुए कड़वी बातों पर चाशनी तो नहीं डाली थी पर शायद चलते ट्रक से जो राख उड़ रही थी, उसकी एक परत लेख पर भी चढ़ गई थी।
भीतर आग तो थी, पर राख में दबी हुई। लेख छपा। भौगोलिक दूरियां, मानसिक दूरियां, शेर-शेरनी या हम। और हमारा पढ़ा लिखा दंभी समाज। हमारे विचारों में, आचरण में परत-दर-परत चढ़ती जा रही यह राख कब हटेगी? हम दंभ के पहाड़ से कब उतरेंगे? पातालकोटों की गहराइयों को कब समझेंगे? कौन-सा पंद्रह अगस्त इन लोगों के लिए सचमुच आजादी लेकर आएगा?
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