उस समय न तो भारी-भरकम डिग्रियों वाले इंजीनियर थे और न ही बड़ी-बड़ी मशीनें। लेकिन उस दौर का समाज पानी, मौसम और मिट्टी के मिजाज को बखूबी समझता था। तभी साढ़े तीन सौ साल पहले विकसित की गई जल वितरण प्रणाली आज भी काम कर रही है। इसमें अगर कहीं व्यवधान है भी तो वह आधुनिक समाज की देन है न कि उस जल प्रबन्धन की कोई खामी
बुरहानपुर ताप्ती नदी के किनारे बसा मध्य प्रदेश का एक जिला मुख्यालय है। यहाँ की प्राचीन जल प्रबन्धन प्रणाली मुगलिया सल्तनत की स्थापत्य कला का शानदार नमूना है। चूँकि यह एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक केन्द्र के साथ ही मुगल साम्राज्य का सीमावर्ती इलाका था, इसलिये यहाँ की छावनी में दो लाख से ज्यादा फौजी रहा करते थे।
उस समय शहर में आम लोगों की आबादी करीब 35,000 रही होगी। फिर ऐसे छोटे शहर को, जो ताप्ती जैसी नदी के किनारे था, इतने विशाल जल प्रबन्धन की जरूरत क्यों पड़ गई? इसका कारण यह था कि ताप्ती अनेक ऐसे राज्यों से होकर आती थी, जहाँ अलग-अलग शासकों का राज था। तभी इस बात का खतरा बना रहता था कि युद्ध में दुश्मनी के समय जाने कौन इसके पानी में जहर मिला दे। ऐसे में सिर्फ ताप्ती के पानी पर निर्भर रहने का अर्थ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना था। मुगल शासनकाल में ही अब्दुल रहीम खान को भूजल पर आधारित एक योजना का कार्य सौंपा गया। वर्ष 1615 में फारसी भूतत्ववेत्ता तबकुतुल अर्ज ने ताप्ती के मैदानी इलाके, जो सतपुड़ा पहाड़ियों के बीच स्थित हैं, के भूजल स्रोतों का अध्ययन किया और शहर में जलापूर्ति के लिये भूमिगत सुरेंगे बिछाने का इन्तजाम किया।
ऐसी कुल आठ प्रणालियाँ अलग-अलग समय में तैयार की गईं। इनमें से दो तो काफी पहले बर्बाद हो चुकी हैं। शेष बची छह प्रणालियों में से तीन आज भी बुरहानपुर शहर को पानी मुहैया करवा रही हैं। अन्य तीन का पानी पास के बहादुरपुर गाँव और राव रतन महल को जाता है। बुरहानपुर में अपनाई गई तकनीक मूलतः सतपुड़ा पहाड़ियों से भूमिगत रास्ते से ताप्ती तक जाने वाले पानी को जमा करने की थी। बुरहानपुर शहर से उत्तर-पश्चिम में चार जगहों पर इस पानी को रोकने का इन्तजाम किया गया था। इनका नाम था मूल भंडारा, सुख भंडारा, चिंताहरण भंडारा और खूनी भंडारा। इनसे पानी जमीन के अन्दर बनी सुरंगों से भूमिगत भंडार, जिसे ‘जली करंज’ कहते हैं, में जमा होता है और फिर वहाँ से यह शहर तक पहुँचता है। मूल भंडारा और चिन्ताहरण का पानी बीच में एक जगह मिलता है और फिर खूनी भंडारा की तरफ बढ़ जाता है। खूनी भंडारा से आने वाला पानी जली करंज में जाता है। खूनी भंडारा से आने वाला पानी जब जली करंज में आए, इससे ठीक पहले सुख भंडारा का पानी भी उससे आकर मिलता है। मुगलकाल में जली करंज का पानी मिट्टी के बने पाइपों से शहर तक जाता था। अंग्रेजों ने मिट्टी की जगह लोहे की पाइप लाइन डलवाई थी। इसके प्रवाह को व्यवस्थित रखने के लिये प्रत्येक 20 मीटर की दूरी पर हवा आने-जाने के लिये कूपक बनाए गए थे। चूँकि नीचे की सुरंग से सालोंभर साफ पानी बहता ही रहा है, इसलिये इसका इस्तेमाल कुएँ की तरह होने लगा।
यह पूरी प्रणाली गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर काम करती है। भूमिगत नालिकाओं को भी हल्की ढलान दी गई है। सुख भंडारा जमीन से तीस मीटर नीचे है और वहाँ से पानी इस सुरंग में आता है। गर्मियों में भी यहाँ डेढ़ मीटर पानी होता है। चट्टानों वाली इस प्रणाली को मजबूत बनाने के लिये करीब एक मीटर मोटी दीवार भी निर्मित की गई। भूजल का रिसाव इसके अन्दर होता रहे, इसके लिये दीवार में जहाँ-तहाँ जगह छोड़ी गई है। मूल भण्डारा शहर से 10 किमी दूर एक सोते के पास स्थित है। यह खुले हौज की तरह है और इसकी गहराई 15 मीटर है। इसकी दीवारें पत्थर से बनी हैं। इसके चारों तरफ 10 मीटर ऊँची दीवार भी बनाई गई है। चिन्ताहरण, मूल भंडारा के पास ही एक सोते के किनारे है और इसकी गहराई 20 मीटर है। खूनी भंडारा शहर से पाँच किमी दूर लाल बाग के पास है। इसकी गहराई करीब 10 मीटर है। इसकी तलहटी पत्थर को जोड़कर बनी है। जली करंज इन चारों भंडारों का पानी एक जगह एकत्र करने का उपकरण मात्र है। यहाँ पानी जमीन से मात्र दो मीटर नीचे रहता है और यहीं से शहर को जाता है। कपड़ा बनाने वाली बुरहानपुर-ताप्ती मिल से निकला रसायनयुक्त गन्दा पानी जली करंज के पास ही छोड़ा जा रहा है, जिससे इस प्राचीन प्रणाली के प्रदूषित होने का खतरा पैदा हो गया है।
पानी की वर्तमान व्यवस्था
वर्ष 2001 में बुरहानपुर शहर की आबादी 1,93,725 के करीब थी। यहाँ रोज 90 लाख लीटर जल की आपूर्ति होती है, जिसमें से 76.5 लाख लीटर पानी नलकूपों और कुँओं से तथा 13.5 लाख लीटर पानी पुरानी व्यवस्था से मिलता है। अपने निर्माण के साढ़े तीन सौ साल बाद भी यह व्यवस्था बिना किसी लागत या खर्च के काम आ रही है। बुरहानपुर नगर पालिका के इंजीनियर जी एस पाटिल के अनुसार, “पुरानी प्रणाली रोज अपनी मौजूदा आपूर्ति से साढ़े तेरह से लेकर 18 लाख लीटर ज्यादा पानी की आपूर्ति करने में सक्षम है। इस प्रकार अभी पुरानी प्रणाली का पूरा सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। हाल के कुछ वर्षों में नगर पालिका इस प्रणाली की असल कीमत को समझी है और अब वह इसके रख-रखाव के प्रति सचेत हुई है।”
पिछले कुछ वर्षों में इससे जुड़ी कुछ मुख्य समस्याएँ भी सामने आई हैं, जिससे इसकी पानी प्रदान करने की क्षमता कम हुई है। मुगलकाल में इस प्रणाली से रोज एक करोड़ लीटर पानी मिल सकता था। 1976-77 तक यह क्षमता घटकर 15 लाख लीटर रह गई। यहाँ के पानी में मैग्नीशियम और कैल्शियम की मात्रा काफी अधिक है। रिसाव वाले छिद्रों में इन रसायनों का जमाव बढ़ जाने से पानी का आना कम हुआ है। कई जगहों पर तो इन खनिजों की परतें 10 से 15 सेमी मोटी हो चुकी हैं। चूँकि सदियों से इनकी सफाई नहीं हुई है, इसलिये इस पूरी प्रणाली की जल संग्रह क्षमता कम हुई है।
कम पानी जमा होने का एक अन्य कारण इसके आस-पास के इलाकों में सिंचाई के लिये असंख्य नलकूपों का रोपा जाना भी है। नलकूपों से जितना पानी उलीचा जाता है, उसी अनुपात में भूजल का स्तर भी गिरता जाता है। इससे भण्डारों में पानी का रिसाव कम हुआ है। कई जलभर भी रीते हो गए हैं। पहले यह पूरा इलाका पेड़-पौधों के चलते हरा-भरा था, लेकिन नेपानगर में कागज का कारखाना लगने और आबादी का दबाव बढ़ने से सारा जंगल उजाड़ हो चुका है। पेड़ न रहने से बरसात का पानी जमीन के अन्दर जाने की बजाय ताप्ती नदी में चला जाता है। सुरंग और कूपकों की गाद जमा होने से भी इस व्यवस्था की क्षमता प्रभावित हुई है।
पानी की गुणवत्ता में गिरावट हाल में पैदा हुई समस्या है। खुले कुंडों के पास चूना कुटाई वाला कारखाना ‘राय लाइम मिल’ है। इसकी धूल खुले कुंडों के माध्यम से कूपकों में जाती है, जिससे पूरी प्रणाली पर बुरा असर पड़ रहा है। कुंडों के आस-पास आबादी का दबाव भी बढ़ रहा है। यहाँ के बाशिंदे कुंडों के पास बने चबूतरों पर नहाते-धोते हैं। इसका गन्दा पानी भी रिसकर कूपकों में पहुँचता है। रेलवे स्टेशन के पास स्थित दो कुंड ऊपर से टूट गए हैं। इसमें बरसात का पानी और कई बार नालियों का पानी भी सीधे चला जाता है। अगर इन मामूली सी दिखने वाली बातों पर तत्काल ध्यान न दिया गया तो यह ऐतिहासिक प्रणाली बहुत जल्दी ही सिर्फ इतिहास का किस्सा बन कर रह जाएगी।
मध्य प्रदेश की अन्य जल प्रणालियाँ हवेली प्रणाली : जबलपुर/नरसिंहपुर नर्मदा घाटी के ऊपरी इलाकों में अभी तक प्रचलित यह प्रणाली जल संचय और खेती की एक अनोखी विधि है। इसकी शुरुआत जबलपुर शहर से आगे उत्तर-पश्चिम के मैदानी इलाके में हुई थी। फिर यह नर्मदा पार करके नरसिंहपुर जिले में पहुँची। इस प्रणाली में ऊँचे बाँधों के जरिए बरसाती पानी को फसलों की बुवाई तक रोके रखा जाता है। फिर पानी निकालकर खेत सुखा लिया जाता है और फसल बोई जाती है। इसके बाद सिंचाई की जरूरत नहीं रहती। जल ब्रह्माण्ड : सांची ईसा से तीन सदी पूर्व बनाए गए तीन प्राचीन जलाशय सांची की पहाड़ी पर हैं जो जल ब्रह्माण्ड को उजागर करते हैं। एक जलाशय पहाड़ी के ठीक ऊपर बना है और शेष दो पहाड़ी की ढलान पर हैं। उस जमाने में वर्षाजल द्वारा बने मार्ग और नालियाँ पानी जमा करती थीं जो एक जलाशय से दूसरे में चला जाता था। पहाड़ी से दो किलोमीटर दूर बेतवा नदी बहती थी, जो भोपाल के तालाबों से मिल जाती थी। यह नदी, तीन जलाशय और एक घना जंगल मिलकर एक स्वतंत्र जल प्रणाली का काम करते थे। पाट प्रणाली : झाबुआ जिले के सांदवा प्रखंड के भील आदिवासियों ने खेतों की सिंचाई के लिये यह अचम्भित करने वाली प्रणाली विकसित की। इस प्रणाली में पहाड़ी से नीचे बहते पानी को खास तरह के सिंचाई नालों की तरफ मोड़ दिया जाता है, जिन्हें पाट कहते हैं। पाट प्रणाली में सोते के किसी बिन्दु पर 30-60 सेंटीमीटर मोटा बाँध डाला जाता है, जो धारा को मोड़कर सिंचाई वाले भागों में डाल देता है। पाट का ढलाव सोते की पेटी से कम होता है। |
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