सभ्यताओं को निगलतीं परियोजनाएँ

ननदियों को जब से हमने सिर्फ जल और ऊर्जा का स्रोत समझना शुरू किया, सारी समस्या वहीं से शुरू हो गई। नदियों के सांस्कृतिक पक्ष को भूलकर हमने उनका भौतिक दोहन शुरू कर दिया और कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि इसका कितना बड़ा दुष्परिणाम हमारी सभ्यताओं को भोगना पड़ रहा है।

आर्थिक विकास ही व्यवस्थाओं का एक मात्र एजेंडा है। इस तरह के विकास की पहली जरूरत होती है सस्ती ऊर्जा। इसी मद्देनजर सरकारें नदियों पर जल-विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देती हैं या इनका प्रस्ताव रखती हैं। यह इच्छा कि भारत को कथित ‘विकसित’ देशों की कतार में ले आना है, प्रकृति पूजा के पारम्परिक भारतीय लोकचार को बर्बाद करेगी। कुदरत के साथ हमारा जो सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता है, वह भी खत्म होगा। नदियों से जुड़ी जो परियोजनाएँ काम कर रही है, उनका बुरा असर धीरे-धीरे पड़ रहा है और हम सब इसके गवाह बन रहे हैं।

विवादास्पद टिहरी बाँध के अलावा, 1970 के दशक के अन्त तक आर. भागीरथी के मनेरी-भाली पर पनबिजली योजना काम करने लगी थी। देवप्रयाग से जुड़ने से पहले कई सहायक नदियों पर पाँच प्रोजेक्ट निर्माणाधीन हैं। इसमें भागीरथी पर पाला-मनेरी और मनेरी-भाली स्टेज दो भी शामिल हैं। इसके अलावा देवप्रयाग पर ऊपर की ओर 20 मध्यम स्तर की योजनाओं के बारे में सोचा-विचारा गया।

यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि पर्यावरणविद और श्रद्धालु, दोनों तबके इस तरह की परियोजनाओं को लेकर आँखें मूँदे रहे, जबकि एक हिमालयी पर्यावरण की विशिष्टता पर मौजूद खतरे को लेकर लगातार बातें करते हैं और दूसरा तबका गंगाजी की कसमें खाता है इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि टिहरी बाँध के खिलाफ जो विरोध-प्रदर्शन हुआ था, वह पर्याप्त नही था या उसके लिए समुचित तैयारी नहीं की गई थी या मुुख्यतः कुछ लोगों ने अपने हितों को आगे रखा। इस घटना से यह जाहिर होता है कि सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि हम प्रस्तावित परियोजनाओं का समर्थन नहीं करते, बल्कि यह बताना भी होगा कि किस विशेष परियोजनाओं का विरोध करते हैं और किस आधार पर करते हैं ? यह आधार वैज्ञानिक या पर्यावरणीय हो सकता है। यह आधार हमारी आस्था, संस्कृति और संवेदना भी हो सकती है। अगर आधार वैज्ञानिक व पर्यावरणीय हैं या कानूनी हैं, तो वे काफी होने चाहिए और उन आधारों को सक्षम पेशेवरों द्वारा पेश किए जाने चाहिए। ऐसे तर्क गिनाते वक्त जेहन में आर्थिक पहलू को भी ध्यान रखने की जरूरत है और विकल्प भी प्रस्तुत किए जाने चाहिए। अगर ये तर्क आस्था, संस्कृति, परम्परा या संवेदना से जुड़े हों, तो भी इन्हें बेबाकी से कहा जाना चाहिए। मेरा दृढ़ मत है कि वह इनसान जो अपनी आस्था के लिए खड़ा नहीं हो सकता, वह इनसान नहीं है। यह उसी तरह है, जैसे एक देश जो अपनी सम्प्रभुता के लिए खड़ा नहीं हो सकता, वह देश नहीं है।

इसलिए आइए, पहले हम परियोजना के विरोध में आस्था, संस्कृति, संवेदनाओं का जिक्र करें। सबसे पहले तो गंगा भारतीयों के लिए विशेष नदी है, अतः इसके साथ विशेष आचरण अपेक्षित है। भारतीय संस्कृति में गंगा को एक आम नदी नहीं माना गया है। यह ‘सुर-सारी’ है। यह ऊर्जा का ईश्वरीय प्रभाव है। इसमें जीवन को देखा गया है। इसे ‘मां’ कहा गया है। करोड़ों हिन्दू इसकी पूजा करते हैं। अगर ये करोड़ों लोग, केरल, तमिलनाडु, सौराष्ट्र, कश्मीर से लेकर हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी, गंगासागर तक के लोग अपनी इस आस्था को प्रकट करें, तो किसी भी व्यवस्था के लिए इनका विरोध मुश्किल हो जाएगा। गंगा में जो जल बह रहा है, वह हिन्दुओं के लिए कोई आम जल नहीं है, बल्कि गंगाजल है। यह सिर्फ पेयजल, घरेलू इस्तेमाल या सिंचाई के लिए नहीं है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन या किसी मन्त्रालय के मानकों को पूरा करने की जरूरत नहीं है। यह तो हिन्दू आस्था, परम्परा, संवेदना में जीवन-मरण तक जुड़ा है।

वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, योजनाकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों की मूल समस्या यह है कि वे अपने को ‘शिक्षित’ मानते हैं। सरकार के साथ मिलकर उन्हें लगता है कि वे पहले इसका उपचार कर देंगे और फिर गंगाजी को किसी और नदी की तरह बना देंगे। वे सामान्य प्रक्रियाओं को अपनाते हैं, वही मानकों को लेकर चलते हैं, उनके उद्देश्य वही होते हैं, जो अन्य नदियों के साथ होते हैं। इस तरह से उनका मुख्य लक्ष्य बन जाता है कि भारतीय भूमि, उसकी संस्कृति और उसके लोगों का अनादर करना। गंगाजी को कोई आम नदी मान लेना दरअसल, आधुनिक वैज्ञानिक व आर्थिक संस्कृति द्वारा भारतीय पुरातन संस्कृति पर हमला है और उसका मुकाबला इसी स्तर पर किया जाना चाहिए। हमें उन्हें यह बताना होगा कि गंगाजी हमारी सांस्कृतिक माता है। यह गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक है। हम गंगाजी के साथ आम नदियों-जैसा बर्ताव नहीं होने देंगे और सिंचाई, शहर में पेयजल आपूर्ति, पनबिजली इत्यादि के लिए इसके दोहन को बर्दाश्त नहीं करेंगे।

गंगाजल की विशिष्टताओं को भी जन-सामान्य के सामने रखने की आवश्यकता है। हिन्दू संस्कृति, आस्था और परम्परा में मान्यताओं का विशेष महत्त्व है।

तबाही की योजनाएँतबाही की योजनाएँहमारे ऋषि-मुनियों ने गंगाजल के महत्त्व को देखा है और हम उनको खारिज करके नहीं चल सकते। इसके अलावा, यह माना जाता है कि गंगाजल कीटाणुनाशक, रोगनाशक, स्वास्थ्यवर्द्धक, जड़ी-बूटियों के गुणों को साथ लिए होता है। इतने सारे गुण दूसरे जल में नहीं मिलते। आधुनिक विज्ञान इन बातों को बकवास बता सकता है, वह इसे अंधविश्वास मान सकता है और यह कह सकता है कि क्या वैज्ञानिक सबूत हैं। इसलिए आधुनिक वैज्ञानिक समुदाय की, कि अगर उन्हें लगता है कि गंगाजल को लेकर अंधविश्वास अधिक हैं और सारे तर्क निराधार हैं, तो वे इसे साबित करें। यह जानकारी जरूरी है कि उनकी तरफ से आज तक कोई विस्तृत, सुनियोजित अध्ययन नहीं हुआ है। इसके विपरीत, कई सारे वैज्ञानिकों के अध्ययन हैं, जो हिंदुओं की इस मान्यता को पुष्ट करते हैं। जैसे, वाराणसी और अन्य स्थानों पर गंगाजल में जीवाणुनाशक गुण पाए गए। यह अध्ययन भारतीय और यूरोपीय जीव-वैज्ञानिकों ने किया है। इसी तरह कानपुर में ई. कोलाई साइडल गुण मिले, यह अध्ययन आईआईटी कानपुर में एम.टेक थीसिस के दौरान काशी प्रसाद ने पाया।

अब इन परियोजनाओं के विरोध में वैज्ञानिक और पर्यावरणीय तर्कों को पेश करता हूँ। इसमें सबसे पहले है व्यावहारिक पक्ष, आर्थिक नजरिया और सुरक्षा का मुद्दा। कुछ परियोजनाओं के मामले में अब तक व्यावहार्यता अध्ययन रिपोर्ट सामने ही नहीं आई है। इसलिए शुरूआती स्तर की इस रिपोर्ट के बारे में जानकारी जुटाई जानी चाहिए और उसका पर्याप्त परीक्षण भी होना चाहिए।

अब पहलू है भौगोलिक सुरक्षा का। भौगोलिक रूप से हिमालय एक अति-संवेदनशील क्षेत्र है। यहाँ कई प्लेट हैं, कई सारे भू-स्खलन से मलबों और चट्टानों का अम्बार है। कई अध्ययन यह बता चुके हैं कि यहाँ पर किसी तरह की परियोजना या बाँध-निर्माण इसकी पारिस्थितिकी पर बुरा असर डालेगा। इसलिए कुछ संशोधनों के साथ परियोजनाओं को लागू करने की बात होती रहती है। परन्तु सवाल यह है कि हिमालयी क्षेत्र में कैसे एक ठोस परियोजना को अमल में लाया जा सकता है? लेकिन हिमालय क्षेत्र में बांध बनाने-जैसी मुश्किल परियोजनाओं को देखें, विभिन्न भौगोलिक हालात में इसे चलाने के बारे में सोचें और पुराने अनुभवों का आकलन करें, तो यह भी साफ हो जाता है कि इस तरह की परियोजनाओं को लाभकारी बनाना आसान नहीं होगा। इसके लिए बिजली बेचने की दर में इजाफा करना ही होगा, फिर कैसे इन परियोजनाओं के जरिये बिजली सस्ती होने का दावा किया जाता है ?

एक नदी घाटी परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहला, इस परियोजना से पूरे नदी क्षेत्र में, जिसमें प्रवाह, जल-विस्तार, वेग, तलछटी भराव, तलछटी में जमा मिट्टी के गुण, मैदानी क्षेत्र वगैरह आते हैं, जो लम्बे समय के बदलाव लाएगा, उसके प्रभाव का आकलन करना। यह देखा गया है कि ऐसे असर धीमे होते हैं, लेकिन समय के साथ प्रबल होते जाते हैं। जैसे बाढ़ को नियन्त्रित करना मुश्किल हो जाता है। दूसरा, पर्यावरणीय प्रभाव है। निर्माण-कार्यों से वहाँ प्रदूषण फैलता है। जमीन अधिग्रहण का मामला आता है, बहुत से लोग दर-बदर हो जाते हैं, वनों का नाश किया जाता है। कई बार तो इन कारणों से परियोजनाओं पर ताले लग जाते हैं। इसलिए जोखिम अध्ययन और आपदा प्रबन्धन-जैसे मुद्दे भी बड़े हो जाते हैं।

इसके अलावा, क्षेत्र में वनस्पतियों का जो नुकसान होता है, वह अलग है। इसकी क्षति-पूर्ति के बारे में तो सोचा भी नहीं जाता। देखा जाए, तो एक बाँध-निर्माण हमारी एक सभ्यता को लील जाता है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। यह समझना होगा कि हिमालय और गंगा को नुकसान पहुँचाने का मतलब भारतीयता के अस्तित्व को खतरे में डालना है।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)

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