बाबर ने अपने बाबरनामा में एक जगह लिखा है कि हिन्दुस्तान में चारों तरफ पानी-ही-पानी दिखाई देता है। यहां जितनी नदियां, मैने कहीं नहीं देखीं हैं। यहां पर वर्षा इतनी जोरदार होती है कि कई-कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लेती है। बाबर के इस लेख से ज्ञात होता है कि पानी के मामले में भारत आत्मनिर्भर था लेकिन अब तो वह बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रहा है।भुखमरी, महामारी, अकाल के शिकार होकर प्राणियों को मरते तो देखा गया है, परन्तु किसी व्यक्ति ने पानी के बिना प्यास से दम तोड़ दिया हो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। 20वीं सदी की पहचान यही होगी कि प्यास के मारे प्राणियों ने दम तोड़ा है। बाबर ने अपने बाबरनामा में एक जगह लिखा है कि हिन्दुस्तान में चारों तरफ पानी-ही-पानी दिखाई देता है। यहां जितनी नदियां, मैने कहीं नहीं देखीं हैं। यहां पर वर्षा इतनी जोरदार होती है कि कई-कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लेती है। बाबर के इस लेख से ज्ञात होता है कि पानी के मामले में भारत आत्मनिर्भर था लेकिन अब तो वह बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रहा है। पर्याप्त वर्षा न होना पर्यावरण प्रदूषण की गंभीरता को बताता है।
एशिया और अफ्रीका के कई देश पीने के पानी की विकराल समस्या से जूझ रहे हैं। पांच व्यक्ति में से हर तीसरा व्यक्ति प्यास से जूझ रहा है। तीसरी दुनिया में प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे 5 वर्ष की उम्र से पूर्व पानी की कमी अथवा दूषित पानी की वजह से मर जाते हैं। 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग हर दिन दूषित पानी का उपयोग कर रहे हैं। औद्योगिक क्रांति ने अमृत जल को विषैला जल बना दिया है। आज यह पानी सबसे बड़ा हत्यारा बन गया है। मलेरिया, पेचिश, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, चर्म रोग जैसी अनेक बीमारियां महामारी के रूप में होने लगी हैं। जिधर देखो उधर ही एक नया मरूस्थल बनता नजर आ रहा है।
बिना भोजन के हम रह सकते हैं, लेकिन बिना जल के कुछ क्षण भी निकालना बहुत मुश्किल काम है। वर्तमान की कृषि नीति, जो आधुनिकता के नाम पर की जा रही है, उसे भी जल की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि यूरिया आदि रासायनिक खादों के लिए पानी का होना बहुत आवश्यक है। परंपरागत गोबर की खाद की उपयोगिता अब नहीं रही है। उद्योगों में भी जल उपयोग में लिया जाता है, वह स्वच्छ जल है, जबकि वह जल पीने के काम लाया जाना चाहिए था। संयुक्त राष्ट्र ने 1976 में, अपनी बैठक में एक विशेष प्रस्ताव पास करके 1990 तक सभी को स्वच्छ जल आपुर्ति की घोषणा की थी। 10 नवम्बर 1980 में न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतर्राष्ट्रीय पेयजल की आपुर्ति एवं सफाई दशक (1981-90) की घोषणा की थी। मगर यह महज घोषणा बनकर रह गई। सारा विश्व जल संकट से जूझ रहा है। बार-बार वैज्ञानिक चेतावनियों और प्रचार-प्रसार के बावजूद हम जल को बचाने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। बार-बार जल नितियां बनने के बाद भी करोड़ों रुपये पर पानी फिर गया। इसके बाद भी पानी नहीं मिला।
किसी समय अपने देश का मालवा प्रदेश सबसे ज्यादा हरा-भरा उपजाऊ वनों वाला प्रदेश होने का गौरव हासिल किए हुए था। लेकिन अब अंधाधुंध नलकूपों के खनन से जल का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। गुजरात और राजस्थान की तरह अब मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी जल संकट से जूझ रहा है।
पानी के संबंध में कोई भी बात कहना आसान है, बल्कि स्थिति को देखते हुए उसको बचाने में बहुत ज्यादा श्रम और शक्ति की आवश्यकता है। इस श्रमशक्ति के बिना हम पानी समस्या से नहीं निपट सकते। पानी की बरबादी को रोकना बहुत आवश्यक है। जल संसाधन मंत्रालय द्वारा देश में सूखे से निपटने के लिए प्रथम जल-नीति का दस्तावेज 1987 में घोषित किया गया था। लेकिन स्थिति सुधरने की अपेक्षा निरंतर बिगड़ती चली गई।
बढ़ते हुए जल संकट से निपटने के लिए जल-नीति में परिवर्तन आवश्यकता है। इसके लिए बड़े-बड़े बांध बनाने की बजाए छोटे-छोटे बांध बनाए जाएं, जिससे पर्यावरण को कम क्षति पहुंचे। गांव-गांव में तालाब बना कर जलसंग्रह की नीति की आवश्यकता है। इन तालाबों में पानी के साथ-साथ मछली-पालन का भी काम हो सकता है, जिससे गांव के लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। कुओं, नलकूपों का जल स्तर भी बना रहेगा। सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध रहेगा।
सिंचाई के लिए बनाई गई नहरों में बहुत-सा पानी बेकार हो जाता है। इसके लिए किसानों के खेतों तक जो पानी छोटी-छीटी नालियों से होकर पहुंचाया जाता है उसे पक्की की जानी चाहिए या फिर सीमेंट के पाइपों का प्रयोग किया जाए, जिससे पानी का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग हो सके।
नगरों की जल-नीति में परिवर्तन की भी आवश्यकता है। शहर के गंदे नालों, गटरों के जल को किसी नदी में मिलने की अपेक्षा उसे शोधन करने के लिए शोधन संयंत्र हर शहर में स्थापित किए जाने चाहिए, जिससे शोधित जल को पुनःउपयोग में लिया जा सके, अर्थात इस जल से सिंचाई आदि की जाए। भूमिगत गटरों का निर्माण किया जाना चाहिए।
नदियों में शव, अध जल शव. राख आदि प्रवाहित करने से रोकने के लिए ग्राम-पंचायतों, नगर-पालिकाओं की मदद से स्थाई हल निकाला जाना चाहिए। आज भी गंगा, यमुना, नर्मदा आदि बड़ी-बड़ी नदियों में शव बहाए जाते हैं। जल की कमी के कारण ये शब बालू में ही पड़े रहते हैं, जिसे चील, कौए, कुत्ते आदि उन्हें नोचते रहते हैं और जो भी थोड़ा-बहुत जल नदी में है वह भी इसी प्रकार सड़ता रहता है। नदियों में पानी की वजह से या गंदे पानी कि वजह से ऐसे जलचर भी नहीं रहे, जो शवों को खाते थे।
उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल के संबंध में भी तेजी से सुधार की आवश्यकता है। जिन उद्योगों में जल का उपभोग होता है। उन्हें स्पष्ट रूप से जल शोधन के प्लांट लगाने का निर्देश दिया जाना चाहिए। वे कल-कारखानों का प्रदूषित जल नदियों में न जाने दें, लेकिन उसे शोधित करके पुनः उपयोग में लें अथवा सिंचाई आदि के कार्य में लगाए। नए उद्योग को इसी शर्त पर अनुमति दी जानी चाहिए कि वे जल शोधन संयंत्र लगाएंगे। पुराने उद्योंगों मे भी ऐसे संयंत्र तेजी से स्थापित करने पर जोर दिया जाए। इसका पालन न करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए।
पानी संग्रह करने में वन हमारी मदद करते हैं। पर्याप्त रूप से वर्षा हो, इसके लिए वनों के विकास में तेजी लाने की जरूरत है। वनों का विनाश अब भी तेजी से हो रहा है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को जन्म देकर विनाश कार्य जारी है। नर्मदा नदी पर बन रहा सरदार सरोवर बांध, उत्तर प्रदेश के टिहरी गढ़वाल में बन रहा बांध इसके उदाहरण हैं। वनों के विकास के लिए लोगों की समिति बना कर रोजगार भी दिया जा सकता है और आर्थिक-तकनीकी मदद से वनों का विकास भी हो सकता है। इस कार्य के लिए जनसहयोग की आवश्यकता है।
वायुमंडल के प्रदूषण को रोकने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय योजना के अंतर्गत, तेजी से सुधार की आवश्यकता है। हर दिन वायुमंडल में विलीन होती जहरीली गैस कार्बनडाई- आक्साइड आदि को रोकने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
कई विदेशी पक्षी हमारे यहां शरण लेते हैं। लेकिन उनकी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। इसका कारण यह है कि पर्यावरण प्रदूषण की वजह से यहां की नदियों में पर्याप्त जल नहीं रहा।
पानी की समस्या से निपटने के लिए भारत सरकार के केन्द्रीय जल आयोग ने हिमालय के हिमनदियों को कृत्रिम उपाय से पिघलाने की योजना बनाई थी। परन्तु इस योजना द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से वैज्ञानिकों को यह डर भी हुआ कि इससे कहीं विपरीत स्थिति न पैदा हो जाए।
उत्तर भारत में बाढ़ का प्रकोप हो सकता है। मैदानी क्षेत्रों में विनाश लीला हो सकती है। गर्मी के दिनों में वैसे भी बर्फ प्राकृतिक रूप से पिघलती है। उसे संग्रह करने की योजना बना कर कृत्रिम रूप से बर्फ पिघलाने की योजना की आवश्यकता नहीं रहेगी और न ही पर्यावरण को क्षति पहुंचेगी।
सन् 2000 तक देश को 11 करोड़ हैक्टेयर मीटर पानी का आवश्यकता होगी। 1989 में पटना से आई एक रिपोर्ट के अनुसार 10 लाख नागरिकों के लिए 58 लाख गैलन पानी रोज की आवश्यकता थी । किन्तु उन्हें मात्र 27 लाख गैलन पानी प्रतिदिन दिया जा रहा था। यह पानी भी लोक संख्या के अनुपात में, बराबरी के आधार पर नहीं दिया जा रहा था।
देश के नियंत्रक महालेखा परीक्षक के ताजे प्रतिवेदन में बीस सूत्री कार्यक्रम के तहत, सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान सभी गांवों में पीने के पानी का एक-रूप से मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन स्वीकृत बजट से 38 करोड़ 73 लाख ज्यादा खर्च होने के बाद भी यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। 1990 में मध्य प्रदेश के 45 जिलों में से 40 जिले पीने के पानी की समस्या से जूझ रहे हैं।
एशिया और अफ्रीका के कई देश पीने के पानी की विकराल समस्या से जूझ रहे हैं। पांच व्यक्ति में से हर तीसरा व्यक्ति प्यास से जूझ रहा है। तीसरी दुनिया में प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे 5 वर्ष की उम्र से पूर्व पानी की कमी अथवा दूषित पानी की वजह से मर जाते हैं। 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग हर दिन दूषित पानी का उपयोग कर रहे हैं। औद्योगिक क्रांति ने अमृत जल को विषैला जल बना दिया है। आज यह पानी सबसे बड़ा हत्यारा बन गया है। मलेरिया, पेचिश, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, चर्म रोग जैसी अनेक बीमारियां महामारी के रूप में होने लगी हैं। जिधर देखो उधर ही एक नया मरूस्थल बनता नजर आ रहा है।
भोजन बिना रह सकते हैं।
बिना भोजन के हम रह सकते हैं, लेकिन बिना जल के कुछ क्षण भी निकालना बहुत मुश्किल काम है। वर्तमान की कृषि नीति, जो आधुनिकता के नाम पर की जा रही है, उसे भी जल की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि यूरिया आदि रासायनिक खादों के लिए पानी का होना बहुत आवश्यक है। परंपरागत गोबर की खाद की उपयोगिता अब नहीं रही है। उद्योगों में भी जल उपयोग में लिया जाता है, वह स्वच्छ जल है, जबकि वह जल पीने के काम लाया जाना चाहिए था। संयुक्त राष्ट्र ने 1976 में, अपनी बैठक में एक विशेष प्रस्ताव पास करके 1990 तक सभी को स्वच्छ जल आपुर्ति की घोषणा की थी। 10 नवम्बर 1980 में न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतर्राष्ट्रीय पेयजल की आपुर्ति एवं सफाई दशक (1981-90) की घोषणा की थी। मगर यह महज घोषणा बनकर रह गई। सारा विश्व जल संकट से जूझ रहा है। बार-बार वैज्ञानिक चेतावनियों और प्रचार-प्रसार के बावजूद हम जल को बचाने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। बार-बार जल नितियां बनने के बाद भी करोड़ों रुपये पर पानी फिर गया। इसके बाद भी पानी नहीं मिला।
किसी समय अपने देश का मालवा प्रदेश सबसे ज्यादा हरा-भरा उपजाऊ वनों वाला प्रदेश होने का गौरव हासिल किए हुए था। लेकिन अब अंधाधुंध नलकूपों के खनन से जल का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। गुजरात और राजस्थान की तरह अब मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी जल संकट से जूझ रहा है।
पानी के संबंध में कोई भी बात कहना आसान है, बल्कि स्थिति को देखते हुए उसको बचाने में बहुत ज्यादा श्रम और शक्ति की आवश्यकता है। इस श्रमशक्ति के बिना हम पानी समस्या से नहीं निपट सकते। पानी की बरबादी को रोकना बहुत आवश्यक है। जल संसाधन मंत्रालय द्वारा देश में सूखे से निपटने के लिए प्रथम जल-नीति का दस्तावेज 1987 में घोषित किया गया था। लेकिन स्थिति सुधरने की अपेक्षा निरंतर बिगड़ती चली गई।
जल-नीति में परिवर्तन की आवश्यकता
बढ़ते हुए जल संकट से निपटने के लिए जल-नीति में परिवर्तन आवश्यकता है। इसके लिए बड़े-बड़े बांध बनाने की बजाए छोटे-छोटे बांध बनाए जाएं, जिससे पर्यावरण को कम क्षति पहुंचे। गांव-गांव में तालाब बना कर जलसंग्रह की नीति की आवश्यकता है। इन तालाबों में पानी के साथ-साथ मछली-पालन का भी काम हो सकता है, जिससे गांव के लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। कुओं, नलकूपों का जल स्तर भी बना रहेगा। सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध रहेगा।
सिंचाई के लिए बनाई गई नहरों में बहुत-सा पानी बेकार हो जाता है। इसके लिए किसानों के खेतों तक जो पानी छोटी-छीटी नालियों से होकर पहुंचाया जाता है उसे पक्की की जानी चाहिए या फिर सीमेंट के पाइपों का प्रयोग किया जाए, जिससे पानी का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग हो सके।
नगरों की जल-नीति में परिवर्तन की भी आवश्यकता है। शहर के गंदे नालों, गटरों के जल को किसी नदी में मिलने की अपेक्षा उसे शोधन करने के लिए शोधन संयंत्र हर शहर में स्थापित किए जाने चाहिए, जिससे शोधित जल को पुनःउपयोग में लिया जा सके, अर्थात इस जल से सिंचाई आदि की जाए। भूमिगत गटरों का निर्माण किया जाना चाहिए।
नदियों में शव, अध जल शव. राख आदि प्रवाहित करने से रोकने के लिए ग्राम-पंचायतों, नगर-पालिकाओं की मदद से स्थाई हल निकाला जाना चाहिए। आज भी गंगा, यमुना, नर्मदा आदि बड़ी-बड़ी नदियों में शव बहाए जाते हैं। जल की कमी के कारण ये शब बालू में ही पड़े रहते हैं, जिसे चील, कौए, कुत्ते आदि उन्हें नोचते रहते हैं और जो भी थोड़ा-बहुत जल नदी में है वह भी इसी प्रकार सड़ता रहता है। नदियों में पानी की वजह से या गंदे पानी कि वजह से ऐसे जलचर भी नहीं रहे, जो शवों को खाते थे।
उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल के संबंध में भी तेजी से सुधार की आवश्यकता है। जिन उद्योगों में जल का उपभोग होता है। उन्हें स्पष्ट रूप से जल शोधन के प्लांट लगाने का निर्देश दिया जाना चाहिए। वे कल-कारखानों का प्रदूषित जल नदियों में न जाने दें, लेकिन उसे शोधित करके पुनः उपयोग में लें अथवा सिंचाई आदि के कार्य में लगाए। नए उद्योग को इसी शर्त पर अनुमति दी जानी चाहिए कि वे जल शोधन संयंत्र लगाएंगे। पुराने उद्योंगों मे भी ऐसे संयंत्र तेजी से स्थापित करने पर जोर दिया जाए। इसका पालन न करने वालों को दंडित किया जाना चाहिए।
पानी संग्रह में वनों की मदद
पानी संग्रह करने में वन हमारी मदद करते हैं। पर्याप्त रूप से वर्षा हो, इसके लिए वनों के विकास में तेजी लाने की जरूरत है। वनों का विनाश अब भी तेजी से हो रहा है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को जन्म देकर विनाश कार्य जारी है। नर्मदा नदी पर बन रहा सरदार सरोवर बांध, उत्तर प्रदेश के टिहरी गढ़वाल में बन रहा बांध इसके उदाहरण हैं। वनों के विकास के लिए लोगों की समिति बना कर रोजगार भी दिया जा सकता है और आर्थिक-तकनीकी मदद से वनों का विकास भी हो सकता है। इस कार्य के लिए जनसहयोग की आवश्यकता है।
वायुमंडल के प्रदूषण को रोकने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय योजना के अंतर्गत, तेजी से सुधार की आवश्यकता है। हर दिन वायुमंडल में विलीन होती जहरीली गैस कार्बनडाई- आक्साइड आदि को रोकने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करके प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
कई विदेशी पक्षी हमारे यहां शरण लेते हैं। लेकिन उनकी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। इसका कारण यह है कि पर्यावरण प्रदूषण की वजह से यहां की नदियों में पर्याप्त जल नहीं रहा।
पानी की समस्या से निपटने के लिए भारत सरकार के केन्द्रीय जल आयोग ने हिमालय के हिमनदियों को कृत्रिम उपाय से पिघलाने की योजना बनाई थी। परन्तु इस योजना द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से वैज्ञानिकों को यह डर भी हुआ कि इससे कहीं विपरीत स्थिति न पैदा हो जाए।
उत्तर भारत में बाढ़ का प्रकोप हो सकता है। मैदानी क्षेत्रों में विनाश लीला हो सकती है। गर्मी के दिनों में वैसे भी बर्फ प्राकृतिक रूप से पिघलती है। उसे संग्रह करने की योजना बना कर कृत्रिम रूप से बर्फ पिघलाने की योजना की आवश्यकता नहीं रहेगी और न ही पर्यावरण को क्षति पहुंचेगी।
सन् 2000 तक देश को 11 करोड़ हैक्टेयर मीटर पानी का आवश्यकता होगी। 1989 में पटना से आई एक रिपोर्ट के अनुसार 10 लाख नागरिकों के लिए 58 लाख गैलन पानी रोज की आवश्यकता थी । किन्तु उन्हें मात्र 27 लाख गैलन पानी प्रतिदिन दिया जा रहा था। यह पानी भी लोक संख्या के अनुपात में, बराबरी के आधार पर नहीं दिया जा रहा था।
देश के नियंत्रक महालेखा परीक्षक के ताजे प्रतिवेदन में बीस सूत्री कार्यक्रम के तहत, सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान सभी गांवों में पीने के पानी का एक-रूप से मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन स्वीकृत बजट से 38 करोड़ 73 लाख ज्यादा खर्च होने के बाद भी यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। 1990 में मध्य प्रदेश के 45 जिलों में से 40 जिले पीने के पानी की समस्या से जूझ रहे हैं।
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