सबकी राय का सम्मान और साझेदारी का ऐलान

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन की पर्यावरणीय प्रबंधन योजना बनाने वालों के दिमाग में एक बात तो साफ है कि जरूरत क्या है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि वाकई होना क्या चाहिए। उन्हें यह भी मालूम है कि तकनीक, पैसा, सामाजिक सहयोग, न्यायपालिका, नगरपालिका और शासकीय तंत्र के एकजुट हुए बगैर गंगा बेसिन की पर्यावरण प्रबंधन योजना का सफल क्रियान्वयन संभव नहीं होगा। इन सभी का सहयोग चाहिए, तो योजना निर्माण के शुरुआती स्तर से ही इनकी भागीदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए।

सभी की साझेदारी


इसी उद्देश्य से बीते 3 से 5 दिसंबर को नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में आईआईटी, कानपुर ने त्रिदिवसीय ‘इंडिया वाटर इम्पैक्ट समिट’ का आयोजन किया था। उद्घाटन मौके पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, फिनलैंड के राजदूत पेक्का वैटिलनेईनन, इंग्लैंड की कंपनी इटीआई डॉ.यनॉमिक्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सनमित आहूजा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और गंगा सेवा अभियानम् के प्रमुख स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के अलावा कानपुर आईआईटी गवर्नर्स बोर्ड के चेयरमैन प्रो एम. आनंदकृष्णन तथा आई आई टी, दिल्ली के उपनिदेशक डॉ एस एन सिंह को बैठाकर आयोजकों ने यही संदेश देने की कोशिश भी की। इस समिट की आयोजक आईआईटी, कानपुर गंगा मैनेजमेंट प्लान के योजनाकारों की संयोजक भी है। इससे पहले भी योजनाकार खुद पहल कर मछुआरों, किसानों, तीर्थ पुरोहितों, धर्माचार्यों से लेकर स्वयंसेवी संगठनों, कानूनविदों की राय लेते रहे हैं। उन्हें योजना के बारे में बताते रहे हैं।

सभी की राय का सम्मान


उद्घाटन सत्र में भारत में गंगा व अन्य जलसंरचनाओं की स्थिति व चुनौतियों को सामने रखते हुए डॉ. विनोद तारे ने जो तथ्य सामने रखे, उनका संकेत भी यही था इसीलिए सभी की राय को सम्मान देते हुए उन्होंने ऐसे कई महत्वपूर्ण नीतिगत मसलों को न सिर्फ चर्चा में शामिल किया, बल्कि उनसे सहमति भी जताई, जिनकी मांग लंबे समय विभिन्न जनमंचों पर उठाई जाती रही है। जीरो डिस्चार्ज, प्रकृति और विकास दोनों की जरूरत के मुताबिक पानी की उपलब्धता, नदियों की जीवंत प्रणाली को छेड़े बगैर पनबिजली निर्माण, नदी सुरक्षा के लिए कानून, उद्योग, व्यावसायिक तथा बागवानी प्रयोग के लिए जलापूर्ति की लागत के बराबर वसूली, उपयोगी नवाचारों को मान्यता और जननिगरानी। बांटा गया दस्तावेज इसी का सबूत है। अहम् बात यह है कि गंगा पर्यावरणीय प्रबंधन की योजना बनाने वालों ने माना भी और इसे पहली बार सार्वजनिक चर्चा के बिंदुओं में शामिल भी किया कि बेसिन की सभी जलसंरचनाओं के प्रबंधन की योजना बनाये बगैर ‘अविरल गंगा-निर्मल गंगा’ का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।

योजना को चाहिए नवाचार, वस्तुस्थिति रिपोर्ट, नीति, कानून व जननिगरानी


राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन पर्यावरणीय प्रबंधन योजना-2020 को तैयार करने वाली देश की जानी-मानी आईआईटी टीमों के संयोजन की जिम्मेदारी कानपुर आईआईटी के डॉ. विनोद तारे पर है। सभी की राय का सम्मान करने का निर्णय खासतौर पर डॉ. तारे के निजी सोच व प्रयासों का परिणाम है। योजना सरकार को स्वीकार्य होगी-नहीं होगी, लागू होगी-नहीं होगी... यह बाद का विषय है; यदि इस सम्मेलन को सच मानें, तो योजनाकारों ने खुले दिमाग का परिचय दिया है।

डॉ. तारे ने माना कि गंगा योजना से पहले वह नीति दस्तावेज चाहिए, जिसके आधार पर योजना को अंतिम रूप दिया जाये। वे इससे भी सहमत दिखे कि योजना का सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए कानूनों की जरूरत होगी। सामाजिक-आर्थिक-वैज्ञानिक-प्रशासनिक पहलुओं के साथ न्याय करने के लिए नवाचारों की जरूरत होगी। इस दिशा में मौजूदा सफल उदाहरणों से सीखने के साथ-साथ शोध पर जोर देने का विचार भी सामने आया।

लेकिन ये सभी तभी संभव है, जब हम अपने देश में जलसंरचनाओं के बारे में ताजा वस्तुस्थिति का ठीक से पता हो। जब तक यह संभव न हो, तब तक हम सर्वश्रेष्ठ जल प्रबंधन नहीं कर सकते। वस्तुस्थिति यह है कि भारत के सरकारी अमले के पास इसकी एक जगह, ताजा और समग्र जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है, जो कुछ जानकारी है, उसे हासिल करना सहज नहीं है। डॉ. तारे ने बताया कि सरकार की योजना के लिए सरकार के ही जलमंत्रालय से जानकारी लेने में उन्हें कई साल लग गये। अतः इस दिशा में पूरी ईमानदारी व सक्षमता के साथ काम करने की जरूरत है।

उन्होंने योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए व्यापक व विकेन्द्रित जननिगरानी को उपयोगी मान योजना में शामिल किया है। यह सच है कि जननिगरानी के जरिए मिली हकदारी जनजिम्मेदारी व भागीदारी सुनिश्चित करने का मार्ग स्वतः प्रशस्त कर देगी। यदि सरकार इस दिशा में निर्णायक कदम उठाती है, तो यह गंगा व देश.. दोनों के लिए शुभ संकेत होगा।

नदी के नैचुरल पर्सन का दर्जे की मांग से योजनाकारों ने जताई सहमति


नदी पूर्णतया प्राकृतिक एवम् संपूर्ण जीवंत प्रणाली है। इसे ’नैचुरल पर्सन’ के दर्जे की मांग हाल ही में जलबिरादरी के एक सम्मेलन में उठाई गई थी। इसे आधार बनाकर मैंने एक लेख भी लिखा था। डॉ. तारे ने इससे सहमति जताते हुए माना कि नदियों के अधिकार व उनके साथ हमारे व्यवहार की मर्यादा इसी दर्जे से हासिल की जा सकती है। उन्होंने कहा कि देश को विकास भी चाहिए और पानी भी। पानी के बगैर आर्थिक विकास का लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं। प्राकृतिक संसाधनों के बगैर किसी भी राष्ट्र का सतत-स्वावलंबी आर्थिक विकास संभव नहीं। अतः सुनिश्चित करना होगा कि नदी प्रणाली को छेड़े बगैर... उसे नुकसान पहुंचाये बगैर पनबिजली निर्माण हो। इसके लिए क्या उचित व मान्य तकनीक हो सकती है? इस पर काम करने की जरूरत है।

‘जीरो डिस्चार्ज’ बना योजना का लक्ष्य


“उद्योगों, होटलों.. ऐसे अन्य व्यावसायिक उपक्रमों व रिहायिशी क्षेत्रों से निकलने वाले शोधित-अशोधित मल-अवजल को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष...किसी भी रूप में गंगा जी और गंगाजी की सहायक धाराओं और प्राकृतिक नालों में डॉ.लना पूरी तरह प्रतिबंधित हो।’’ यह मांग पहली बार गंगा ज्ञान आयोग अनुशंसा रिपोर्ट-2008 के जरिए सरकार के सामने रखी गई थी। डॉ. एम. आनंदकृष्णन, प्रो जी डी अग्रवाल, डॉ. राशिद हयात सिदिद्की, डॉ. आर सी त्रिवेदी, परितोष त्यागी, रवि चोपड़ा व कमलजीत सिंह जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक व तकनीकी विशेषज्ञ इसके सदस्य थे; पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह इसके संयोजक। नई दिल्ली के नेहरु तारामंडल परिसर में आयोजित एक सम्मेलन में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद द्वारा इस मांग के लिए दिए सहज शब्दों ने ख्याति पाई- “रिवर को सीवर अलग रखें।’’ गंगा संरक्षण के काम से जुड़े अधिकारी व तकनीकी लोग इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाते रहे। सुखद है कि डॉ. तारे ने कहा कि योजना का लक्ष्य यही होना चाहिए। ‘जीरो डिस्चार्ज’ का यही मतलब है। यानी रिवर को सीवर से अलग रखना व्यावहारिक है तथा इसके बगैर प्रदूषण मुक्ति भी संभव नहीं है। हालांकि प्रस्तावित लक्ष्य को औद्योगिक अवजल के अलावा एक लाख से अधिक आबादी वाले यानी ए-श्रेणी शहरों के सीवेज तक सीमित रखा गया है; बावजूद इसके ‘जीरो डिस्चार्ज’ को लक्ष्य बनाना एक सकरात्मक संकेत है।

औद्योगिक प्रदूषण मात्रा में सबसे कम होने के बावजूद सबसे ज्यादा खतरनाक है। योजनाकारों की दिलचस्पी औद्योगिक... खासकर चमड़ा, कपड़ा, चीनी, डिस्टलरी, रेशा व कागज उद्योगों के प्रदूषण नियंत्रण के समक्ष पेश चुनौतियों को समझकर व उनके अनुरूप आर्थिक व तकनीकी समाधान के रास्ते तलाशने में भी है। यह सही है कि इसी से रास्ता निकलेगा। संबंधित सवाल है, तो सिर्फ यही कि ‘जीरो डिस्चार्ज’ लक्ष्य प्राप्ति की अवधि 25 से 30 साल रखी गई है और अनुमानित खर्च - 100 बिलियन डॉलर यानी पांच लाख करोड़ रुपए। इसके तौर-तरीके, व्यावहारिकता व संभावित दुष्प्रभावों की अभी से जांच जरूरी होगी।

वैज्ञानिक सिंचाई व जैविक कृषि भी है योजना का हिस्सा


अवैज्ञानिक सिंचाई पानी की खपत बढ़ाती है। इसे अनुशासित कर हम नदी प्रवाह को बनाये रखने वाला बहुत सारा भूजल तथा नहरों के जरिए पहुंचा सतही जल बचाया जा सकता है। रासायानिक उर्वरकों का प्रयोग प्रदूषण व पानी का खपत दोनों बढ़ाता है। कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग तो जहर बांटने का काम है ही। इन दोनों समस्याओं से निजात पाने के लिए इसके फसल चक्र में बदलाव करना होगा। मिश्रित खेती को प्राथमिकता देनी होगी। सिक्किम ने जैविक कृषि राज्य बनने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। पूरे भारत की कृषि को ही जैविक कृषि की ओर मोड़ना होगा; तभी हम, हमारा खान-पान-स्वास्थ्य, हमारी मिट्टी-पानी-नदियां.. यानी पूरी कुदरत रासायनिक उर्वरकों के जहर से बच सकती है।

योजनाकार इस बात से सहमत दिखते हैं। लेकिन सरकार का व्यवहार विरोधाभासी है। सरकारों के कृषि विभाग एक ओर जैविक खेती व बागवानी के लिए कार्यक्रम चलाते हैं, तो दूसरी ओर उन्नत बीज, उर्वरक व कीटनाशकों का प्रचार करते हैं। यही विरोधाभासी काम सरकार देश में यूरिया उत्पादन बढ़ाने के लिए उत्पादकों को प्रोत्साहन देती है। सौमित्र कमेटी की रिपोर्ट पर उठे कदम यही बताते हैं।

प्रकृति को फ्रेश वाटर, विकास को वेस्ट


वे इस बात से पूरी तरह इत्तफाक रखते हैं कि ताजा पानी प्रकृति के लिए हो और उद्योग, ऊर्जा, कृषि, निर्माण जैसी विकास की आवश्यकताओं के लिए ‘वेस्ट वाटर’ यानी अवजल का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए जरूरी तकनीक, कार्यक्षमता तथा संकल्प का कोई विकल्प नहीं है। इस दिशा में आगे बढ़ना ही होगा। विकास के कामों के लिए ताजे जल में क्रमबद्ध कटौती कर यह किया जा सकता है। जैसे-जैसे नहरी जल में कटौती शुरू होगी, वैसे-वैसे आसपास मौजूद सतही जलसंरचनाओं व भूजल की समृद्धि सुनिश्चित करने की मजबूरी बढ़ेगी। सरकार को बस! यह सुनिश्चित करना होगा कि इस मजबूरी का फायदा बाजार को देने की बजाय स्थानीय समुदाय को जलप्रबंधन में जिम्मेदार भूमिका में लाने के लिए सरकार प्रोत्साहक व सहयोगी की भूमिका निभाये। यही स्थिति व नजरिया उद्योग, निर्माण व विकास के दूसरे क्षेत्रों के साथ भी रखना होगा। नीतिगत तौर पर यह तय करने व व्यावहारिक तौर पर यह लागू करने से ही मल व अवजल का शोधन तथा पुर्नउपयोग सुनिश्चित होगा।

उक्त नीतिगत उपायों को ‘नेशनल गंगा रिवर बेसिन एन्वायरन्मेंट मैनेजमेंट प्लान’ में जगह देकर आईआईटी संस्थानों ने नायाब पहल की है। इसकी सराहना होनी ही चाहिए। लेकिन योजना लक्ष्य से भटके नहीं; इसमें शामिल सकरात्मक बिंदुओं को सरकार लागू करे; कंपनियां वाजिब मुनाफा तो कमायें, लेकिन लूटकर न ले जाने पायें; जन-जन को इसके लिए जागते रहना होगा।

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