सब कुछ लौटा रहा है समुद्र

समुद्र
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पास हो कि हो दूर, सदियों से एक रिश्ता रहा है समुद्र और जिन्दगी का। पर्यावरण वैज्ञानिक कहते हैं, यह रिश्ता अपनी रागात्मकता खो चुका है। समुद्र को दुनिया का सबसे बड़ा कूड़ा-दान समझकर हमने जो कुछ भी फेंका और बहाया है, वह सब उसके बही-खाते में दर्ज है और कभी हवा तो कभी बारिश के सहारे बेहद बारीक कणों और रूपों में हमारे पास वापस आ रहा है।

हमारा जीवन चक्र समुद्र से जुड़ा हुआ है। अगर आज हम समुद्र को संरक्षित नहीं करेंगे, तो कल उसके दुष्परिणाम हमें ही भुगतने होंगे। हमारे जीवन और खेतों के लिये पानी बहुत जरूरी है। यह हम सब जानते हैं। जब यह पानी बारिश के रूप में आता है, तो हम सीधे समुद्र से जुड़ जाते हैं। क्योंकि बारिश सीधे रूप से समुद्र से प्रभावित होती है। हम लोग इस बात को समझ नहीं पाते कि जंगल और समुद्र का इतना जुड़ाव है कि समुद्र के वातावरण में किसी भी प्रकार का असन्तुलन हमारे जंगलों को भी खत्म कर देगा। प्रदूषित समुद्र बारिश के रूप में हमें भारी नुकसान पहुँचा सकता है। हम कितना स्वच्छ पानी फैक्टरी में तैयार कर पाएँगे? पानी का मुख्य स्रोत तो बारिश ही है न?

हम जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं, लेकिन इस बात को भूल जाते हैं कि कार्बन पृथक्करण सबसे ज्यादा समुद्र में होता है, जंगल में नहीं, हम पेड़ लगाने की बात करते हैं। हवा के लिये यह जरूरी है, लेकिन सबसे ज्यादा अॉक्सीजन का उत्पादन तो समुद्र में होता है। हमने किताबों में इतना ही पढ़ा कि पेड़ लगाओ, पेड़ आपको अॉक्सीजन देता है। हमें कभी स्कूल में यह नहीं सिखाया गया कि आपको पेड़ की तुलना में समुद्र से ज्यादा अॉक्सीजन प्राप्त होती है और यह अॉक्सीजन हमें तभी प्राप्त होती रहेगी जब हम उसे साफ और स्वच्छ रखेंगे, उसमें अम्लीयता नहीं बढ़ने देंगे। इसलिये समुद्र के प्रदूषित होने के कई हानिकारक परिणाम हैं। बिना समुद्र के पृथ्वी पर कोई जीवन नहीं रहेगा।

हम जो पानी पी रहे हैं, उसमें बारीक कचरे घुले-मिले हैं और हमारे घरों, मोहल्लों और शहरों से जो पानी नालियों से नदियों तक और फिर समुद्र तक जा रहा है, उसके परिणाम की आशंका से यह दुनिया सिहरने लगी है। इसके लिये हम सीधे सरकार को दोष नहीं दे सकते। हमारी भी कुछ जिम्मेदारियाँ है।

पिछले वर्ष अगस्त माह में भारत के तमिलनाडु राज्य के पम्बन साउथ तट के किनारे 18 फुट लम्बा व्हेल शार्क मरी हुई मिली थी। जब उसका शव परिक्षण किया गया, तो वन्यजीव अधिकारियों को उसके पाचनतंत्र में प्लास्टिक की चम्मच फँसी हुई मिली थी। अधिकारियों का कहना था कि समुद्र में कुछ खाते हुए यह प्लास्टिक की चम्मच व्हेल शार्क के शरीर में चला गया होगा।

2018 की शुरुआत में ग्रीन पीस की एक पोत ने अंटार्कटिक महाद्वीप से पानी के 17 नमूने लिये थे, जिनमें से नौ में छोटे-छोटे प्लास्टिक के टुकड़े पाये गये थे। ओखी तूफान के कारण महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, गोवा और गुजरात जैसे राज्यों के समुद्र तटीय इलाकों में प्लास्टिक के मलबों के ढेर एकत्र हुए हैं।

समुद्र में प्लास्टिक पहुँचने का प्रमुख कारण शहर के नदी-नालों के कचरे का सीधे समुद्र में मिल जाना है। प्रत्येक वर्ष 13 मिलियन टन प्लास्टिक समुद्र में जाता है। एक अध्ययन में पाया गया था कि 20 नदियाँ (ज्यादातर एशिया की) दुनिया का दो तिहाई प्लास्टिक अपशिष्ट समुद्र में ले जाती हैं। इसमें गंगा नदी भी है। अगर प्लास्टिक प्रदूषण का समुद्री पर्यावरण में होने वाले आर्थिक प्रभाव देखे जाएँ तो पर्यटन को हुए नुकसान और समुद्र तटों की साफ-सफाई पर खर्च का अनुमान प्रत्येक वर्ष 13 बिलियन डॉलर लगाया गया है। समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने में माइक्रोप्लास्टिक का बड़ा योगदान है।

2004 में पर्यावरण विज्ञानी रिचर्ड थॉम्पसन ने माइक्रोप्लास्टिक शब्द का उपयोग किया था। ‘यूनिवर्सिटी अॉफ प्लीमोथ’ के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया था कि समुद्री जीव किराने का सामान रखने वाले एक प्लास्टिक बैग के 10 लाख माइक्रोस्कोपिक टुकड़े कर सकते हैं और जब यह माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े समुद्र में पाये जाने वाले जीवों के आहार का हिस्सा बनते हैं, तो यह उनकी मौत का कारण बनते हैं। समुद्री वैज्ञानिकों ने इसके लिये यूरोप के उत्तरी और पश्चिमी समुद्र तटों में एम्पीपोड ओर्चस्टिया द्वारा बैग के किये गये टुकड़ों का अध्ययन किया था।

भारत समेत 14 देशों के पीने के पानी पर किये गये विश्लेषण में पाया गया कि 83 प्रतिशत पीने के पानी में माइक्रोप्लास्टिक शामिल है। माइक्रोप्लास्टिक की समस्या के बारे में अभी जागरुकता बहुत कम है। वैज्ञानिक अभी इसको जानने की कोशिश कर रहे हैं। माइक्रोप्लास्टिक को हम आँखों से देख नहीं सकते। इसलिए इसकी पहचान कर पाना मुश्किल है। यह पानी में भी हो सकती है और हमें इसके बारे में पता भी नहीं चलेगा। माइक्रोप्लास्टिक का उपयोग आज हर जगह हो रहा है, चाहे वह कॉस्मेटिक के सामान हों या दवाइयाँ। प्लास्टिक को लेकर कई तरह के प्रतिबन्ध तो अपने देश में भी हैं, लेकिन असरकारी नहीं।

विश्व में प्रत्येक मिनट में एक मिलियन प्लास्टिक बैग और एक मिलियन प्लास्टिक की बोतल का उपयोग होता है। इसमें से 50 प्रतिशत प्लास्टिक का उपयोग सिंगल यूज के रूप में होता है और यह सम्पूर्ण प्लास्टिक अपशिष्ट का 10 प्रतिशत है। माना जाता है कि सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग पिछले 10-15 सालों से काफी बढ़ा है। 2016 में किये गये एक अध्ययन में पाया गया था कि 2050 तक हमारे समुद्रों में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होंगे। कुल मिलाकर प्रकृति की ओर से हमें चेतावनी मिलनी शुरू हो गई है। समुद्र को दुनिया का सबसे बड़ा कूड़ादान समझकर हमने जो कुछ भी उसमें फेंका और बहाया है, बारिश हवा या अन्य माध्यमों के सहारे वह सब बेहद बारीक कणों और रूपों में हम तक वापस पहुँच रहा है।

क्या-क्या नहीं बहाया

बड़े शहरों और महानगरों की तुलना में देश के कुछ छोटे शहर जैसे कि महाराष्ट्र का वेंगुर्ला, केरल का आलप्पुजा और मध्यम आकार के शहर जैसे कि तिरुवनन्तपुरम कचरे का बेहतर प्रबन्धन कर रहे हैं। दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का कचरा प्रबन्धन में प्रदर्शन बहुत खराब है। दस लाख या उससे अधिक लोगों की आबादी वाले शहर, जैसे इंदौर और मैसूर का प्रदर्शन बेहतर रहा है। जानकारों की राय में 90 फीसदी से अधिक भारत के पास उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली मौजूद नहीं है।

अपशिष्ट प्रबन्धन शहरी भारत की सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि यहाँ सालाना 62 मिलियन टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है। 2016 के पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय शहरों में केवल 75-80 फीसदी कचरा नगर निगम निकायों द्वारा एकत्रित किया जाता है।

देश भर मे प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले ठोस कचरे का केवल 24 फीसदी संसाधित किया जाता है। गुरुग्राम के वर्ष में उत्पन्न होने वाले गीले और सूखे अपशिष्ट का 33 फीसदी से कम संसाधित करता है। रिपोर्ट कहती है कि एनसीआर जैसे बड़े क्षेत्रों में, जमा असंसाधित कचरा भूमिगत पानी को प्रदूषित कर रहा है। शहर की सफाई पर केन्द्र सरकार द्वारा वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश शहरों में अपशिष्ट प्रसंस्करण और निपटान के लिये उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं।

वे कचरा इकट्ठा करना जारी रखते हैं और फिर वह या तो भूमिगत जलस्रोत को खराब करता है या फिर नालियों के सहारे नदियों तक और फिर समुद्र तक पहुँच जाता है। समुद्र मे जो प्लास्टिक पहुँचता है, उसे उसमें रहने वाले जीव-जन्तु खाते हैं, जिससे उनकी मृत्यु होती है। व्हेल, कछुए और डॉल्फिन आदि की इससे मृत्यु हो रही है। यहाँ तक की पक्षी भी प्लास्टिक कचरे के कारण मर रहे हैं। हमें लगता है कि हम उन कचरों से सीधे नहीं जुड़े हैं। हकीकत यह है कि सीधे तौर पर उनसे जुड़े हैं और हमने जो नालियों में बहाया है, उसमें अब जिन्दगियाँ डूब रही हैं।

जहरों से कहीं भी निजात नहीं

शहर के सीवर में केवल शरीर से निकला मल-मूत्र और साबुन-तेल ही नहीं आता इसमें कई तरह की दूसरी अशुद्धियाँ भी मिली होती हैं। कई कारखाने तरह-तरह के बनावटी रसायनों और जहरों का निस्तारण नगर निगम के सीवर में करते हैं, क्योंकि इन्हें साफ करने का खर्चा उनके मुनाफे को काटता है। वैसे तो इसे रोकने के लिये कानून हैं, पर इनका उल्लघंन करने वालों को पकड़ने में सरकार की रुचि नहीं होती, क्योंकि ऐसा करना उद्योग के विकास में अड़चन करार दिया जाता है। इसलिये कारखाने मनमर्जी से जहरीले रसायन नालियों में या भू-जल में छोड़ देते हैं।

हमारा पर्यावरण इतना दूषित हो चुका है कि इन जहरों से कहीं भी निजात नहीं है। कारखाने ही क्यों, हमारे घर, स्कूल और अस्पताल भी कई तरह के बनावटी रसायनों से अटे हुए हैं। इनमें कीटनाशक और दवाइयाँ तो आती ही हैं, इनमें बड़ा खतरा होता है ऐसी धातुओं से जो एकदम सूक्ष्म मात्रा में भी भारी नुकसान पहुँचाती हैं। इन्हें अंग्रेजी में ‘हैवी मेटल’ कहते हैं। इनमें संखिया, पारा और सीसा जैसे तत्व आते हैं। इनका इस्तेमाल कई तरह के कारखानों में होता है, लेकिन इनके निस्तारण के सुरक्षित तरीके हमारे देश में अपनाये ही नहीं जाते। इन जहरीले पदार्थों के परिणाम एकदम से सामने नहीं आते बल्कि धीरे-धीरे कई सालों के बाद उजागर होते हैं। इसलिये इनके खतरों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। -सोपान जोशी पर्यावरण विशेषज्ञ किताब जल थल मल से।

 

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