बीते 20 सालों में पहले गंगा एक्शन प्लान और अब गंगा क्लीन प्लान के नाम से 4 हजार करोड़ से अधिक खर्च किया जा चुका है। इतना ही नहीं, गंगा को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ ही गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन भी गंगा की बेहतरी के लिए किया है। जबकि यमुना के लिए ऐसी कोई योजना अब तक न तो केंद्र सरकार ने बनाई है और न ही राज्य सरकार इस ओर ध्यान दे रही है लेकिन उपयोग की बात हो तो सरकारें यमुना का भरपूर उपयोग कर रही हैं।
भारत में नदियों का जिक्र आए तो गंगा के साथ यमुना की बात जरूर होती है। यमुना भारत में गंगा के बाद सबसे अधिक पवित्र समझी जाने वाली नदी होने के साथ ही देश की छह प्रतिशत आबादी को पीने और सींचने का पानी उपलब्ध कराती है लेकिन जब यमुना के संरक्षण की बात हो तो उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। गंगा की इस छोटी बहन के साथ हो रहे इस व्यवहार के कारण इसकी स्थिति गंगा के मुकाबले कहीं अधिक खराब हो रही है। दरअसल, नदियों के संरक्षण का सवाल हमेशा गंगा के चारों ओर ही घूमता है, भले ही उससे गंगा को कुछ फायदा होता नजर न आ रहा हो। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली से होकर गुजरने वाली यमुना 1,376 किलोमीटर लंबी है। इलाहाबाद में पवित्र यमुना का गंगा के साथ संगम हो जाता है। गंगा के साथ एकमेक हो जाने का ही नतीजा है कि जब भारत की विभिन्न संस्कृतियों की एकता की बात होती है तो उसे गंगा-यमुनी तहजीब की संज्ञा देते हैं। गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र को आज भी देश का सबसे ऊपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। दस हजार क्यूसिक बिलियन मीटर प्रतिवर्ष की बहाव क्षमता वाली यमुना का 4,400 बिलियन मीटर पानी प्रतिवर्ष सिंचाई और पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता है।इस उपयोग का 96 प्रतिशत से अधिक चार राज्यों में सिंचाई के काम आता है। यहां तक कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए तो यमुना किसी वरदान से कम नहीं है। दिल्ली में उपयोग होने वाले 70 प्रतिशत से अधिक पेयजल की पूर्ति यमुना से ही होती है। फिर इस पवित्र नदी का धार्मिक महत्व भी गंगा से कम नहीं है। हिंदू धर्म के चार धामों में से एक यमुनोत्री यमुना के उद्गम स्थान के निकट इसी नदी के किनारे है। यमुना हिमालय के बंदरपूंछ शिखर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित बंदरपूंछ ग्लेश्यिर से निकलती है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले से निकलकर देहरादून होते हुए यमुना हरियाणा में प्रवेश करती है। टौंस, रूपिन, सुपिन जैसी नदियां यमुना की सहायक नदियां हैं। धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक लिहाज से इतनी महत्वपूर्ण नदी होने के बावजूद यमुना को लेकर अध्ययन व संरक्षण की कोई खास मुहिम अब तक शुरू नहीं हो पाई है। नदियों के संरक्षण का सवाल हमेशा गंगा के चारों ओर ही घूमता है। गंगा के लिए क्लीन गंगा, गंगा एक्शन जैसी बड़ी योजनाएं चलाई गई हैं लेकिन यमुना के संरक्षण की ओर सरकारों का ध्यान बहुत कम गया है। ऐसे में यमुना अपने उद्गम से लेकर तमाम रास्तों में अनेक कष्ट उठा रही है। दिल्ली में इसकी गति किसी गंदे नाले से भी बदतर है।
पर्यावरण एवं नदियों के संरक्षण को लेकर काम कर रहे अनेक अभियानों और संगठनों द्वारा मिलकर की गई सर्वोदय यात्रा 2011 में पाया गया कि यमुना नदी में अकेले उत्तराखंड में ही 35 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित, निर्माणाधीन या कार्यरत है। इनमें से देहरादून में 9, उत्तरकाशी में 20, टिहरी गढ़वाल में 6 परियोजनाएं हैं। उत्तराखंड में यमुना में बनी सबसे बड़ी परियोजना लखवाड़ व्यासी 420 मेगावाट की विशाल विद्युत परियोजना है। इस यात्रा में शामिल उत्तराखंड सर्वोदय मंडल, रक्षा सूत्र आंदोलन, नदी बचाओ अभियान आदि संगठनों के अध्ययन से पता चला है कि इन जल विद्युत परियोनजाओं के बनने से प्राकृतिक संसाधनों पर शोषणकारी दबाव तेजी से बढ़ गया है।
उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष सुरेश भाई ने कहा कि बुनियादी बात यह है कि पहले तो हिमालय क्षेत्र के लिए अलग से सही विकास नीति बनाने की जरूरत है। उत्तराखंड में इस समय 558 जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन या कार्यरत हैं। साफ है कि सरकारों की योजना पहाड़ों को खोखला करने वाली है। सर्वोदय यात्रा 2011 में शामिल रहे भुवन पाठक ने कहा कि यमुना सहित पूरे उत्तराखंड में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं के मामले में सरकार प्रदेश के निवासियों के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है। नदीघाटियां ठेकेदारों और कंपनियों के हवाले कर सदियों से पहाड़ों में बसे लोग वहां से खदेड़े जा रहे हैं। अकेले यमुना में बन व चल रही 35 से अधिक जल विद्युत परियोजनाओं के मामले में जिस तरह स्थानीय निवासियों के संसाधन कब्जे में किए जाने का काम हुआ है, वह भयावह स्थिति का सहज बयान है।
यमुना नदी में एक के बाद एक प्रस्तावित हो रही व बन रही जलविद्युत परियोजनाओं ने इस नदी की सूरत बिगाड़ने के साथ ही इस नदी से जुड़े स्थानीय समुदाय के लिए भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। यमुना नदी में उत्तराखंड जल विद्युत निगम द्वारा देहरादून जिले के ढाकपत्थर में लखवाड़ व्यासी परियोजना का निर्माण कराया जा रहा है। 420 मेगावाट की दो रन ऑफ द रीवर परियोजनाएं बनाई गईं लेकिन कार्यदायी संस्था ने एक जनसुनवाई कर क्षेत्र के लोगों की बात सुनने तक की जरूरत नहीं समझी। वर्ष 1986-87 से शुरू हुई परियोजना में 1992-93 तक 35 प्रतिशत काम तो पूरा कर लिया गया लेकिन कोई जनसुनवाई नहीं हुई। इस परियोजना को पहले उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग बना रहा था लेकिन राज्य गठन के बाद यह काम उत्तराखंड जलविद्युत निगम लिमिटेड के हवाले कर दिया गया पर राज्य की होने के बावजूद निर्माण में जुटी संस्था ने परियोजना की जद में आ रहे लोगों के दुख-दर्द की चिंता नहीं की। लगभग दो दशक बीत गए पर परियोजना अभी तक पूरी नहीं हो पाई है।
लखवाड़ परियोजना के अंतर्गत टिहरी जिले के 22 और देहरादून जिले के 10 गांव प्रभावितों की सूची में हैं। इन 32 गांवों के 6,716 लोगों से अनुसूचित जाति के 98, अनुसूचित जनजाति के 148 व अन्य पिछड़ा वर्ग के 379 सहित सामान्य वर्ग के केवल 30 परिवार बनते हैं जिन्हें इस परियोजना से बुरी तरह प्रभावित होना पड़ा है। व्यासी परियोजना ने 6 गांवों के कुल 137 परिवारों को प्रभावित किया है जिनमें अनुसूचित जाति के 18, अनुसूचित जनजाति के 116 व अन्य पिछड़ा वर्ग के एक परिवार सहित सामान्य वर्ग के दो परिवार शामिल हैं । जनसुनवाई न होने का एक कारण यह भी है कि इस परियोजना से प्रभावित होने वाले सबसे अधिक लोग अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग समूह के लोग हैं। सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक लखवाड़ परियोजना में भूमि अधिग्रहण के तहत अब भी 14,16,45,020 रुपए का मुआवजा दिया जाना बाकी है। सरकारी एजेंसी उत्तराखंड जलविद्युत निगम लिमिटेड ने हजारों लोगों के जीवनयापन एवं निवास को बुरी तरह प्रभावित करने वाली परियोजनाओं की जनसुनवाई तक नहीं की।
यमुना घाटी में बन रही अन्य परियोजनाओं नेटवाड़ मोरी, जखोल सांकरी परियोजनाओं के मामले भी इसी प्रकार की जानकारी सामने आ रही है। टौंस नदी पर प्रस्तावित नेटवाड़ मोरी परियोजना में उत्तरकाशी जिले के बैनोल, मेटवाड़, गेचवाड़ गांव प्रभावित हो रहे हैं। इन गांवों के काश्तकारों की सात हेक्टेयर निजी और 32 हेक्टेयर वन भूमि परियोजना की भेंट चढ़ रही है जबकि उत्तरकाशी जिले में बन रही दूसरी परियोजना जखोल सांकरी जो कि सुपिन नदी में बन रही से 33 हेक्टेयर भूमि प्रभावित हो रही है। सूचना के अधिकार के तहत सतलुज जलविद्युत निगम द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी में कहा गया है कि इन परियोजनाओं को लेकर अभी तक कोई जनसुनवाई नहीं हो पाई है।
यमुना सहित प्रदेश की अनेक नदियों में बन रहे बांधों को लेकर नदी बचाओ आंदोलन ने फरवरी 2009 में प्रदेश के सभी विधायकों को खुला पत्र जारी कर नदियों के संकट को विधानसभा तक पहुंचाने के लिए देहरादून में खुली बैठक में आने का निवेदन किया लेकिन पर्यावरण और बांधों के सवाल पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले उत्तराखंड के विधायकों में से केवल एक विधायक यमुनोत्री के केदारसिंह रावत ही इस बैठक में पहुंचे। इससे इस मुद्दे पर उत्तराखंड में राजनेताओं की जागरूकता की स्थिति समझी जा सकती है। नदियों के संरक्षण की बात हो तो सरकारों का ध्यान केवल गंगा की ओर ही जाता है। बीते 20 सालों में पहले गंगा एक्शन प्लान और अब गंगा क्लीन प्लान के नाम से 4 हजार करोड़ से अधिक खर्च किया जा चुका है। इतना ही नहीं, गंगा को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ ही गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन भी गंगा की बेहतरी के लिए किया है। गंगा के लिए मिले बजट से न सिर्फ गंगा के किनारे बसे नगरों में बुनियादी सुविधाओं का विकास किया जाता है बल्कि स्थानीय समुदायों को भी योजनाओं से जोड़ा जाता है। जबकि यमुना के लिए ऐसी कोई योजना अब तक न तो केंद्र सरकार ने बनाई है और न ही राज्य सरकार इस ओर ध्यान दे रही है लेकिन उपयोग की बात हो तो सरकारें यमुना का भरपूर उपयोग कर रही हैं।
एक के बाद एक परियोजना बनाने के साथ ही सिंचाई व पेयजल सुविधा देने के लिए यमुना के जल का उपयोग कई राज्य कर रहे हैं लेकिन यमुना को दीर्घ जीवी बनाने की कोई योजना फिलहाल सामने नही आई है। हां, मई 1994 में यमुना के पानी के बंटवारे को लेकर पांच राज्यों ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अधीन यमुना नदी बोर्ड का गठन कर एक एमओयू पर साइन जरूर किए थे। यमुना के जल का उपयोग तो सभी राज्य कर रहे हैं लेकिन इसके संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास होने अभी बाकी हैं। कहा जा सकता है कि अब गंगा के साथ ही यमुना के सवाल भी जानने-समझने-उठाने का वक्त आ गया है।
Mahesh.pandey@naidunia.com
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