जलापूर्ति बोर्ड के किसी भी इंजीनियर से अगर आप बात करें तो वह यही कहेगा कि जलापूर्ति नहीं बल्कि मलजल (सीवेज) का प्रबंधन करना सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है। आंकडे भी यही दर्शाते हैं कि लगभग सभी लोगों को भिन्न मात्रा और भिन्न गुणवत्ता का पानी मुहैया है लेकिन अच्छी सफाई शायद कुछ ही लोगों को मुहैया है।
सितम्बर 2000 में संयुक्त राष्ठ्र द्वारा अपनाए गए एमडीजी में भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं इसलिए उसे 2015 तक कम से कम 50 फीसदी लोगों को अच्छी सफाई (सेनिटेशन) सुविधाएं मुहैया करानी है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत को हमारी 78 फीसदी ग्रामीण आबादी के 50 फीसदी और 24 फीसदी शहरी आबादी के लिए कम से कम 115 मिलियन के आधे शौचालय मुहैया कराने हैं। सचमुच यह एक बड़ा काम है।
आमतौर पर शौच आदि के लिए सजल शौचालय या गङ्ढा शौचालय बनाए जाते हैं। इन दोनों से ही भूजल दूषित होता है और पर्यावरण भी असंतोषजनक हो जाता है। यहां तक कि जल संसाधनों के धनी केरल और गोवा में भी पर्याप्त सेनिटेशन की कमी के चलते भूजल इतना दूषित हो गया है कि बहुत से कुएं बेकार हो गए हैं। सेनिटेशन और जलापूर्ति दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। पानी मुहैया न होने की वजह से कई ग्रामीण अंचलों में शौचालय बेकार हो गए हैं। सोचिए! जब पीने के लिए पानी न हो तो क्या आप शौचालय के लिए पानी का इस्तेमाल करेंगे? दूसरी और व्यापक उपचार सुविधाओं वाली भूमिगत सीवेज व्यवस्था बहुत मंहगी और कठिन है। उसमें ऊर्जा की खपत ज्यादा है और काम भी सन्तोषजनक नहीं है। शहरों के बाहर, गांवों और कठोर चट्टानी इलाकों में घरों में या तो ठोस तकनीकी समाधान हैं ही नहीं और जो हैं वे बहुत मंहगे हैं।ऐसे में निर्जल (शुष्क) खाद शौचालय ही एकमात्र समाधान है। खाद शौचालय में मल एकत्रित होता है और यह मल को भूजल या जल निकायों को प्रदूषित किए बिना पौधों की वृद्धि के लिए खाद में बदल लेता है।
एक ऐसी ही मूत्र को पृथक करने वाली खाद शौचालय व्यवस्था इस प्रकार दिखाई देती है
मल के लिए टिनपैन के आगे का भाग मूत्र के लिए और ढक्कन वाला भाग मल के लिए है। शौचालय का प्रयोग करने के बाद मल को बुरादे से ढक दिया जाता है, यदि कागज का प्रयोग किया जाता है तो उसे भी उसी भाग में डालें जहां मल जाता है, विकल्प के रूप में पानी भी वहां डाला जा सकता है, महत्वपूर्ण है पूरे भाग को बुरादे से ढकना, इससे वहां न तो कोई दुर्गन्ध होगी, न ही मक्खी मच्छर आदि होंगे। मूत्र को प्लास्टिक के बैरल में इकठ्ठा करते हैं और उसे 1:3 या 1:8 के अनुपात से पानी मिलाकर पौधों, खासतौर पर पेड़ों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जहां यह नाइट्रोजन तत्व वाली अच्छी उर्वरक बनाता है।
मल को एक टिन के डिब्बे में इकठ्ठा किया जाता है, जब डिब्बा भर जाए तो उसके स्थान पर दूसरा रख दिया जाता है फिर बड़े ड्रम में या गङ्ढे में आगे की प्रक्रिया के लिए डाल दिया जाता है। इसे पत्तियों आदि से पूरी तरह ढककर उसे 6 महीने के लिए छोड़ दिया जाता है उसके बाद इसे मिट्टी के पोषक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।वर्षा जलसंचयन करने वाला ड्रम और दो टिन के डिब्बों में मल खाद नीचे
टिन के डिब्बों में मल खाद नीचे
धोने आदि के इस्तेमाल के लिए 'टिप्पी-टैप' का विकास सेंटर फॉर एप्लाइड रूरल टेक्नोलॉजी, मैसूर ने किया जिससे 80 मिली. पानी के इस्तेमाल भर से ही धोने की क्रिया (हाथ आदि) पूरी की जा सकती है। टिप्पी टैप को शौचालय में बुरादे से ढके मल वाले पैन के समीप लगाया जा सकता है। सेनिटेशन की इस पध्दति में एक परिवार के लिए 1 ली. से भी कम पानी की खपत होती है, यह मल को उर्वरक में बदल देता है, यह साफ-सुथरी, सस्ती तकनीक कहीं भी लगाई जा सकती है। शौचालय की छत पर 200 ली. के ड्रम में संचित किया हुआ जल शौचालय में धोने सम्बंधी सभी क्रियाओं को पूरा कर सकता है।
इकोजैन के लिए 200 ली. ड्रम में छत पर वर्षाजल संचय
कम से कम पानी से धोने के लिए 'टिप्पी टैप'
मल और मूत्र को पृथक करने वाली व्यवस्था भारत में ही नहीं यूरोपीय शैली में भी है। ऐसे शौचालय का इस्तेमाल घरों, फ्लैट आदि में किया जा रहा है। स्वीडन, जर्मन, डेनमार्क, अमेरिका, चीन, लंका आदि कई देशों में इको-जैन विकल्पों को अपनाया जा रहा है। भारत में भी सुलभ आंदोलन के डॉ. बिन्देश्वर पाठक और त्रिवेन्द्रम, केरल में पॉल कालवर्ट इको-जैन हीरो के रूप में जाने जाते हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें -
wwww.rainwaterclub.org
कॉल करें - 080-23641690
/articles/saaucaalaya-khaada-saphaai-kaa-bhavaisaya