गांव में शौचालय की सुविधा उपलब्ध न होने पर गांव वाले अपने घर किसी अतिथि को बुलाने से भी कतराते हैं। अगर घर पर कोई अतिथि आ भी जाता है तो शर्मिंदगी के सिवा यहां के लोगों को कुछ नसीब नहीं होता है। गांव में शौचालय न होने का सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा यहां की लड़कियों और औरतों को उठाना पड़ रहा है। जो चाहते हुए भी खुले में मल-मूत्र नहीं कर सकतीं। अगर खुले में मल-मूत्र करती भी हैं तो किसी और महिला साथी को ड्यूटी देनी पड़ती है।
हमारे देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। शहरों के मुकाबले गाँवों में समस्याओं की भरमार है। गाँवों के लोग किस परेशानी से अपना जीवन गुज़र बसर करते हैं इसका अंदाज़ा लगाना काफी मुश्किल है। सड़क, बिजली ,पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी देश के ज़्यादातर गाँवों में आपको देखने को मिल जाएगी। मगर कुछ ऐसी समस्याएं भी है जिनका हिस्सा ग्रामीण जनता को न चाहते हुए भी बनना पड़ जाता है। जम्मू कश्मीर के दूर दराज़ क्षेत्रों मे रहने वाले लोग भी इस तरह की समस्याओं से अछूते नहीं हैं। जम्मू से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कठुआ जिले के शेरपुर बाला गांव में बुनियादी सुविधाओं का कितना अभाव है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 21वीं सदी के इस दौर में भी गांव वाले शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। गांव वासियों को खुले में ही मल-मूत्र करना पड़ता है या यूं कहें कि न चाहते हुए भी उन्हें खुले में ही इसको करने की आदत हो गई है। इस गांव की स्थानीय निवासी कांता देवी जिनकी उम्र 30 साल है, उनका कहती हैं, ‘‘मेरे लिए न सही कम से मेरे बच्चों के लिए तो शौचालय का इंतज़ाम हो जाए।’’ यह कहानी सिर्फ कांता देवी की ही नहीं है। कांता देवी जैसे न जाने ऐसे कितने लोग हैं जो इस दर्द को अपने दिल में छिपाए हुए सरकार की ओर से गांव में शौचालय बनने का इंतजार कर रहे हैं।गांव में शौचालय की सुविधा उपलब्ध न होने पर गांव वाले अपने घर किसी अतिथि को बुलाने से भी कतराते हैं। अगर घर पर कोई अतिथि आ भी जाता है तो शर्मिंदगी के सिवा यहां के लोगों को कुछ नसीब नहीं होता है। गांव में शौचालय न होने का सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा यहां की लड़कियों और औरतों को उठाना पड़ रहा है। जो चाहते हुए भी खुले में मल-मूत्र नहीं कर सकतीं। अगर खुले में मल-मूत्र करती भी हैं तो किसी और महिला साथी को ड्यूटी देनी पड़ती है। लोगों को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए गांव में 1994 में एकल कक्ष शौचालयों का निर्माण ज़रूर हुआ था। इस प्रोजेक्ट के बारे में पंचायत लौंडी के मौजूदा सरपंच पूरन चंद का कहना है ‘‘लगभग दो दशक पहले एकल कक्ष शौचालयों का निर्माण तो हुआ था, मगर इसका फायदा बहुत दिनों तक लोगों को नहीं मिला।’’ इस बारे में पूरन चंद का यह भी कहना है कि गटर के फुल होने के बाद सीवेज प्रबंधन की कोई उचित व्यवस्था न होने की वजह से एकल कक्ष शौचालयों का प्रोजेक्ट अधर में लटक गया। इससे एक बात और सामने आती है कि देश में दूर दराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के विकास के लिए विकास योजनाएं तो तैयार की जाती हैं, मगर उनका कार्यान्वन ठीक से नहीं हो पाता है। लिहाज़ा परियोजनाओं को डिज़ाइन करते वक्त कहीं न कहीं अनुसंधान में कमी ज़रूर है।
पंचायत लौंडी में कुल सात गांव हैं जिनमें से शेरपुर बाला गांव भी एक है। सभी गाँवों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। शेरपुर बाला गांव में तकरीबन 100 परिवार हैं और कृषि यहां के लोगों की जीविका का मुख्य साधन है। गांव के ज़्यादातर परिवार गरीब हैं। ऐसे में दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले यहां के लोगों के लिए मूलभूत सुविधाएँ दूसरे दर्जे की श्रेणी में आती हैं। लौंडी पंचायत में अब तक शौचालय की सुविधा का न होना यहां के लोगों में जागरूकता की कमी को भी उजागर करता है। पंचायत लौंडी में दो दशक पहले जो एकल कक्ष शौचालय बनाए गए थे, उन्हें यहां के लोग अब स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल करते हैं। एकल कक्ष शौचालयों में आपको कहीं चारे का ढेर तो कहीं अनाज के बोरे रखे हुए नज़र आ जाएंगे। इसके अलावा कहीं कहीं इन शौचालयों का इस्तेमाल कूड़े घर के तौर पर भी हो रहा है। साफ है अगर उस वक्त एकल कक्ष शौचालयों के प्रोजेक्ट का क्रियान्वयन ठीक से हो गया होता तो आज एकल कक्ष शौचालयों की इतनी बुरी गत न हई होती। स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं के बारे में यहां के लोगों को कोई जानकारी नहीं हैं। इसी गांव की रहने वाली चंचला का कहना है ‘‘खुले में मल-मूत्र करने से क्या कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या होती है ?’’ मेरे बच्चे और परिवार के दूसरे सदस्य भी खुले में ही मल-मूत्र करते हैं। चंचला की तरह ही गांव के ज़्यादातर लोग इस बात से अंजान है कि खुले में मल-मूत्र करने से कोई बीमारी होती है।

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