शौचालय बने चुनावी मुद्दा

कितनी शर्म की बात है कि आज़ादी के 66 साल बाद भी भारत के ज्यादातर लोग उन बुनियादी चीजों से वंचित हैं जो उनके जन्मसिद्ध हक होने चाहिए। सफाई, साफ पानी उन बुनियादी जरूरतों में अहम है इसलिए बड़ी खुशी की बात मानी जानी चाहिए कि अब कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में शौचालयों के निर्माण को लेकर स्पर्धा शुरू हो गई है। शायद हमारे बेहाल गांव और हमारे शहरों की बेहाल बस्तियां सुधर जाएं और इंसानों के रहने लायक बन जाएंगी किसी दिन। कुछ बातें हैं जो हम अपने इस भारत देश में करने से हमेशा कतराते हैं। कुछ गंभीर मुद्दे ऐसे जिनका जिक्र करने से हमारे राजनेता घबराते हैं। इनमें एक मुद्दा है शौचालयों के अभाव का। इसलिए मुझे बेहद खुशी हुई कि पिछले हफ्ते जब इस मुद्दे पर ज़बरदस्त तकरार शुरू हुई नरेंद्र मोदी और जयराम रमेश के बीच। मोदी ने अपने किसी भाषण में कहा कि शौचालयों की जरूरत देवालयों से ज्यादा है सो भड़क गए हमारे ग्रामीण विकास मंत्री। अखबारों को बुला कर बयान दिया लंबा-चौड़ा कि पहले यह बात उन्होंने कही थी और उनके पीछे पड़ गए थे कट्टर हिंदुत्ववादी। अब कहां हैं वे लोग, मंत्रीजी, अब क्यों नहीं एतराज जता रहे हैं मोदी के बयान पर?

यहां मेरे लिए स्पष्ट करना जरूरी है कि जयराम रमेश को मैं भारत सरकार के सबसे बेकार और खतरनाक मंत्रियों में गिनती हूं। मेरा मानना है कि इस देश की अर्थव्यवस्था को बेहाल करने में मंत्री का बहुत बड़ा योगदान रहा इसलिए कि उन्होंने बतौर पर्यटन मंत्री कई अति महत्वपूर्ण योजनाओं को रोकने का कारण किया पर्यावरण बचाने के बहाने। ये ऐसी योजनाएं थीं, जिनमें लाखों-करोड़ों रुपयों का निवेश हो चुका था और जब निवेशकों ने देखा कि आसानी से रोकी जा सकती हैं ऐसी योजनाएं तो उन्होंने अपना पैसा किसी दूसरे देश में ले जाने का काम शुरू किया। जब तक रमेश को इस मंत्रालय से हटा कर ग्रामीण विकास मंत्रालय में भेजा गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अपने नए मंत्रालय में आने के बाद बयानबाज़ी खुब की है जयराम रमेश ने लेकिन ज़मीनी तौर पर कुछ खास नहीं किया है अभी तक। दिल से कर रहे होते मंत्रीजी अपना काम तो कम से कम उस शर्मनाक कुप्रथा को रोकने की कोशिश की होती जो इस देश के माथे पर बहुत बड़ा कलंक है। यानी उस कुप्रथा को रोकने की युद्ध स्तर पर कोशिश, जिसके चलते वाल्मीकि जाति के लोगों से मल ढोने का काम करवाया जाता है। आधुनिक शौचालयों के निर्माण के लिए मुहिम छेड़ी होती दिल से मंत्रीजी ने तो इस कुप्रथा से न शुरू करते क्या अपना काम?

चलो रहने देते हैं उस बात को जो हुई नहीं और रुख करते हैं उन बातों की तरफ जो हो सकती हैं। मंत्रीजी नरेंद्र मोदी से बहस करने के बदले क्यों नहीं शौचालयों के निर्माण के लिए राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करते हैं? देहातों में ज्यादा लोग आज भी खेतों, जंगलों और समुद्री तटों को बना लेते हैं अपने शौचालय लेकिन इस कुप्रथा को रोकने के लिए क्या हुआ है आज तक? हर गांव में टीवी पहुंच गया है, हर गांववाले के हाथ में आज दिखता है सेलफोन तो मंत्रीजी को शौचालय की अहमियत समझानी है लोगों को तो इससे अच्छा जरिया कहां मिलेगा?

इनके द्वारा इस देश के अनपढ़ नागरिकों को आसानी से समझाया जा सकता है कि मल से फैलती बीमारियों के शिकार बन जाते हैं सबसे पहले उनके अपने ही बच्चे। कैसा परिवर्तन आ जाता है गांव में निजी शौचालयों के बन जाने से। मैंने अपनी आंखों से देखा था कोई दस-पंद्रह साल पहले महाराष्ट्र के सांगली जिले के मलवाडी गांव में। इस गांव की सरपंच जब छाया कांबले नाम की एक दलित महिला बनी थी तो उसने अपना सारा ध्यान निजी शौचालयों के निर्माण पर दिया और मलवाडी भारत का पहला या दूसरा गांव बना जहां हर घर में शौचालय था। गांव की पंचायत ने जुर्माना लगाना शुरू कर दिया उन लोगों पर जो खेतों-गलियों में अपना काम करते थे। परिणाम यह हुआ कि गांव में बीमारियाँ आधी हो गई और गलियों से गंदगी गायब। ऐसा देश के हर गांव में क्यों नहीं हो सकता? साथ-साथ स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की मुहिम चलती है तो देश की शक्ल ही बदल जाएगी देखते-देखते।

कितनी शर्म की बात है कि आज़ादी के 66 साल बाद भी भारत के ज्यादातर लोग उन बुनियादी चीजों से वंचित हैं जो उनके जन्मसिद्ध हक होने चाहिए। सफाई, साफ पानी उन बुनियादी जरूरतों में अहम है इसलिए बड़ी खुशी की बात मानी जानी चाहिए कि अब कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में शौचालयों के निर्माण को लेकर स्पर्धा शुरू हो गई है। शायद हमारे बेहाल गांव और हमारे शहरों की बेहाल बस्तियां सुधर जाएं और इंसानों के रहने लायक बन जाएंगी किसी दिन।

ऐसा होता है अगर निकट भविष्य में तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर जो हमारा खर्च है वह आधे से भी कम हो सकता है। ऊपर से जाने बच जाएंगी उन बेचारे नवजात बच्चों की जो इस दुनिया में कदम रखते ही मर जाते हैं ऐसी बीमारियों से जो अन्य देशों में दशकों पहले गायब हो गई थीं, सिर्फ इसलिए कि वहां के शासक समझ गए थे कि हमारे शासकों से बहुत पहले कि आधुनिक शौचालयों में छिड़ी यह लड़ाई चलती रहे, लंबी चले और अगर बन जाए अहम चुनावी मुद्दा 2014 में तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।

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