बीते साल करीब 65 फीसदी कुओं के जलस्तर में कमी दर्ज की गई है। वहीं इससे उलट कैलोद में अब भी करीब सवा सौ से ज्यादा कुएँ पानी से लबालब हैं। इनमें कई कुएँ डेढ़ सौ से पचास साल पुराने तक भी हैं। इनसे अब भी खेती की जाती है। ट्यूबवेल के दौर आने पर भी यहाँ के किसानों ने अपने कुओं को उपेक्षित नहीं छोड़ा, इसी का सुखद परिणाम है कि अब भी यहाँ के कुएँ लगातार पानी उलीचते रहते हैं। हालांकि गाँव के लोगों ने बीते दिनों जलाभिषेक अभियान में तालाब भी बनवाए हैं पर कुओं का जलवा यहाँ बना रहा।
आप शायद सोच भी नहीं सकते कि साढ़े तीन हजार की आबादी वाले एक गाँव में सवा सौ से भी ज्यादा कुएँ हो सकते हैं और आज लगातार भूजल स्तर गिरने के बाद भी ये कुएँ न केवल बरकरार हैं बल्कि इनसे यहाँ के लोगों को पहचाना जाता है। जैसे कमल चौधरी, थेगलिया कुआँवाला, माँगीलाल पटेल, लुहार कुआँवाला। यह सुनने में भले ही अचरज भरा हो पर यहाँ बीते डेढ़ सौ सालों से ऐसा ही है। यहाँ तक कि लोगों के कार्ड-चिट्ठी और निमंत्रण भी कुओं के नाम से ही आती है।
मध्य प्रदेश के देवास जिला मुख्यालय से डबलचौकी सड़क पर करीब 20 किमी दूर एक गाँव पड़ता है- कैलोद। इस गाँव के आसपास की हरीतिमा देखते ही बनती है। गाँव के आसपास पड़त की जमीन ढूँढना मुश्किल है। हर खेत में फसल खड़ी है। कहीं गेहूँ की फसल लहलहा रही है तो कहीं चने के पौधे आकार ले रहे हैं। हरे-भरे पेड़-पौधे और सम्पन्न गाँव की झलक दूर से ही मिलती है।
एक तरफ केन्द्रीय भूजल मण्डल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि बीते साल करीब 65 फीसदी कुओं के जलस्तर में कमी दर्ज की गई है। वहीं इससे उलट कैलोद में अब भी करीब सवा सौ से ज्यादा कुएँ पानी से लबालब हैं। इनमें कई कुएँ डेढ़ सौ से पचास साल पुराने तक भी हैं। इनसे अब भी खेती की जाती है।
ट्यूबवेल के दौर आने पर भी यहाँ के किसानों ने अपने कुओं को उपेक्षित नहीं छोड़ा, इसी का सुखद परिणाम है कि अब भी यहाँ के कुएँ लगातार पानी उलीचते रहते हैं। हालांकि गाँव के लोगों ने बीते दिनों जलाभिषेक अभियान में तालाब भी बनवाए हैं पर कुओं का जलवा यहाँ बना रहा।
इसी गाँव से जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके 65 वर्षीय नारायण सिंह चौधरी गर्व से बताते हैं कि गाँव में हमारे पुरखों के जमाने से पानी पर बहुत ध्यान दिया गया। गाँव में सौ-डेढ़ सौ साल पुराने कुएँ आसानी से देखने को मिल जाते हैं। यही कारण है कि आज गाँव के आसपास करीब साढ़े चार हजार बीघा से ज्यादा जमीन पर दो से तीन फसलें तक हो जाती हैं। गाँव की कोई जमीन असिंचित नहीं है। दो हजार बीघा में तो उस समय भी दो फसल की खेती होती थी, जब हमारे गाँव में बिजली नहीं आई थी। हमारे बाप-दादा इन्हीं कुओं में चड़स चलाकर फसल करते थे।
वे बताते हैं कि सन 1925 के आसपास तक इन्हीं कुओं से खेतों में चड़स की सिंचाई होती रही। 1930 के आसपास पहली बार हमारे पिता माँगीलाल पटेल ने मुम्बई से जर्मनी की कम्पनी का डीजल इंजन खरीदा और इसे लगाने के लिये इन्दौर से मैकेनिक बुलवाए गए थे। इसके बाद जब पम्प में बिना बैलों के कुएँ से पानी उलीचना शुरू किया तो कैलोद ही नहीं आसपास के गाँवों से भी लोग इसे बहुत दिनों तक देखने आते रहे। इसकी मरम्मत के लिये कुछ क्विंटल अनाज वार्षिक दर पर देवास के तब के मशहूर मैकेनिक मोहम्मद साहब को रखा गया।
पूर्व सरपंच बलराम चौधरी बताते हैं कि हमारे दादाजी के जमाने में यहाँ खूब गन्ना हुआ करता था। गाँव के आसपास खूब बाड़ लगाया जाता था। यहाँ के मीठे पानी से ऐसा रसदार गन्ना हुआ करता था कि उससे बने गुड की देवास-इन्दौर सहित दूर-दूर की मंडियों में खास पूछ-परख हुआ करती थी। लोग कैलोद के गुड़ को नाम देखकर ही बिना चखे खरीद लिया करते थे। तब खूब गुड़ पैदा होता था और इसे बेचने के लिये हमारे दादाजी के पास पहले से ही आर्डर बुक हो जाया करते थे।
कैलोद और इसके पास लगे सिरोल्या गाँव की खेती यहाँ के पानी की वजह से दूर-दूर तक पहचानी जाती रही है। यहाँ आम और जामुन के इतने पेड़ हुआ करते थे कि यहाँ के लोगों से खाए नहीं जाते थे। सुबह-सवेरे टोकरों में भरकर आम की साग (डाल से पककर गिरे आम) और जामुन हुआ करते थे। ज्यादातर ब्याह-शादी के आयोजन इन्हीं कुओं पर पेड़ों की घनी ठंडी छाया में हुआ करते थे। हजार-पाँच सौ तक लोगों का जमावड़ा बिना किसी टेंट, तम्बू या रावटी ताने हो जाया करता था।
गाँव के शिक्षित युवा मनोज चौधरी बताते हैं कि बाद में हरित क्रान्ति के समय में ट्यूबवेल का चलन बढ़ा तो गाँव में बोरवेल भी हुए पर लोगों ने अपने कुओं को उपेक्षित नहीं किया। दोनों ही पानी देते रहे। गाँव में कुएँ के लिये भूगर्भीय स्थितियाँ अनुकूल है। बीस-तीस साल पहले तक कुछ ही फीट पर (30-50 फीट) खोदने पर ही पानी निकल जाया करता था।
चट्टानी क्षेत्र होने से कुएँ के पक्के बनाने का खर्च बच जाया करता था और पर्याप्त जलस्तर होने से ये साल भर पानी देते रहते थे। बीते कुछ सालों में देश भर की तरह ही यहाँ भी ट्यूबवेल ज्यदा हो जाने से भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है पर अब भी कुएँ पानी देते हैं और लोग इनसे खेती करते हैं। अब कुएँ जनवरी-फरवरी तक साथ छोड़ने लगते हैं।
कमल चौधरी बताते हैं कि खाती समाज बहुल इस गाँव में एक ही नाम के कई लोगों के होने तथा ज्यादातर के उपनाम चौधरी और पटेल होने से इन्हें सालों पहले से ही कुओं के नाम से ही पहचाना जाता रहा है। करीब पचास से ज्यादा घरों की पहचान यही है जैसे पप्पू चौधरी के परिवार को पेलाकुआँ वाला यानी गाँव में सबसे पहले आने वाले कुएँ के नाम से पहचाना जाता है।
कमल चौधरी के परिवार को थेगलिया कुआँवाला, माँगीलाल पटेल परिवार को लुहार कुआँवाला, सन्तोष चौधरी परिवार को मोटा कुआँवाला, श्याम चौधरी परिवार को बनिया कुआँवाला, रामचरण चौधरी परिवार को लुटेरिया कुआँवाला, सुरेश चौधरी परिवार को खारा कुआँवाला, सीताराम चौधरी परिवार को छ्पोलिया कुआँवाला, घासीराम चौधरी परिवार को बल्ली कुआँवाला और भगवान चौधरी के परिवार को नया कुआँवाला के नाम से पहचाना जाता है। गाँव में इसके अलावा बड़ाकुआँ, सदाकुआँ, खेड़ीकुआँ, मडियाकुआँ और डेरीकुआँ से भी लोगों की पहचान है।
स्थानीय पत्रकार अजय बारवाल बताते हैं कि बाद के दिनों में यहाँ चार-पाँच बड़े तालाब भी बनाए गए हैं लेकिन अब भी लोग पानी के लिये कुओं पर ही निर्भर रहते हैं और हर साल उनकी साफ-सफाई भी की जाती है। आसपास के जिन गाँवों ने ट्यूबवेल आने के बाद कुओं को नकार दिया, वे अब पानी-पानी कर रहे हैं लेकिन कैलोद अब भी पानीदार है।
कैलोद गाँव की कहानी हमें सबक सीखाती है कि कुओं ने इस गाँव को और यहाँ की खेती बाड़ी को अब भी सँवार रखा है। जरूरत है, हमें इनसे सीखने और आगे बढ़ने की।
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