सांस्कृतिक प्रदूषण और लोकसंस्कृति

भारतीय रंगमंच के शानदार पाक्षिक या नौ-दिवसीय रामलीला, रासलीला और धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित नाटकों, एकांकियों, तमाशा, गम्मत, नाच, नौटंकी आदि को भी सिनेमाई अति आधुनिक प्रदर्शन ने निगलना आरंभ किया और धीरे-धीरे उसके जहरीले प्रभाव से हमारी नागर और ग्रामीण कलाएं प्रभावित होने लगीं। रही-सही कसर सन् 1970-75 के बीच टेलीविजन ने देश भर में फैलाव के साथ पूरी कर दी। हमारी अपनी विशिष्ट संस्कृति रही है – भारतीय संस्कृति। हमारी अपनी अलग पहचान रही है, अलग सभ्यता रही है और अलग खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, कलात्मक अभिव्यक्ति तथा आनंद-उत्साह व्यक्त करने के तौर-तरीके भी। समूचे संसार में भारतीयता की अलग पहचान रही है। विगत सौ-सवा सौ वर्षों से विदेशों में जाकर मजदूरी से लेकर डॉक्टर, इंजीनियरी करने वालों, उद्योग-धंधे लगाकर उद्यमी बने लोगों, व्यवसायियों की भी अपनी भारतीयता के प्रति ललक, रुझान और भारतीय संस्कृति पर सौ जान फिदा लोगों के कारण विदेशों में भी भारतीयता की अच्छी पूछ-परख रही और भारतीय लोग वहां आकर्षण के केंद्र रहे। भारतीय महिलाएं जब अपने भारतीय परिधान साड़ी और ब्लाउज में, सलवार-सूट में विदेशों के बाजारों में जातीं, रेलगाड़ियों, विमानों में यात्राएं करतीं तो लोग सुखद आश्चर्य से, हर्षमिश्रित निगाहों से उन्हें देखते और सर्वांग ढके परिधानों में सज्जित भारतीय नारियां उन्हें आदर्श और अनुकरणीय महिलाएं लगतीं। यही स्थिति पुरुषों की भी थी। भारतीय पुरुष आम विदेशियों की अपेक्षा अपने सरल-सहज परिधान और अच्छी आदतों के कारण उन विदेशियों को मोह लेते और भारतीय अस्मिता के प्रति उन्हें नत-मस्तक होने को प्रेरित करते।

ऊपर वर्णित स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति के पच्चीस-तीस वर्षों के बाद तक थी। संयोगवश हमारे देश में सिनेमा ने विभिन्न क्षेत्रों की तरह विदेशियों की नकल करना प्रारंभ किया। कहानी में, नृत्य में, गीत में और तद्नुसार परिधान में भी विदेशियों की नकल की जाने लगी और ढके तन की जगह खुले बदन की नायिकाएं, हास्य कलाकार, नर्तकियां, नर्तक आदि फिल्मों में आने लगे और भारतीय परिधान की शालीनता को ठेंगा (अंगूठा) दिखाने लगे। फिल्मों से फैशन का प्रसार-प्रचार तीव्रता से होने लगा और पहले देश के महानगरों में विदेशी रीति-रिवाज, तौर-तरीके, परिधान, खान-पान उच्च और मध्यमवर्गीय समाज में फैले तत्पश्चात् बड़े नगरों में फैशन की फैलने लगीं। सिनेमाई फैशन ने न केवल भारतीय खान-पान, परिधान को बर्बाद किया, बल्कि भारतीय गायन, वाद्य वादन, रंग कर्म, लोककला, लोकनृत्य, लोकगीत और लोकजीवन को भी दूषित करने का जघन्य अपराध किया।

भारतीय रंगमंच के शानदार पाक्षिक या नौ-दिवसीय रामलीला, रासलीला और धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित नाटकों, एकांकियों, तमाशा, गम्मत, नाच, नौटंकी आदि को भी सिनेमाई अति आधुनिक प्रदर्शन ने निगलना आरंभ किया और धीरे-धीरे उसके जहरीले प्रभाव से हमारी नागर और ग्रामीण कलाएं प्रभावित होने लगीं। रही-सही कसर सन् 1970-75 के बीच टेलीविजन ने देश भर में फैलाव के साथ पूरी कर दी। फिल्मी विदेशी संस्कृति, जिसे मुंबइया संस्कृति, महानगरीय दिल्ली, कोलकाता, तमिलनाडु की संस्कृति भी कह सकते हैं, ने पूरे देश को अतिआधुनिकता की चपेट में ले लिया और उसी तड़क-भड़क, चकाचौंध में टी.वी प्रभावित श्रोता-दर्शक झूमने लगे, ढलने लगे और पगलाने लगे।

मुझे ख्याल आता है कि देश के प्रसिद्ध नाटककार और कहानीकार डॉ. शंकर शेष सन् 1980 के आस-पास जब रायपुर में देश का संभवतः दसवां दूरदर्शन केंद्र उद्घाटित हुआ था, तब अपने गृह नगर बिलासपुर में दीपावली की छुट्टी मनाने मुंबई से आए हुए थे, तब मैं और अनुज डॉ. विनय पाठक भी दीपावली पर बिलासपुर में थे। हम लोग शंकर भैया के घर मुलाकात करने गए। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था, “रायपुर में दूरदर्शन का आना छत्तीसगढ़ के लिए दुर्भाग्यजनक है।” मुझे यह सुनकर दुःख हुआ था। मैने कहा भी कि केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल के कारण सौभाग्यवश यह केंद्र यहां खुला है। देश के अनेक प्रसिद्ध नगरों से पहले रायपुर में इसका खुलना तो गौरव की बात है। हंसते हुए उन्होंने कहा था, “तुम दोनों भाई छत्तीसगढ़ लोकसाहित्य, संस्कृति और कला से करीब से जुड़े हुए हो। ये दूरदर्शन केंद्र इस छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक गरिमा को, लोकनृत्य, लोकगीतों को, यहां के पहनावे, श्रृंगार के आभूषणों को, छत्तीसगढ़ी बोली को, गम्मत नाचा को धीरे-धीरे निगल जाएगा और मुंबइया फिल्मी असर से समूचा छत्तीसगढ़ प्रभावित होकर अपनी खासियत, अपने अपनेपन, अपनी ‘चिन्हारी’ को खो देगा।” तब मुझे डॉ. शंकर शेष की यह बात अच्छी नहीं लगी थी, लेकिन आज उनकी कही बात जब पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत सच साबित चुकी है, तब मुझे भी लगता है कि इस टेलीविजन ने छत्तीसगढ़ से उसका अपनापन, उसकी ‘चिन्हारी’ को छीन लिया है।

अब न कहीं रामलीलाएं होती हैं, न कृष्णलीलाएं। रासलीलाओं की अपनी विशिष्टताएं समाप्त हो गई हैं। दस-बारह फुट की भीम, हनुमान जी, शंकरजी, गरुपाजी, अर्जुन आदि की मिट्टी की मूर्तियां अब सपनों में भी नहीं दिखलाई देतीं। ग्रामीण परिवेश में विवाह के अवसर पर गंड़वाबाजा की जगह बैंडबाजा, विवाह गीतों की जगह वाहियात फिल्मी गीतों की रिकॉर्डिंग साड़ी, लुगरा की जगह महानगरीय कन्याओं, महिलाओं के अजीबोगरीब वस्त्र, पुरुषों, बच्चों के फैशनेबल जींस, शर्ट, दूल्हे-दुल्हन के मौर की जगह राजस्थानी या पंजाबी चलन की पगड़ी, हल्की झालर वाली झूल दिखलाई देती हैं।

अब शहरों में तो होती ही नहीं, ग्रामों में भी न पंडवानी की कथा होती, न भरथरी न चनैनी की गाथा सुनी जाती हैं, न राऊत होता और न आदिवासी नृत्यों की छटा दिखलाई देती। गम्मत नाचा को तो सर्प सूंघ गया है। गरीब डंगजघा नाच वाले, विविध शारीरिक करतब दिखलाने वाले, बंदर, भालू का नाच दिखलाने वाले, देवार कलाकार आदि अब कहीं दिखलाई नहीं देते। दरअसल अब टेलीविजन ने लोगों को ऐसा मोह लिया है कि समूचा परिवार उसके मोहपाश में गिरफ्त है। सच्ची कथाओं के नाम पर अश्लील और आपराधिक रिपोर्ट, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, दहेज प्रकरण, बहुओं को प्रताड़ित करने, जलाने, मारने की घटनाओं से लदे-फदे सीरियल पारिवारिक गाथाओं के नाम पर परिवार को तोड़ने वाले धारावाहिकों, वाहियात नृत्यों, गीतों के कारण भावी पीढ़ी बर्बादी के कगार पर है। ‘लिव इन रिलेशनशिप’ को महत्ता प्रदान करने, प्रतिष्ठा की रक्षा की खातिर बेटी या बेटे या प्रेमी की हत्या जैसी घटनाओं के किस्सों को मिर्च-मसाला लगाकर प्रस्तुत करने की आजादी ने टेलीविजन के विभिन्न चैनलों को तो सोना काटने की आजादी दे दी है, लेकिन दर्शकों के वैचारिक धरातल को कुंद करने की उनकी गंदी नीति भारत को भारत नहीं रहने देगी, यह स्पष्ट दिखलाई दे रहा है।

अंधानुकरण की यह प्रवृत्ति बढ़ती पर है, फलतः लोकसंस्कृति, भारतीय प्राचीन सभ्यता, देशभर की मातृभाषाएं और प्रदर्शनकारी लोककलाएं खतरे में हैं। अगर भारतीयता की रक्षा को जरूरी समझने की थोड़ी भी ललक हो तो जिम्मेदार लोगों को सही समय में सही निर्णय लेना जरूरी प्रतीत होता है।

खुर्सीपार, जोन-1 मार्केट, सेक्टर-11, भिलाई-490011

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