सांस में फांस

आज देश में समावेशी विकास की खूब चर्चा है। लेकिन विकास का यह मॉडल लोगों की कार्यक्षमता पर निर्भर करता है। देखने में आ रहा है कि वाहनों की भागमभाग जहां एक ओर नगरों और महानगरों में जाम और पार्किंग की समस्या बढ़ा रही है, वहीं दूसरी ओर इन गाड़ियों के धुएं से निकलने वाले बेंजीन और कार्बन-मोनोऑक्साइड जैसे घातक रसायन इंसान के रक्त प्रवाह और स्नायु तंत्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। इससे लोगों के काम करने की क्षमता लगातार कमजोर पड़ती जा रही है।

वायु प्रदूषण से जुड़ी दो रिपोर्टें ध्यान खींचती हैं। अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक सौ अठहत्तर देशों के बीच भारत का स्थान पिछले साल के मुकाबले बत्तीस अंक गिर कर एक सौ पचपन पर आ गया है। दरअसल, यह गिरावट वायु प्रदूषण के मामले में भारत की गंभीर स्थिति को बयान करती है। रिपोर्ट बताती है कि भारत इस मामले में ब्रिक्स यानी ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ ही अपने पड़ोसी पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका तक से पीछे रह गया है। रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर प्रभाव, वायु प्रदूषण, पेयजल, स्वच्छता, जल संसाधन, कृषि, जंगल, जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा जैसे बिंदुओं को आधार बनाया गया है।

दूसरी रिपोर्ट सेंटर फॉर साइंस एनवायरमेंट इंडिया (सीएसई) से जुड़ी है, जो बताती है कि वायु प्रदूषण बड़े शहरों के साथ छोटे नगरों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। ग्वालियर, इलाहाबाद, गाज़ियाबाद और लुधियाना जैसे शहर महानगरों की श्रेणी में नहीं आते, फिर भी वहां वायु प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है। सीएसई ने बेजिंग एनवायरमेंट प्रोटेक्शन ब्यूरो, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पिछले चार-पांच महीनों के आंकड़ों का अध्ययन करके बताया कि दिल्लीवासी इस समय खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो चुकी आबोहवा के बीच सांस ले रहे हैं। विश्लेषण बताता है कि दिल्ली के अनेक इलाकों में बेंजीन और कार्बन-मोनोऑक्साइड जैसे घातक रसायनों की मात्रा मानक के स्तर से दस गुना तक बढ़ गई है।

दरअसल, इसके लिए सड़कों पर लगातार वाहनों की बढ़ती तादाद सबसे अधिक जिम्मेदार है। कई यूरोपीय देशों में कारों की बिक्री और उनके नियंत्रित प्रयोग के नियम लागू हैं। लेकिन भारत में निजी वाहनों के सीमित प्रयोग और सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को कारगर बनाने के सभी मंसूबे ध्वस्त दिखाई देते हैं। जबकि चीन में वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने का अच्छा उदाहरण हमारे सामने है। चीन ने अपने यहां हर वर्ष बेचे जाने वाली निजी वाहनों की संख्या तय कर रखी है। वहां सार्वजनिक वाहनों का बड़े पैमाने पर गुणवत्ता के साथ विस्तार किया गया है। वहां वायु की गुणवत्ता मापने और स्वास्थ्य से जुड़े चेतावनी तंत्र को भी बहुत मजबूत बनाया गया है। भारत में अकेले दिल्ली की स्थिति यह है कि यहां डेढ़ हजार नए वाहन रोजाना सड़कों पर आ जाते हैं। साथ ही यहां वाहन खरीदने के कर्ज पर ब्याज दरों में भारी कमी का लालच भी मौजूद है।

यहां हर साल कार कंपनियों द्वारा कार के नए-नए मॉडल निकालने से अब यह बाजार नई अमीरी से लबरेज मध्यवर्ग को अभी अपनी चपेट में ले रहा है। कारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि ने वायु प्रदूषण के साथ-साथ पार्किंग की भी भारी समस्या खड़ी कर दी है। अध्ययन बताते हैं कि बेजिंग और दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए एक साथ बड़े स्तर पर काम शुरू किया गया था। लेकिन हैरत की बात है कि बेजिंग अपने वायु प्रदूषण को कम करने में कामयाब हो गया, पर दिल्ली नाकाम रही।

ऐसा नहीं कि देश में वायु प्रदूषण को कम करने के प्रयास नहीं किए गए। डेढ़ दशक पहले दिल्ली के साथ अन्य महानगरों में सीसा-रहित डीजल और पेट्रोल के अलावा सीएनजी की बिक्री शुरू की गई थी। लेकिन सार्वजनिक वाहनों को व्यावहारिक बनाने और उसके विस्तार के बजाए डीजल और पेट्रोल चालित वाहनों को खुली छूट दे दी गई। फिर बड़े व्यावसायिक वाहनों के शहर में आवागमन में भी काफी उदारता बरती गई। रिपोर्ट बताती हैं कि सबसे अधिक वायु प्रदूषण डीजल से चलने वाली गड़िया फैलाती हैं। ठंडे मौसम में लगातार धुंध की स्थिति बने रहने का कारण बड़ी मात्रा में गाड़ियों से लगातार निकलने वाला धुआं और औद्योगिक उत्सर्जन है।

येल विश्वविद्यालय की रिपोर्ट यहां तक बताती है कि गाड़ियों के धुएं के कण मनुष्य के रक्त और फेफड़ों में जम कर कैंसर की बड़ी वजह बनते हैं। सच यह है कि आज भारत में सांस, खासकर दमा या अस्थमा से मरने वालों की संख्या सबसे अधिक है। वह इसलिए कि यहां न तो वाहनों की बिक्री पर कोई बंदिश है और न ही उनसे निकलने वाले धुएं पर काबू पाने के लिए नियम-कानूनों की कठोरता है।

आज देश में समावेशी विकास की खूब चर्चा है। लेकिन विकास का यह मॉडल लोगों की कार्यक्षमता पर निर्भर करता है। देखने में आ रहा है कि वाहनों की भागमभाग जहां एक ओर नगरों और महानगरों में जाम और पार्किंग की समस्या बढ़ा रही है, वहीं दूसरी ओर इन गाड़ियों के धुएं से निकलने वाले बेंजीन और कार्बन-मोनोऑक्साइड जैसे घातक रसायन इंसान के रक्त प्रवाह और स्नायु तंत्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। इससे लोगों के काम करने की क्षमता लगातार कमजोर पड़ती जा रही है। लोगों में त्वचा की संवेदनशीलता, याददाश्त की कमजोरी, चिड़चिड़ापन, गुस्सा, आक्रामकता और दमा जैसे रोग तेजी पकड़ रहे हैं।

इन वाहनों की तेज चाल हर साल एक लाख से अधिक लोगों की जिंदगी लील जाती है। पेट्रोलियम मंत्रालय भी मानता है कि देश में तकरीबन बारह हजार करोड़ की सब्सिडी निजी कारों की भेंट चढ़ जाती है। यह सच है कि वाहन उद्योग देश की जीडीपी में छह फीसद का योगदान करता है। यहां गौर करने की बात है कि लोगों में निजी वाहन की ललक वाहन उद्योग की सेहत भले ठीक रखे, लेकिन देश की सेहत को बिगाड़ रही है। तकाजा यह है कि यहां शहरी नियोजन और परिवहन नीति के बीच त्वरित गति से तालमेल बने।

कड़वा सच यह भी है कि लोगों में निजी वाहन की चाहत तभी बढ़ती है जब सार्वजनिक परिवहन से उनका भरोसा कमजोर होता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि देश में सार्वजनिक परिवहन के साधनों की संख्या के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता भी बढ़े। तभी लोगों में निजी वाहन खरीदने की आक्रामक प्रवृत्ति को कम करके वायु प्रदूषण की बढ़ती गंभीरता को कम किया जा सकता है।

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