पवित्र जुम्मे का दिन शुक्रवार कलंकित हुआ है। तेरह नवम्बर 2015 अब इतिहास का हिस्सा है। दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में शुमार पेरिस इस्लामी जिहाद का युद्ध मैदान बन चुका है। आतंकी कत्लेआम की भयावहता से हम सब आहत महसूस कर रहे हैं, साथ ही आईएसआईएस की बर्बरता गुस्सा भी दिला रहा है।
पूरी दुनिया एकजुट है आतंकवाद के बर्बर और हिंसक हमले के खिलाफ। इसी वातावरण के बीच 'पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन' होना है। लगता ऐसा है कि तीस नवम्बर से ग्यारह दिसम्बर तक चलने वाला 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन' निराशा, बेबसी और क्रोध में फँस सकता है। पर जरूरी यह है कि शान्ति और विवेक से आतंकी-बर्बरता का जवाब भी दिया जाये और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का सही जवाब भी खोजा जाये।
फ्रांसिसी राष्ट्रपति की घोषणा के बाद कि 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन' होकर रहेगा, सम्मेलन के आयोजन को लेकर सवाल की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। इतनी खराब परिस्थितियों में पेरिस में नवम्बर के अन्त में होने वाला जलवायु सम्मेलन अपने आप में अहम होगा।
दुनिया के 200 देशों के प्रतिनिधि सरकारी आयोजन में शामिल होंगे। समान्तर चलने वाले गैर सरकारी आयोजनों में 50-70 हजार लोग भागीदारी करेंगे। जलवायु सम्मेलन की यह प्रक्रिया 1992 में ब्राजील के रियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन से शुरू हुई थी।
उसी समय धरती और इंसानी सेहत को जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों से बचाने के लिये एक अन्तरराष्ट्रीय सन्धि पर सहमति बनी जिसे युनाईटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का नाम दिया गया। इसी कड़ी में कोप-21वाँ ‘जलवायु-सम्मेलन’ पेरिस में होने वाला है।
'पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन' में उन उपायों पर विचार होगा, जिनसे ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को कम किया जा सके। अगर यह सम्मेलन विफल रहा और कोई आम सहमति के साथ कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना, तो ऐसे में धरती का तापमान आने वाले कुछ दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस या 3.5 डिग्री फॉरेनहाइट से भी ज्यादा बढ़ जाएगा।
और वैज्ञानिकों के अनुसार यह बढ़े तापमान की वह अधिकतम सीमा है, जहाँ तक धरती जलवायु-परिवर्तन के असर को बर्दाश्त कर सकती है। इसके बाद तो विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं की अन्तहीन शृंखला शुरू हो जाएगी।
कार्बन उत्सर्जन में कमी करने का दावा अगर विफल रहा तो उसके भयानक परिणाम होंगे, आशंकाओं से भी ज्यादा। कई देश पूरे डूबेंगे, कई देशों का काफी हिस्सा डूबेगा, मौसम की अस्थिरता भुखमरी के हालात बनाएगी, इससे भविष्य में न केवल जलवायु सम्बन्धी परेशानियाँ होंगी बल्कि दुनिया भर में अस्थिरता, विद्रोह और युद्ध के खतरे खड़े होंगे।
इस सन्दर्भ में 'जलवायु-सम्मेलन : कोप-21’ को सिर्फ जलवायु वार्त्ता के तौर पर न देखा जाये, बल्कि यह एक ‘शान्ति सम्मेलन’ भी है। और शायद इतिहास में सबसे ज्यादा अहम शान्ति सम्मेलन।
क्यों यह सम्मेलन अहम शान्ति सम्मेलन होगा, इसे समझने के लिये ग्लोबल वार्मिंग के होने वाले ख़तरों पर हालिया आईपीसीसी की रिपोर्ट को समझना होगा।
2014 में आई रिपोर्ट कहती है कि अगर जलवायु परिवर्तन से समझदारी के साथ न निपटा गया तो अकाल, भयंकर तूफान, झुलसाने वाली गर्म हवाएँ, फसलों का नुकसान और समुद्रों में उफान आएगा जो हर तरफ तबाही और मौत पसारता रहेगा। हाल की घटनाएँ जैसे कोलम्बिया और भारत में पड़ा सूखा और यूरोप तथा एशिया में गर्म हवाओं से पड़े प्रभावों ने सबका ध्यान खींचा है।
रिपोर्ट यहाँ तक कहती है कि ग्लोबल वार्मिंग के घातक सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी हो सकते हैं जिसमें आर्थिक मन्दी, राज्यों का खात्मा, गृह युद्ध, बड़े पैमाने पर पलायन और अन्त में आगे चलकर संसाधनों के लिये युद्ध भी शामिल है।
रिपोर्ट का मानना है कि जब व्यापार की मुख्य वस्तुएँ जैसे फसलें, लकड़ी, मछलियाँ और अन्य मवेशी या तो कम हो रहे हैं या फिर उत्पादन घट रहा है, जिससे कई देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। चरमराई अर्थव्यवस्था भारी मात्रा में शरणार्थियों की समस्या पैदा करती है, जिससे समाज व्यवस्था का ढाँचा भी ढहने लगता है।
आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार शायद इन सबके चलते तुरन्त ही सशस्त्र युद्ध जैसी स्थिति भले ही न हों, लेकिन मौजूदा गरीबी, भुखमरी, संसाधनों की कमी, नाकारा और भ्रष्ट सरकारें और जातिगत-धार्मिक असहिष्णुता जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ मिल जाएगा, तब लोग खाद्य, जल-ज़मीन और जीने की बुनियादी ज़रूरतों के लिये भयानक करेंगे। सीरिया, लीबिया आदि कई देशों में यही हो रहा है।
ऐसे युद्ध हवा में नहीं होंगे। पहले से मौजूदा समस्याएँ और तकलीफें चरम सीमा पर जब पहुँचेगी, तब जनता के बीच से कोई नेता निकल कर आएगा जिसके उत्तेजक भाषणों से शोलों को हवा मिलेगी। हाल ही में इसरायल और फिलीस्तीनी क्षेत्र में हुई हिंसा पर गौर करें।
इस हिंसा की आग नेताओं के भड़काऊ भाषणों और येरुसलम के टेम्पल-माउंट पर कब्जे को लेकर भड़की। इसी के साथ कमजोर अर्थव्यवस्था और संसाधनों के अभाव ने मिलकर अन्तहीन-युद्ध की एक पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर दी है।
2006 से 2010 के बीच सीरिया में जो भयंकर सूखा पड़ा, उसके लिये जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार था, जिससे देश का लगभग 60 फीसद हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। फसलें बर्बाद हो गईं हैं, मवेशी मर रहे हैं और लाखों किसान भुखमरी के शिकार हुए हैं। विवश होकर वे सीरियाई शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में गए, जहाँ उन्हें वापस लौटने को धकेला गया। अन्ततः सीरिया गृहयुद्ध का शिकार हो गया, जिसमें अब तक दो लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और 40 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं।जीवन के लिये बुनियादी संसाधन धरती पर सबको एक समान नहीं मिले हैं। अक्सर जिन्हें प्रचुर मात्रा में संसाधन मिले हैं और जो संसाधनों से वंचित हैं उनके बीच नफरत की नई-नई दीवार बनती जाती है।
उदाहरण के तौर पर इसरायल और फिलीस्तीन को ही लें उनमें एक तो नस्ल और धार्मिक विभेद की गहरी खाई है। ऐसे में जल-ज़मीन जैसे संसाधनोंं के मद्देनज़र यदि जलवायु परिवर्तन के खतरे भी जुड़ गए तो वो निश्चित रूप से आग में घी डालने का काम करेंगे।
जलवायु परिवर्तन बहुत से ऐसे कुदरती संसाधनों को कम या खत्म कर देगा जिन पर पहले ही ज्यादा दबाव है और जो जीवन के लिये निहायत अनिवार्य हैं। कुछ इलाके जहाँ अभी खेती या पशुपालन होता है, शायद निर्जन हों जाएँ या वहाँ रिहाइश कम हो जाये।
उदाहरण के तौर पर बढ़ते तापमान और भयानक सूखे के चलते सहारा मरुस्थल का दक्षिणी किनारा खानाबदोशों के समूहों को पनाह देने वाले चरागाह की बजाय एक निर्जन बेकार ज़मीन में तब्दील हो गया है जिसकी वजह से खानाबदोश अपनी पुरखों की ज़मीन छोड़कर बेघर होने को मजबूर हो गए हैं।
अफ्रीका, एशिया और मिडिल ईस्ट में भी ऐसी ही घटनाएँ होंगी। नदियाँ जो कभी साल भर बहती थीं, वे सूख जाएँगी या फिर उनमें ना के बराबर पानी होगा।
जैसा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि देशों के जो हिस्से अपने को जलवायु परिवर्तन के अनुसार ढाल नहीं पाएँगे, उन पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा और साथ ही इनमें भोजन, आवास और दूसरी ज़रूरतों के लिये मारा-मारी मचेगी। रिपोर्ट यह भी कहती है “इंसानों में बढ़ती यह असुरक्षा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये राज्य द्वारा किये गए प्रयासों को भी नाकाम कर सकती है और इस सबसे ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होंगी जो हिंसक संघर्षों को जन्म देंगी।”
ऐसे ही संकट का एक उदाहरण है सीरिया में हुआ गृहयुद्ध, जिसके बाद एक देश खत्म हो गया। इन झगड़ों से एक नए तरह के और बड़ी संख्या में शरणार्थी पैदा हुए हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से कभी नहीं हुए थे।
2006 से 2010 के बीच सीरिया में जो भयंकर सूखा पड़ा, उसके लिये जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार था, जिससे देश का लगभग 60 फीसद हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। फसलें बर्बाद हो गईं हैं, मवेशी मर रहे हैं और लाखों किसान भुखमरी के शिकार हुए हैं। विवश होकर वे सीरियाई शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में गए, जहाँ उन्हें वापस लौटने को धकेला गया।
अन्ततः सीरिया गृहयुद्ध का शिकार हो गया, जिसमें अब तक दो लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और 40 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं।
जलवायुवीय संकट अब राजनैतिक संकट बन चुका है। पूरा देश गृहयुद्ध में फँस चुका है, लोग या तो मारे जा रहे हैं या सीरिया से दूसरे देशों में पलायन को विवश हैं।
अगर सीरिया के तानाशाह बशर अल-असद ने बेघर हुए लोगों के लिये आपातकालीन नौकरियों और आवास सुविधाएँ मुहैया करवाए होते तो शायद संघर्षों को टाला जा सकता था। इसके उलट उसने रसद-पानी और ईंधन पर दी गई सब्सिडी में कटौती करके बेघर हुए लोगों के दुखों को बढ़ा दिया, जिसने विद्रोह की आग को भड़काया ही है।
अफ्रीकी दक्षिणी छोर के साहेल क्षेत्र का मंजर भी कुछ ऐसा ही है, सहारा का दक्षिणी छोर जहाँ भयंकर अकाल तो पड़ा ही, साथ ही भड़की सशस्त्र हिंसा की सरकार द्वारा अनदेखी किये जाने से लोग पलायन कर गए। हालांकि इस इलाके में पहले भी ऐसी घटनाएँ और आपदाएँ आती रही हैं, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से अकाल जल्दी-जल्दी पड़ने लगा है।
साहेल के ‘यूनाइटेड नेशन्स रीजनल ह्यूमेनिटेरियन’ रॉबर्ट पाइपर का कहना है, “साहेल में अकाल पहले 10 साल पर आते थे फिर 5 सालाना हुए लेकिन अब तो 1-2 साल के अन्तर पर ही आ जाते हैं। जिसकी वजह से पहले से ही गर्मी और सूखे की मार झेल रहे लोगों की स्थिति बद-से-बदतर होती जाती है।”
माली में भी ख़ानाबदोश तुआरेग (इस्लामी अफ्रीकी लोग) खासतौर पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिन चरागाहों में वे अपने मवेशी चराते थे, वह अब रेगिस्तान में तब्दील हो रहे हैं। तुआरेगों की बमाकू की केन्द्र सरकार के साथ हमेशा ठनी रहती है, यह इलाक़ा कभी फ्रांसीसीयों के कब्ज़े में था और अब इसाईयत या जीववाद को मानने वाले काले अफ्रीकियों का कब्ज़ा है।
जब उनके पारम्परिक आजीविका के साधन खतरे में आ गए और राजधानी से उन्हें थोड़ी सी भी राहत और मदद नहीं मिली तो जनवरी 2012 में तुआरेगों ने विद्रोह कर दिया और आधे माली पर कब्जा कर लिया। ये बात दीगर है कि बाद में उन्हें अमरीकी सेना और खुफ़िया विभाग की मदद से फ्रांसीसी और दूसरी विदेशी सेनाओं द्वारा पीछे हटने और वापिस सहारा के रेगिस्तान में जाने को मजबूर कर दिया गया है।
सीरिया और माली में हुई इन घटनाओं को भविष्य में होने वाली घटनाओं की शुरुआत के रूप में देखें क्योंकि आगे चलकर ये बड़े पैमाने पर होने वाली हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन बढ़ेगा केवल रेगिस्तानीकरण ही नहीं होगा बल्कि समुद्रतटीय निचले इलाकों में समुद्रों का स्तर ऊपर उठेगा और उन इलाकों में भयानक गर्म हवाएँ चलेंगी जो पहले से ही गर्म हैं। धरती के बहुत सारे हिस्से ऐसे होंगे जो रहने लायक नहीं रह जाएँगे।
हालांकि शक्तिशाली और धनी सरकारें इन चुनौतियों से निपटने में ज्यादा समर्थ होंगी, पर गरीब और कमजोर देश ‘असफल-राज्य’ (फेल्ट स्टेट) में बदलेंगे। और ‘असफल-राज्य’ बनने की संख्या में नाटकीय रूप से बढ़ोत्तरी होगी, जिनमें खाद्यान्नों, कृषि-भूमि और बचे-खुचे आवासों के लिये हिंसक दंगे होंगे।
इसे कुछ इस तरह समझते हैं, अब आप धरती पर कुछ ऐसे इलाकों की कल्पना करें जैसे राज्यों में आज लीबिया, सीरिया और यमन हैं। कुछ लोग ऐसे हालातों में वहीं रहकर जिन्दगी की जंग लड़ेंगे, कुछ पलायन कर जाएँगे और पलायन कर गए शरणार्थियों के साथ किस तरह का दुश्मनी और उपेक्षा का व्यवहार होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। इस सबकी परिणति संसाधनों को लेकर एक वैश्विक गृहयुद्ध के रूप में होगी।
इनमें से ज्यादातर गृहयुद्ध आपसी लड़ाई के रूप में दिखाई देंगे- एक नस्ल के लोग दूसरी नस्ल के साथ तो एक जाति दूसरी के साथ। पर इनमें से कई लड़ाइयों का कारण जलवायु परिवर्तन के चलते धरती पर घटते संसाधनों का मामला होगा। और उसमें भी विशेषकर पानी के लिये।
पेरिस के जलवायु-सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि अगर तापमान में 2 डिग्री से भी ज्यादा कटौती करने का कुछ सटीक रास्ता सुझा पाये तो भविष्य में उसी के मुताबिक हिंसा के खतरे भी कम हो जाएँगे। इस अर्थ में देखा जाये तो पेरिस सम्मेलन एक शान्ति सम्मेलन है। पेरिस शिखर सम्मेलन और इसके बाद भी तापमान में हर छोटी-से-छोटी कटौती का बड़ा मतलब होगा क्योंकि इससे आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधनों के लिये होने वाले युद्धों और उनमें बहने वाले खून को टाला जा सकेगा।यह तो तय है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बहुत से ऊष्णकटिबन्धीय और उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति में कमी आएगी जिससे खेती और फसलें भी गड़बड़ा जाएँगी, बड़े शहरों के कामकाज और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ खड़ी होंगी और शायद पूरे सामाजिक ढाँचे के लिये चुनौती होगी।
जलयुद्ध के खतरे तब और ज्यादा आएँगे जब दो या दो से ज्यादा देश एक ही जल स्रोत पर निर्भर होंगे जैसे- नील, जॉर्डन, यूफ्रेट्स, सिन्ध, मीकोंग आदि जैसी दूसरी अन्तरराष्ट्रीय नदियाँ। इनसे जुड़ें देशों में से कोई एक जब हिस्से से ज्यादा पानी लेने की जिद्द पर अड़ेगा तो यही रवैया युद्ध की आग को हवा देगा।
इन नदियों पर बाँध बनाकर पानी का रास्ता बदलने की बार-बार कोशिश करना युद्ध को दावत देने वाली बात है। ऐसा उदाहरण हमारे सामने है जब टर्की और सीरिया ने यूफ्रेट्स पर बाँध बनाकर पानी का रास्ता बदलकर निचले हिस्सों में पानी जाने से रोक दिया।
ब्रह्मपुत्र नदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यह तिब्बत से निकलती है जहाँ इसका नाम ‘यारलुंग सांगपो’ है और हिन्द महासागर में गिरने से पहले यह भारत और बांग्लादेश से गुजरती है।
चीन ने पहले ही इस नदी पर एक बाँध बना रखा है और नए बाँध बनाने की योजना बना रहा है जिससे भारत में बहुत सी समस्याएँ खड़ी होंगी क्योंकि ब्रह्मपुत्र के पानी से एक बड़े हिस्से में सिंचाई की जाती है। लेकिन इससे भी बड़ी चिन्ता और खतरे की बात तो यह है कि चीन इसके पानी को एक नहर द्वारा देश के कम पानी वाले उत्तरी हिस्सों में पहुँचाने की योजना बना रहा है।
हालांकि चीन यही कह रहा है कि इस योजना को अभी अमलीजामा नहीं पहनाया जाएगा लेकिन भविष्य में बढ़ते हुए तापमान और अकालों के मद्देनज़र ऐसा कदम उठाया जा सकता है और हो सकता है चीन का यह कदम भारत की जलापूर्ति के लिये सवालिया निशान लगा देगा जो युद्ध को न्यौता दे सकता है।
सुधा रामचंद्रन ने द डिपलोमेट में लिखा है, “चीन के बाँध बनाकर ब्रह्मपुत्र के पानी का रास्ता बदल देने से निचले भागों में केवल जल प्रवाह, खेती, जीवन और आजीविका के ही संकट नहीं खड़े होंगे बल्कि भारत-चीन सम्बन्धों में दरार का कारण भी बन सकता है।”
यह भी सच है कि भविष्य में पानी के दबाव के चलते शायद सशस्त्र युद्ध न हों क्योंकि हो सकता है जो राज्य इसमें शामिल होंगे वे बचे हुए संसाधनों में ही हिस्सेदारी तय करने का कुछ रास्ता खोज लेंगे और साथ ही जीने के लिये कुछ विकल्प भी तलाश लेंगे।
फिर यह भी सच है कि जब रसद-पानी मिलना कम हो जाये, लाखों लोग प्यास और भूख से तड़प रहे हों ऐसे में उनके लिये संसाधन जुटाने के लिये ताकत का प्रयोग करना ही पड़ेगा। ऐसी परिस्थितियों में राज्यों के खुद के अस्तित्व के लिये संकट पैदा हो जाएगा।
बेशक जल-युद्धों के खतरों को रोकने के लिये बहुत कुछ किया जा सकता है जिसमें जल-प्रबन्धन की विभिन्न योजनाओं को अपनाना आदि ऐसे तरीके जिनसे कम पानी में ज्यादा काम सम्भव हो सके। लेकिन इन सबसे भी बढ़कर भविष्य में जलवायु सम्बन्धी संघर्षों को रोकने के लिये जरूरी है ‘वैश्विक तापमान में कमी करना’।
पेरिस के जलवायु-सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि अगर तापमान में 2 डिग्री से भी ज्यादा कटौती करने का कुछ सटीक रास्ता सुझा पाये तो भविष्य में उसी के मुताबिक हिंसा के खतरे भी कम हो जाएँगे। इस अर्थ में देखा जाये तो पेरिस सम्मेलन एक शान्ति सम्मेलन है।
पेरिस शिखर सम्मेलन और इसके बाद भी तापमान में हर छोटी-से-छोटी कटौती का बड़ा मतलब होगा क्योंकि इससे आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधनों के लिये होने वाले युद्धों और उनमें बहने वाले खून को टाला जा सकेगा। यही वजह है कि पेरिस के जलवायु शिखर सम्मेलन को शान्ति-सम्मेलन रूप में देखा जाना चाहिए।
पूरी दुनिया एकजुट है आतंकवाद के बर्बर और हिंसक हमले के खिलाफ। इसी वातावरण के बीच 'पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन' होना है। लगता ऐसा है कि तीस नवम्बर से ग्यारह दिसम्बर तक चलने वाला 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन' निराशा, बेबसी और क्रोध में फँस सकता है। पर जरूरी यह है कि शान्ति और विवेक से आतंकी-बर्बरता का जवाब भी दिया जाये और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों का सही जवाब भी खोजा जाये।
फ्रांसिसी राष्ट्रपति की घोषणा के बाद कि 'पेरिस जलवायु-सम्मेलन' होकर रहेगा, सम्मेलन के आयोजन को लेकर सवाल की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। इतनी खराब परिस्थितियों में पेरिस में नवम्बर के अन्त में होने वाला जलवायु सम्मेलन अपने आप में अहम होगा।
दुनिया के 200 देशों के प्रतिनिधि सरकारी आयोजन में शामिल होंगे। समान्तर चलने वाले गैर सरकारी आयोजनों में 50-70 हजार लोग भागीदारी करेंगे। जलवायु सम्मेलन की यह प्रक्रिया 1992 में ब्राजील के रियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन से शुरू हुई थी।
उसी समय धरती और इंसानी सेहत को जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों से बचाने के लिये एक अन्तरराष्ट्रीय सन्धि पर सहमति बनी जिसे युनाईटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का नाम दिया गया। इसी कड़ी में कोप-21वाँ ‘जलवायु-सम्मेलन’ पेरिस में होने वाला है।
'पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन' में उन उपायों पर विचार होगा, जिनसे ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को कम किया जा सके। अगर यह सम्मेलन विफल रहा और कोई आम सहमति के साथ कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना, तो ऐसे में धरती का तापमान आने वाले कुछ दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस या 3.5 डिग्री फॉरेनहाइट से भी ज्यादा बढ़ जाएगा।
और वैज्ञानिकों के अनुसार यह बढ़े तापमान की वह अधिकतम सीमा है, जहाँ तक धरती जलवायु-परिवर्तन के असर को बर्दाश्त कर सकती है। इसके बाद तो विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं की अन्तहीन शृंखला शुरू हो जाएगी।
कार्बन उत्सर्जन में कमी करने का दावा अगर विफल रहा तो उसके भयानक परिणाम होंगे, आशंकाओं से भी ज्यादा। कई देश पूरे डूबेंगे, कई देशों का काफी हिस्सा डूबेगा, मौसम की अस्थिरता भुखमरी के हालात बनाएगी, इससे भविष्य में न केवल जलवायु सम्बन्धी परेशानियाँ होंगी बल्कि दुनिया भर में अस्थिरता, विद्रोह और युद्ध के खतरे खड़े होंगे।
इस सन्दर्भ में 'जलवायु-सम्मेलन : कोप-21’ को सिर्फ जलवायु वार्त्ता के तौर पर न देखा जाये, बल्कि यह एक ‘शान्ति सम्मेलन’ भी है। और शायद इतिहास में सबसे ज्यादा अहम शान्ति सम्मेलन।
क्यों यह सम्मेलन अहम शान्ति सम्मेलन होगा, इसे समझने के लिये ग्लोबल वार्मिंग के होने वाले ख़तरों पर हालिया आईपीसीसी की रिपोर्ट को समझना होगा।
2014 में आई रिपोर्ट कहती है कि अगर जलवायु परिवर्तन से समझदारी के साथ न निपटा गया तो अकाल, भयंकर तूफान, झुलसाने वाली गर्म हवाएँ, फसलों का नुकसान और समुद्रों में उफान आएगा जो हर तरफ तबाही और मौत पसारता रहेगा। हाल की घटनाएँ जैसे कोलम्बिया और भारत में पड़ा सूखा और यूरोप तथा एशिया में गर्म हवाओं से पड़े प्रभावों ने सबका ध्यान खींचा है।
रिपोर्ट यहाँ तक कहती है कि ग्लोबल वार्मिंग के घातक सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भी हो सकते हैं जिसमें आर्थिक मन्दी, राज्यों का खात्मा, गृह युद्ध, बड़े पैमाने पर पलायन और अन्त में आगे चलकर संसाधनों के लिये युद्ध भी शामिल है।
रिपोर्ट का मानना है कि जब व्यापार की मुख्य वस्तुएँ जैसे फसलें, लकड़ी, मछलियाँ और अन्य मवेशी या तो कम हो रहे हैं या फिर उत्पादन घट रहा है, जिससे कई देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। चरमराई अर्थव्यवस्था भारी मात्रा में शरणार्थियों की समस्या पैदा करती है, जिससे समाज व्यवस्था का ढाँचा भी ढहने लगता है।
आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार शायद इन सबके चलते तुरन्त ही सशस्त्र युद्ध जैसी स्थिति भले ही न हों, लेकिन मौजूदा गरीबी, भुखमरी, संसाधनों की कमी, नाकारा और भ्रष्ट सरकारें और जातिगत-धार्मिक असहिष्णुता जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ मिल जाएगा, तब लोग खाद्य, जल-ज़मीन और जीने की बुनियादी ज़रूरतों के लिये भयानक करेंगे। सीरिया, लीबिया आदि कई देशों में यही हो रहा है।
जलवायुवीय गृह-युद्ध
ऐसे युद्ध हवा में नहीं होंगे। पहले से मौजूदा समस्याएँ और तकलीफें चरम सीमा पर जब पहुँचेगी, तब जनता के बीच से कोई नेता निकल कर आएगा जिसके उत्तेजक भाषणों से शोलों को हवा मिलेगी। हाल ही में इसरायल और फिलीस्तीनी क्षेत्र में हुई हिंसा पर गौर करें।
इस हिंसा की आग नेताओं के भड़काऊ भाषणों और येरुसलम के टेम्पल-माउंट पर कब्जे को लेकर भड़की। इसी के साथ कमजोर अर्थव्यवस्था और संसाधनों के अभाव ने मिलकर अन्तहीन-युद्ध की एक पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर दी है।
2006 से 2010 के बीच सीरिया में जो भयंकर सूखा पड़ा, उसके लिये जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार था, जिससे देश का लगभग 60 फीसद हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। फसलें बर्बाद हो गईं हैं, मवेशी मर रहे हैं और लाखों किसान भुखमरी के शिकार हुए हैं। विवश होकर वे सीरियाई शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में गए, जहाँ उन्हें वापस लौटने को धकेला गया। अन्ततः सीरिया गृहयुद्ध का शिकार हो गया, जिसमें अब तक दो लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और 40 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं।जीवन के लिये बुनियादी संसाधन धरती पर सबको एक समान नहीं मिले हैं। अक्सर जिन्हें प्रचुर मात्रा में संसाधन मिले हैं और जो संसाधनों से वंचित हैं उनके बीच नफरत की नई-नई दीवार बनती जाती है।
उदाहरण के तौर पर इसरायल और फिलीस्तीन को ही लें उनमें एक तो नस्ल और धार्मिक विभेद की गहरी खाई है। ऐसे में जल-ज़मीन जैसे संसाधनोंं के मद्देनज़र यदि जलवायु परिवर्तन के खतरे भी जुड़ गए तो वो निश्चित रूप से आग में घी डालने का काम करेंगे।
जलवायु परिवर्तन बहुत से ऐसे कुदरती संसाधनों को कम या खत्म कर देगा जिन पर पहले ही ज्यादा दबाव है और जो जीवन के लिये निहायत अनिवार्य हैं। कुछ इलाके जहाँ अभी खेती या पशुपालन होता है, शायद निर्जन हों जाएँ या वहाँ रिहाइश कम हो जाये।
उदाहरण के तौर पर बढ़ते तापमान और भयानक सूखे के चलते सहारा मरुस्थल का दक्षिणी किनारा खानाबदोशों के समूहों को पनाह देने वाले चरागाह की बजाय एक निर्जन बेकार ज़मीन में तब्दील हो गया है जिसकी वजह से खानाबदोश अपनी पुरखों की ज़मीन छोड़कर बेघर होने को मजबूर हो गए हैं।
अफ्रीका, एशिया और मिडिल ईस्ट में भी ऐसी ही घटनाएँ होंगी। नदियाँ जो कभी साल भर बहती थीं, वे सूख जाएँगी या फिर उनमें ना के बराबर पानी होगा।
जैसा कि आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि देशों के जो हिस्से अपने को जलवायु परिवर्तन के अनुसार ढाल नहीं पाएँगे, उन पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा और साथ ही इनमें भोजन, आवास और दूसरी ज़रूरतों के लिये मारा-मारी मचेगी। रिपोर्ट यह भी कहती है “इंसानों में बढ़ती यह असुरक्षा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये राज्य द्वारा किये गए प्रयासों को भी नाकाम कर सकती है और इस सबसे ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होंगी जो हिंसक संघर्षों को जन्म देंगी।”
ऐसे ही संकट का एक उदाहरण है सीरिया में हुआ गृहयुद्ध, जिसके बाद एक देश खत्म हो गया। इन झगड़ों से एक नए तरह के और बड़ी संख्या में शरणार्थी पैदा हुए हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से कभी नहीं हुए थे।
2006 से 2010 के बीच सीरिया में जो भयंकर सूखा पड़ा, उसके लिये जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार था, जिससे देश का लगभग 60 फीसद हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। फसलें बर्बाद हो गईं हैं, मवेशी मर रहे हैं और लाखों किसान भुखमरी के शिकार हुए हैं। विवश होकर वे सीरियाई शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में गए, जहाँ उन्हें वापस लौटने को धकेला गया।
अन्ततः सीरिया गृहयुद्ध का शिकार हो गया, जिसमें अब तक दो लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और 40 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थियों के रूप में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं।
जलवायुवीय संकट अब राजनैतिक संकट बन चुका है। पूरा देश गृहयुद्ध में फँस चुका है, लोग या तो मारे जा रहे हैं या सीरिया से दूसरे देशों में पलायन को विवश हैं।
अगर सीरिया के तानाशाह बशर अल-असद ने बेघर हुए लोगों के लिये आपातकालीन नौकरियों और आवास सुविधाएँ मुहैया करवाए होते तो शायद संघर्षों को टाला जा सकता था। इसके उलट उसने रसद-पानी और ईंधन पर दी गई सब्सिडी में कटौती करके बेघर हुए लोगों के दुखों को बढ़ा दिया, जिसने विद्रोह की आग को भड़काया ही है।
अफ्रीकी दक्षिणी छोर के साहेल क्षेत्र का मंजर भी कुछ ऐसा ही है, सहारा का दक्षिणी छोर जहाँ भयंकर अकाल तो पड़ा ही, साथ ही भड़की सशस्त्र हिंसा की सरकार द्वारा अनदेखी किये जाने से लोग पलायन कर गए। हालांकि इस इलाके में पहले भी ऐसी घटनाएँ और आपदाएँ आती रही हैं, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से अकाल जल्दी-जल्दी पड़ने लगा है।
साहेल के ‘यूनाइटेड नेशन्स रीजनल ह्यूमेनिटेरियन’ रॉबर्ट पाइपर का कहना है, “साहेल में अकाल पहले 10 साल पर आते थे फिर 5 सालाना हुए लेकिन अब तो 1-2 साल के अन्तर पर ही आ जाते हैं। जिसकी वजह से पहले से ही गर्मी और सूखे की मार झेल रहे लोगों की स्थिति बद-से-बदतर होती जाती है।”
माली में भी ख़ानाबदोश तुआरेग (इस्लामी अफ्रीकी लोग) खासतौर पर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिन चरागाहों में वे अपने मवेशी चराते थे, वह अब रेगिस्तान में तब्दील हो रहे हैं। तुआरेगों की बमाकू की केन्द्र सरकार के साथ हमेशा ठनी रहती है, यह इलाक़ा कभी फ्रांसीसीयों के कब्ज़े में था और अब इसाईयत या जीववाद को मानने वाले काले अफ्रीकियों का कब्ज़ा है।
जब उनके पारम्परिक आजीविका के साधन खतरे में आ गए और राजधानी से उन्हें थोड़ी सी भी राहत और मदद नहीं मिली तो जनवरी 2012 में तुआरेगों ने विद्रोह कर दिया और आधे माली पर कब्जा कर लिया। ये बात दीगर है कि बाद में उन्हें अमरीकी सेना और खुफ़िया विभाग की मदद से फ्रांसीसी और दूसरी विदेशी सेनाओं द्वारा पीछे हटने और वापिस सहारा के रेगिस्तान में जाने को मजबूर कर दिया गया है।
सीरिया और माली में हुई इन घटनाओं को भविष्य में होने वाली घटनाओं की शुरुआत के रूप में देखें क्योंकि आगे चलकर ये बड़े पैमाने पर होने वाली हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन बढ़ेगा केवल रेगिस्तानीकरण ही नहीं होगा बल्कि समुद्रतटीय निचले इलाकों में समुद्रों का स्तर ऊपर उठेगा और उन इलाकों में भयानक गर्म हवाएँ चलेंगी जो पहले से ही गर्म हैं। धरती के बहुत सारे हिस्से ऐसे होंगे जो रहने लायक नहीं रह जाएँगे।
हालांकि शक्तिशाली और धनी सरकारें इन चुनौतियों से निपटने में ज्यादा समर्थ होंगी, पर गरीब और कमजोर देश ‘असफल-राज्य’ (फेल्ट स्टेट) में बदलेंगे। और ‘असफल-राज्य’ बनने की संख्या में नाटकीय रूप से बढ़ोत्तरी होगी, जिनमें खाद्यान्नों, कृषि-भूमि और बचे-खुचे आवासों के लिये हिंसक दंगे होंगे।
इसे कुछ इस तरह समझते हैं, अब आप धरती पर कुछ ऐसे इलाकों की कल्पना करें जैसे राज्यों में आज लीबिया, सीरिया और यमन हैं। कुछ लोग ऐसे हालातों में वहीं रहकर जिन्दगी की जंग लड़ेंगे, कुछ पलायन कर जाएँगे और पलायन कर गए शरणार्थियों के साथ किस तरह का दुश्मनी और उपेक्षा का व्यवहार होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। इस सबकी परिणति संसाधनों को लेकर एक वैश्विक गृहयुद्ध के रूप में होगी।
जल-युद्ध
इनमें से ज्यादातर गृहयुद्ध आपसी लड़ाई के रूप में दिखाई देंगे- एक नस्ल के लोग दूसरी नस्ल के साथ तो एक जाति दूसरी के साथ। पर इनमें से कई लड़ाइयों का कारण जलवायु परिवर्तन के चलते धरती पर घटते संसाधनों का मामला होगा। और उसमें भी विशेषकर पानी के लिये।
पेरिस के जलवायु-सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि अगर तापमान में 2 डिग्री से भी ज्यादा कटौती करने का कुछ सटीक रास्ता सुझा पाये तो भविष्य में उसी के मुताबिक हिंसा के खतरे भी कम हो जाएँगे। इस अर्थ में देखा जाये तो पेरिस सम्मेलन एक शान्ति सम्मेलन है। पेरिस शिखर सम्मेलन और इसके बाद भी तापमान में हर छोटी-से-छोटी कटौती का बड़ा मतलब होगा क्योंकि इससे आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधनों के लिये होने वाले युद्धों और उनमें बहने वाले खून को टाला जा सकेगा।यह तो तय है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बहुत से ऊष्णकटिबन्धीय और उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति में कमी आएगी जिससे खेती और फसलें भी गड़बड़ा जाएँगी, बड़े शहरों के कामकाज और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ खड़ी होंगी और शायद पूरे सामाजिक ढाँचे के लिये चुनौती होगी।
जलयुद्ध के खतरे तब और ज्यादा आएँगे जब दो या दो से ज्यादा देश एक ही जल स्रोत पर निर्भर होंगे जैसे- नील, जॉर्डन, यूफ्रेट्स, सिन्ध, मीकोंग आदि जैसी दूसरी अन्तरराष्ट्रीय नदियाँ। इनसे जुड़ें देशों में से कोई एक जब हिस्से से ज्यादा पानी लेने की जिद्द पर अड़ेगा तो यही रवैया युद्ध की आग को हवा देगा।
इन नदियों पर बाँध बनाकर पानी का रास्ता बदलने की बार-बार कोशिश करना युद्ध को दावत देने वाली बात है। ऐसा उदाहरण हमारे सामने है जब टर्की और सीरिया ने यूफ्रेट्स पर बाँध बनाकर पानी का रास्ता बदलकर निचले हिस्सों में पानी जाने से रोक दिया।
ब्रह्मपुत्र नदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यह तिब्बत से निकलती है जहाँ इसका नाम ‘यारलुंग सांगपो’ है और हिन्द महासागर में गिरने से पहले यह भारत और बांग्लादेश से गुजरती है।
चीन ने पहले ही इस नदी पर एक बाँध बना रखा है और नए बाँध बनाने की योजना बना रहा है जिससे भारत में बहुत सी समस्याएँ खड़ी होंगी क्योंकि ब्रह्मपुत्र के पानी से एक बड़े हिस्से में सिंचाई की जाती है। लेकिन इससे भी बड़ी चिन्ता और खतरे की बात तो यह है कि चीन इसके पानी को एक नहर द्वारा देश के कम पानी वाले उत्तरी हिस्सों में पहुँचाने की योजना बना रहा है।
हालांकि चीन यही कह रहा है कि इस योजना को अभी अमलीजामा नहीं पहनाया जाएगा लेकिन भविष्य में बढ़ते हुए तापमान और अकालों के मद्देनज़र ऐसा कदम उठाया जा सकता है और हो सकता है चीन का यह कदम भारत की जलापूर्ति के लिये सवालिया निशान लगा देगा जो युद्ध को न्यौता दे सकता है।
सुधा रामचंद्रन ने द डिपलोमेट में लिखा है, “चीन के बाँध बनाकर ब्रह्मपुत्र के पानी का रास्ता बदल देने से निचले भागों में केवल जल प्रवाह, खेती, जीवन और आजीविका के ही संकट नहीं खड़े होंगे बल्कि भारत-चीन सम्बन्धों में दरार का कारण भी बन सकता है।”
यह भी सच है कि भविष्य में पानी के दबाव के चलते शायद सशस्त्र युद्ध न हों क्योंकि हो सकता है जो राज्य इसमें शामिल होंगे वे बचे हुए संसाधनों में ही हिस्सेदारी तय करने का कुछ रास्ता खोज लेंगे और साथ ही जीने के लिये कुछ विकल्प भी तलाश लेंगे।
फिर यह भी सच है कि जब रसद-पानी मिलना कम हो जाये, लाखों लोग प्यास और भूख से तड़प रहे हों ऐसे में उनके लिये संसाधन जुटाने के लिये ताकत का प्रयोग करना ही पड़ेगा। ऐसी परिस्थितियों में राज्यों के खुद के अस्तित्व के लिये संकट पैदा हो जाएगा।
तापमान में कमी करना
बेशक जल-युद्धों के खतरों को रोकने के लिये बहुत कुछ किया जा सकता है जिसमें जल-प्रबन्धन की विभिन्न योजनाओं को अपनाना आदि ऐसे तरीके जिनसे कम पानी में ज्यादा काम सम्भव हो सके। लेकिन इन सबसे भी बढ़कर भविष्य में जलवायु सम्बन्धी संघर्षों को रोकने के लिये जरूरी है ‘वैश्विक तापमान में कमी करना’।
पेरिस के जलवायु-सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि अगर तापमान में 2 डिग्री से भी ज्यादा कटौती करने का कुछ सटीक रास्ता सुझा पाये तो भविष्य में उसी के मुताबिक हिंसा के खतरे भी कम हो जाएँगे। इस अर्थ में देखा जाये तो पेरिस सम्मेलन एक शान्ति सम्मेलन है।
पेरिस शिखर सम्मेलन और इसके बाद भी तापमान में हर छोटी-से-छोटी कटौती का बड़ा मतलब होगा क्योंकि इससे आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन की वजह से संसाधनों के लिये होने वाले युद्धों और उनमें बहने वाले खून को टाला जा सकेगा। यही वजह है कि पेरिस के जलवायु शिखर सम्मेलन को शान्ति-सम्मेलन रूप में देखा जाना चाहिए।
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Post By: RuralWater