शानदार वन्यजीव भारतीय पैंगोलिन विलुप्त होने के कगार पर संरक्षण बेहद जरूरी

पीले-भूरे रंग का भारतीय पैंगोलिन
पीले-भूरे रंग का भारतीय पैंगोलिन

वर्ल्ड पैंगोलिन डे विशेष:

भारत में एक ऐसा दुर्लभ स्तनधारी वन्यजीव जो दिखने में अन्य स्तनधारियों से बिल्कुल अलग व विचित्र आकृति का जिसके शरीर का पृष्ठ भाग खजूर के पेड़ के छिलकों की भाँति कैरोटीन से बने कठोर व मजबूत चौड़े शल्कों से ढका रहता है। दूर से देखने पर यह छोटा डायनासोर जैसा प्रतीत होता है। अचानक इसे देखने पर एक बार कोई भी व्यक्ति अचम्भित व डर जाता है। धुन का पक्का व बेखौफ परन्तु शर्मीले स्वभाव का यह वन्य जीव और कोई नहीं बल्कि भारतीय पैंगोलिन है। गहर-भूरे, पीले-भूरे अथवा रेतीले रंग का शुण्डाकार यह निशाचर प्राणी लम्बाई में लगभग दो मीटर तथा वजन में लगभग पैंतीस कि.ग्रा. तक का होता है। चूँकि इसके शरीर पर शल्क होने से यह ‘वज्रशल्क’ नाम से भी जाना जाता है तथा कीड़े-मकोड़े खाने से इसको ‘चींटीखोर’ भी कहते हैं। अस्सी के दशक पूर्व पहाड़, मैदान, खेत-खलिहान, जंगल तथा गाँवों के आस-पास रहने वाला यह शल्की-चींटीखोर रेगिस्तानी इलाकों के अलावा देश के लगभग हर भौगोलिक क्षेत्रों में दिखाई दे पड़ता था। लेकिन अब इनकी संख्या बहुत कम होने से यह कभी-कभार ही देखने को मिलता है। दरअसल इस पैंगोलिन प्रजाति का अस्तित्व अब बेहद खतरे में है।

भूरे रंग का भारतीय पैंगोलिनभूरे रंग का भारतीय पैंगोलिनयह शानदार वन्यजीव, प्राणी-जगत में रज्जुकी संघ के स्तनधारी वर्ग के फोलिओडेटा गण तथा मैनिडाए कुल से सम्बन्धित जीव है। प्राणी शास्त्र में इसका वैज्ञानिक नाम ‘मैनिस क्रेसिकाउडाटा’ है तथा आमजन इसको ‘सल्लू सांप’ कहते हैं। देश के अलग-अलग प्रान्तों में इसको अलग-अलग नामों से भी पुकारा जाता है। भारत में इसकी चीनी मूल की एक और प्रजाति है जिसका नाम ‘मैनिस पेंटाडेकटाइला’ है जो सिर्फ उतरी-पूर्वी क्षेत्रों में ही बसर करती है। विश्व में इसकी कुल आठ प्रजातियाँ है जिनमें से चार एशियाई व चार अफ्रीकी उपमहाद्वीपों में मिलती है।

मादा पैंगोलिन अपनी पीठ पर शिशु (पैंगोपप) को बिठा कर जंगल में विहार कराती हुईमादा पैंगोलिन अपनी पीठ पर शिशु (पैंगोपप) को बिठा कर जंगल में विहार कराती हुईयह कमाल का वन्यजीव है जो कई मायने में अद्भुत है। जैव-विकास के दौरान इसने अपने आप को ऐसा ढाला जो वाकई बेमिसाल है। नुकीली थूथन व सुन्डाकार शरीर होने से यह अपने बिल में सरलता से आ जा सकता है, वहीं शल्की कवच इसको विषम परिस्थितियों में सुरक्षा देता है। इसने एक अनोखी एवं मजबूत सुरक्षा प्रणाली भी विकसित कर रखी है जिससे यह खतरनाक परभक्षियों से प्रायः सुरक्षित रह जाता है। खतरा होने पर यह अपने शरीर को जलेबीनुमा कुंडलित कर फुटबॉल की भाँति बना लेता है। यदि यह ऊँचे स्थान पर है तब खतरों से बचने के लिए यह फुटबॉल की भाँति लुढ़क कर मैदानी क्षेत्र में आ जाता है। इसकी आँखें व कान अल्प विकसित होते हैं लेकिन इनकी भरपाई यह सूंघने की अद्भुत क्षमता से पूरी कर लेता है। यह सूंघकर पता लगा लेता है कि इसका भोजन कहाँ और कितनी दूरी पर स्थित है। यह दन्त विहीन होता है। शरीर से अधिक लम्बी व आगे से नुकीली इसकी लचीली व चिप-चिपी जीभ मिट्टी के बड़े-बड़े टीलों व मांदों अथवा घोसलों में गहराई में रह रही दीमक व चींटियों तथा इनके अण्डों को पलक झपकते ही सुड़क (slurp up) लेती है। यह अपने तीक्ष्ण पंजों से मजबूत मांदों-टीलों-घोंसलों को मिनटों में चीर कर इन्हें ध्वंस करने की अद्भुत क्षमता रखता है। पक्षियों की भाँति पैंगोलिन भी भोजन पचाने हेतु कंकर-पत्थर निगलते हैं।

खतरा होने पर शरीर फुटबाल की भाँतिखतरा होने पर शरीर फुटबाल की भाँतिपैंगोलिन अक्सर जलीय स्त्रोतों के आस-पास जमीन में बिल बनाकर एकाकी जीवन व्यतीत करते हैं। दिन में नींद व आराम में खलल न हो इस हेतु यह बिल के मुहाने को मिट्टी से हल्का सा बन्द कर देता है। अपनी गुदा के नजदीक स्थित विशेष ग्रन्थि से गन्ध निकालकर अन्य वन्य प्राणियों की तरह ये भी अपना इलाका बनाते हैं। इनका प्रणय काल जनवरी से मार्च तक का होता है। इस दौरान नर व मादा पैंगोलिन जोड़े में रहते हैं। गर्भवती पैंगोलिन ३-४ महीनों में साल में एक ही शिशु (पैंगोपप्स) को जन्म देती है। इसकी छाती के मध्य स्थित दो स्तनों से अपने बच्चे को दूध पिलाती है। बड़ा होने पर पैंगोपप्स को अपनी पूँछ पर बिठाकर जंगल में विहार कराने के दौरान इसे सुरक्षा तथा भोजन खोजने व खाने का हुनर भी सिखाती है। कुछ महीनों बाद शिशु अपनी माँ से अलग हो जाता है। पैंगोलिन पेड़ों पर चढ़ने व पानी में तैरने में दक्ष होते हैं।

पैंगोलिन कुशल तैराक भीपैंगोलिन कुशल तैराक भीदीमक व चींटियाँ न केवल फसलों को बर्बाद करती हैं बल्कि ये जंगलों में उगे कई फलदार व बेसकीमती वृक्षों को भी भारी नुकसान पहुँचाती हैं। दूसरी ओर ये कीट कई हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि को भी खोखली अथवा पोली कर देते हैं जो खेती के लिए अनुपयुक्त हो जाती है। इससे किसानों को प्रतिवर्ष आर्थिक नुकसान होता है। देश में दीमकों व चीटियों को खत्म करने के लिये अनेक प्रकार के खतरनाक कीटनाशक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इनके अन्धाधुन्ध उपयोग से इंसानों व पशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ता है। ये रसायन पर्यावरण को तो नुकसान पहुँचाते ही हैं लेकिन इनसे पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद विभिन्न प्रकार की भोजन शृंखलाएँ दूषित हो जाने का खतरा ज्यादा चिन्ताजनक है। इन विषम परिस्थितियों में पैंगोलिन जीव हमारे लिये आदर्श मददगार साबित होते हैं। पैंगोलिन न केवल इन विनाशकारी कीड़े-मकोड़ों की आबादी को नियंत्रित करते हैं बल्कि जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्राकृतिक सन्तुलन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका भी होती है। लेकिन ग्रामीण व आदिवासी लोग अपनी बेवकूफी व नासमझी के कारण निहायती भोले इन जीवों की बर्बरता पूर्वक हत्या कर देते हैं।

भारतीय पैंगोलिन के शल्कभारतीय पैंगोलिन के शल्ककई अन्धविश्वासी ढोंगी बाबे-तुम्बड़े, भोपे-अड़भोपे, फकीर, तांत्रिक, काला जादू व टोना-टोटका करने वाले ये लालची लोग इन जीवों का बेरहमी से कत्ल करवा या कर देते हैं। इसका मांस लजीज होने से चीन व वियतनाम जैसे कई देशों के होटलों व रेस्तराओं में खाने की लिए बेधड़क परोसा जाता है। वैश्विक स्तर पर इनके मांस, चमड़ी, शल्क, हड्डियां व अन्य शारीरिक अंगों की अधिक मांग होने से इनका बड़े पैमाने पर शिकार करवाया जाता है तथा राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इनकी भारी मात्रा में तस्करी की जाती है। दूसरी ओर चीन व थाईलैंड जैसे कई देशों में इसके शल्कों का उपयोग यौनवर्धक औषधि व नपुसंकता दूर करने के लिये भी किया जाता है। जबकि आज तक इसका कोई वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध नहीं है। जानकारी के मुताबिक शल्कों को निकालने की लिये निर्दयतापूर्वक इन्हें जिन्दा ही खौलते गर्म पानी में डाल दिया जाता है जो बर्बरता की पराकाष्ठा है। इनके शल्कों का व्यापार गैर कानूनी है इसके बावजूद भारत में पंसारी लोग आज भी इनकी बिक्री बेखौफ होकर धड़ल्ले से करते हैं।

प्रो. शांतिलाल चौबीसाप्रो. शांतिलाल चौबीसाजानकारी के अनुसार विश्व में पैंगोलिन की तस्करी वन्य जीवों में सबसे ज्यादा की जाती है तथा लगभग तीन सौ पैंगोलिन हर दिन गैर कानूनी पकड़े जाते हैं। एक अनुमान यह भी है कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इस वन्य जीव की कीमत दस से बारह लाख रुपये तक आंकी गयी है। भारत में लगभग बीस से तीस हजार रुपये में इसे बेचा व खरीदा जाता है। इसका अन्धाधुन्ध आखेट, बड़े पैमाने पर तस्करी, तेजी से बढ़ता शहरीकरण व इनके घटते प्राकृतिक आवासों से भारत में इनकी संख्या में भारी गिरावट आयी है। हालांकि पर्यावरण एवं वन विभाग इन वन्य जीवों की ताजा स्थिति बताने में गुरेज करते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आई.यू.सी.एन.) ने अपनी रेड लिस्ट में भी इसको संकटग्रस्त प्रजातियों में शामिल करा रखा है। भारत में इसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची एक में रखा गया है। इसका आखेट करना, इसको सताना, मारना या पीटना, विष देना, तस्करी करना यह सब गैर कानूनी एवं अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह प्रजाति सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी संकटग्रस्त है। यह प्रजाति विलुप्त न हो इस हेतु लोगों में जागरूकता लाने व इसके सरंक्षण के लिये विश्व भर में प्रतिवर्ष फरवरी माह के तीसरे शनिवार को ‘वर्ल्ड पैंगोलिन डे’ (विश्व चींटीखोर दिवस) मनाया जाता है। लेकिन भारत में इसके प्रति लोगों में उत्साह नजर नहीं आता है। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के पर्यावरण, प्राणी शास्त्र तथा वन विभाग चाहें तो पहल कर प्रतिवर्ष सक्रिय जागरूकता अभियान चलाकर इस वन्यजीव के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। ग्रामीण छात्र-छत्राओं को ऐसे अभियानों से जोड़ने से इसके संरक्षण में अच्छे परिणाम आ सकते हैं। दूसरी ओर इसकी वंश वृद्धि दर भी कम होने से इसकी संख्या में कोई विशेष इजाफा नहीं होता है। इसलिए समय रहते इनके सरंक्षण, वंश वृद्धि अथवा इनके कुनबों को बढ़ाने हेतु आधुनिक तकनीकों व उपायों को अपनाने की जरूरत है। प्रकृति का यह अनोखा एवं शानदार वन्यजीव चीते की भाँति भारत से विलुप्त न हो जाय इसकी चिन्ता प्रकृति एवं वन्यजीव प्रेमियों को अब ज्यादा सताने लगी है।

(प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री, पर्यावरणविद एवं लेखक हैं।)

 

 

 

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